लेखक की कलम

न्याय मिलने में 41 साल

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
अपने देश की न्यायिक प्रक्रिया से न्याय हासिल करने के लिए ध्रुव और पार्वती जैसी तपस्या की जरूरत है। फैसला देने में लेट लतीफी करने का विश्व रिकॉर्ड हमारी न्याय पालिका कायम कर रही है। इसका एक और बड़ा उदाहरण 1984 के सिख विरोधी दंगों से जुड़े एक मामले में आया फैसला है, जिसमें दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने दंगों के दौरान बाप-बेटे को जिंदा जलाकर मारने के मामले में आरोपी सज्जन कुमार को 41 साल बाद उम्रकैद की सजा सुनाई है। किसी मामले में चार दशक बाद फैसला आना हमारी न्यायिक व्यवस्या पर एक सवाल है।
आप जानते हैं कि जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइ यानि न्याय में देरी न्याय की मौत है। 1984 के दंगे में इस मामले में आया फैसला हमारे ज्यूडिशियल सिस्टम की हालत बयान करता है। हालांकि सज्जन कुमार को कड़ी सजा का यह फैसला कई संदेश लिये हुए है। दंगा पीड़ित परिवारों को न्याय मिलने में भले 41 साल लग गए हों, लेकिन फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है, चाहे वह कितना ही ताकतवर राजनीतिक क्यों न हो। यह सिख विरोधी दंगों से जुड़ा दूसरा मामला है, जिसमें सज्जन कुमार को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। हालांकि पीड़ित पक्ष और दिल्ली पुलिस ने सज्जन कुमार के लिए फांसी की सजा मांगी थी। अभियोजन ने इसे रेयरेस्ट ऑफ रेयर की कैटेगरी में मानने की मांग कोर्ट से की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया और उम्रकैद की सजा सुनाई है। दरअसल यह मामला 1 नवंबर 1984 को दिल्ली के सरस्वती विहार में भीड़ को भड़काने से जुड़ा है, जिसमें जसवंत सिंह और उनके बेटे तरुणदीप सिंह की हत्या हुई थी। अभियोजन पक्ष ने कहा था कि सन्जन कुमार ने भीड़ को उकसाकर बड़े स्तर पर सिखों के घरों, दुकानों पर लूट और आगजनी कराई। इसी दौरान एक घर में लूट और आग लगाने से पहले भीड़ ने सिख समुदाय के दो लोगों को जिंदा जलाकर मार दिया था। इसी मामले में उन्हें उम्रकैद की सजा दी गई है। इसके अलावा सिख विरोधी दंगों से जुड़े एक दूसरे मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने 2018 में सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी और वो तिहाड़ जेल में बंद हैं। पुलिस ने इस मामले में जिसे गवाह बनाया था, उसने 16 साल बाद सज्जन कुमार के इस हिंसा में शामिल होने की पुष्टि की थी। हालांकि उनके वकील ने इसका ही आधार बनाते हुए अपने मुवक्किल को निर्दोष बताया था। खुद सज्जन ने भी 1 नवंबर 2023 को कोर्ट में इस मामले में गवाही में खुद को निर्दोष बताया था। इस मामले में अभियोजन की तरफ से कोर्ट में दी गई दलीलों में इसे निर्भया केस से भी ज्यादा संगीन मामला बताया गया था, जिसमें समुदाय विशेष के लोगों को टारगेट करके किलिंग की गई थी। सिख विरोधी हिंसा को मानवता के खिलाफ अपराध बताते हुए अभियोजन ने इस मामले में सज्जन कुमार को फांसी की सजा सुनाए जाने की मांग की थी। लेकिन कोर्ट ने उनकी उम्र को देखते हुए उम्रकैद की सजा सुनायी है।
