अध्यात्म

आस्था में भी वसुधैव कुटुम्बकम की सोच
(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
हमारा भारत आस्था, विश्वास, शौर्य और शरणागत के आश्रय देने वाला देश है। हमारे सनातन धर्म में आस्था भी संकुचित नहीं है बल्कि समूची पृथ्वी को एक परिवार मानती है। आज से 2 दिन बाद ही शारदीय नवरात्र का प्रारम्भ होगा। नवरात्र आदिशक्ति की उपासना का पर्व है। यदि शक्ति नहीं तो क्षमाशील होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों मंे क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है, उसका क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल है। इसलिए हम शक्ति की उपासना वर्ष में 2 बार नवररात्र मंे करते हैं। यहां हम शारदीय नवरात्र के अवसर पर आस्था मंे वसुघैव कुटुम्बकम की सोच के बारे मे बताना चाहेंगे।
माँ दुर्गा की उपासना मंे दुर्गा सप्तशती का पाठ करने और सुनने का विधान है। इसके अंत में सिद्धि का स्त्रोत के बाद मंत्रों की सिद्धि के बारे मंे बताया गया है। ये मंत्र भी दुर्गा सप्तशती के ही विभिन्न अध्यायों में उल्लिखित श्लोक हैं। इनमंे निजता के साथ सार्वभौमिक कल्याण की प्रार्थना आदिशक्ति माँ दुर्गा से की गयी है। सबसे पहला सिद्ध समपुट मंत्र है।
देव्या यथा ततमिदं जगदात्म शक्त्या
निश्शेष देव गण शक्ति समूह मूत्र्या
तामम्विकामखिल देव महर्षि पूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः।
यह मंत्र सामूहिक कल्याण के लिए है। इसका तात्पर्य है कि देवता माँ से प्रार्थना करते हुए कह रहे हैं कि सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है। समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। इससे पता लता है कि हमारी आस्था की सोच संकुचित नहीं है। हम स्वयं की नहीं बल्कि सामूहिक कल्याण की प्रार्थना और कामना करते हैं।
इसी प्रकार हमारा संकल्प खुद के लिए नहीं बल्कि विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिए है। माँ दुर्गा से हम प्रार्थना करते हैं-
यस्या प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्माहरश्च नहि वक्तुमलं बलं च
साचण्डिका खिल जगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु।
इसका तात्पर्य है कि जिन माँ के अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेव जी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चंडिका सम्पूर्ण जगत का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें।
हमारे सनातन धर्म की आस्था सिर्फ अपने और अपने देश तक ही सीमित नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व की रक्षा के लिए होती है। नवरात्र मंे दुर्गा सप्तशती का पाठ करते समय हम माँ दुर्गा से विनय करते हैं-
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवेनष्व लक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः
श्रद्धा सतां कुलजन प्रभवस्य लज्जां
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम्।
इसका तात्पर्य है कि जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मी रूप से, पापियों के यहां दरिद्रता रूप से, शुद्ध अंतःकरण वाले पुरुषों के हृदय मंे बुद्धि रूप से, सत्पुरुषों मंे श्रद्धा रूप से तथा कुलीन मनुष्य मंे लज्जा रूप से निवास करती हैं, उन भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि, आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिए।
आज विश्व मंे एक दूसरे देश की तरक्की बर्दाश्त नहीं की जा रही है, ऐसे वातावरण के विपरीत हमारे सनातन धर्म मंे विश्व के विकास के लिए प्रार्थना की गयी है-
विश्वेश्वरि त्वं परिपासविश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्ति नमः।
तात्पर्य है कि हे विश्वेश्वरि माँ दुर्गा, आप सम्पूर्ण विश्व का पालन करती हैं, विश्वरूपा हैं, इसलिए सम्पूर्ण विश्व को धारण करती हैं। तुम भगवान विश्वनाथ (शिवजी) की भी वंदनीया हो। जो लोग भक्ति पूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देने वाले होते हैं। यहां पर यह कहने मंे कोई संकोच नहीं है कि विश्व भर मंे दूसरों को लेकर संघर्ष हुए लेकिन भारत मंे सभी को शरण मिली। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका विश्व धर्म सम्मेलन मंे भी इसका उल्लेख किया था।
भारत की ही यह आस्था है जो विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिए भी आदिशक्ति से प्रार्थना करती है-
देविप्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतो अखिलस्य
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहिविश्वं
त्वमेश्वरी देविचराचरस्य। (हिफी)

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