साल 1984 में 31 अक्टूबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके ही सिख बॉडीगार्ड्स ने पीएम आवास के अंदर ही गोलियों से छलनी कर दिया था। यह हत्या जून, 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सिख चरमपंथी जरनैल सिंह भिंडरावाला को पकड़ने के लिए भारतीय सेना को घुसने की इजाजत देने के विरोध में की गई थी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली समेत पूरे देश में सिख विरोधी दंगे भड़क गए थे। बड़े पैमाने पर सिखों की हत्याएं की गई थीं या फिर उन्हें मारपीट कर अधमरा कर दिया गया था। माना जाता है कि इन दंगों में तीन से पांच हजार लोग मारे गए थे। अकेले दिल्ली में ही दो हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। अब इस घटना के करीब 41 साल बाद सज्जन को एक और मामले में दोषी ठहराया गया है। कांग्रेस के एक और नेता जगदीश टाइटलर के खिलाफ भी केस चल रहा है। इसके अलावा कांग्रेस नेता एचकेएल भगत और कमल नाथ भी सिख दंगों से जुड़े मामलों में आरोपी हैं। इन दंगों में कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं की संलिप्तता का दावा किया गया था और इनमें से ही सज्जन कुमार भी एक है। अगर देखा जाए तो इन दंगों के पीड़ितों में से बहुत सारे लोगों को आज तक भी न्याय नहीं मिला है और उनके केस अदालतों में लंबित हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि सिख दंगे के पीड़ितों को न्याय कब तक मिलेगा। सिख दंगों में सजा में देरी देश की न्यायिक प्रक्रिया की हकीकत को उजागर करता है। न्याय प्रक्रिया को जटिलताओं की वजह से मामले के लंबा खिंचने का आरोपियों ने फायदा उठाया और पीड़ित परिवारों की आधी जिंदगी न्याय के इंतजार में गुजर गई। दंगा पीड़ितों में आज भी कई ऐसे परिवार हैं, जो न्याय की उम्मीद में करीब चार दशक का वक्त गुजार चुके हैं। वैसे दंगा पीड़ितों की तादाद भी काफी है, जो न्याय के लिए गुहार भी नहीं लगा सके, जिनका सब कुछ खत्म हो गया और जिन्होंने नए सिरे से जीवन की शुरुआत की। जिन्होंने दंगाइयों को भड़काने वालों के खिलाफ बोलने की हिम्मत जुटाई, तमाम धमकियों और दबावों के बीच जटिल कानूनी प्रक्रिया के तहत संघर्ष करने का संकल्प किया, उसी का नतीजा है कि सज्जन कुमार जैसे नेता को सजा के अंजाम तक लाया जा सका।
तत्कालीन सरकार ने इन दंगों में शामिल अपने नेताओं को पूरी तरह सुरक्षा देने का यत्न किया और लूटमार करती भीड़ के संबंध में आंखें मूंद ली थीं। उसी समय कई मानवाधिकार संगठनों ने दिल्ली में हुए इस घटनाक्रम संबंधी चश्मदीद गवाहों के आधार पर रिपोर्ट प्रकाशित करवाई गई, जिनकी बड़े स्तर पर चर्चा हुई। कुछ दर्जन केस भी दर्ज किये गये और बाकी सभी घटनाक्रमों को दबा दिया गया। बाद में कई कमिशन भी बने, उनकी रिपोर्टों को भी धीरे-धीरे सबूत न मिलने का बहाना बनाकर खारिज कर दिया गया। कुछेक दोषियों को छोटी मोटी सजा मिली। एक अपराधी किशोरी लाल बुचड़ को फांसी की सजा भी हुई जो बाद में खारिज कर दी गई। दिल्ली पुलिस ने चलते केसों को आधारहीन और जानहीन बना दिया और इन दंगों से संबंधित बहुत सी फाइलें भी बंद कर दीं, जिससे भाईचारे के शरीर पर लगे जख्म नासूर बनते गये।
केन्द्र में साल 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद 2015 में गृह मंत्रालय द्वारा एसआईटी का गठन करके पुनः जांच शुरू करवाई गई। इन दंगों से संबंधित फाइलों को पुनः खोला गया ताकि पीड़ित परिवारों को राहत मिल सके। समय बीतने और तत्कालीन शासकों द्वारा तथ्यों को हर ढंग तरीके से छुपा देने के कारण यह काम और भी मुश्किल हो गया था। इसी कारण 8 जुलाई, 1994 को दिल्ली की एक अदालत ने सज्जन कुमार के विरुद्ध साक्ष्य न होने के कारण आरोप पत्र दाखिल करने से मना कर दिया था। 8 मई 2000 को नानावती आयोग भी गठित किया गया था पर उसमें से भी बहुत कुछ हासिल न हो सका। इन दंगों ने दुनिया भर में भारत की छवि को भारी धक्का पहुंचाया। ऐसे में सज्जन कुमार ही नहीं, दंगे की साजिश रचने वाले हर आरोपी को न्याय के कठमरे में लाया जाना चाहिए। (हिफी)

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