अर्जुन कभी-कभी कृष्ण व यादव कह देते थे
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-15)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘सखा इति मत्वा’, ‘प्रणयेन’ और ‘प्रमादात्’ इन पदों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपकी अप्रतिम और अपार महिमा को न जानने के कारण ही मैंने आपको अपनी बराबरी का मित्र मान रक्खा था और इसलिये मैंने बातचीत में कभी आपके महान् गौरव और सर्वपूज्य महत्त्व का ख्याल नहीं रक्खा। अतः प्रेम या प्रमाद से मेरे द्वारा निश्चय ही बड़ी भूल हुई। बड़े-से-बड़े देवता ओर महर्षि गण जिन आपके चरणों की वन्दना करना अपना सौभाग्य समझते हैं, मैंने उन आपके साथ बराबरी का बर्ताव किया। अब आप इसके लिये अपनी दयालुता से मुझको क्षमा कीजिये।
प्रश्न-‘प्रसभम्’ पद का प्रयोग करके ‘हे कृष्ण’ ‘हे यादव’ हे सखे’ इन पदों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-अर्जुन प्रेम या प्रमाद वश जिन अपराधों का अपने द्वारा होना मानते हैं, यहाँ इन पदों का प्रयोग करके वे उन्हीं का स्पष्टीकरण कर रहे हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रभो! कहाँ आप और कहाँ मैं! मैं इतना मूढ़मति हो गया कि आप परम पूजनीय परमेश्वर को मैं अपना मित्र ही मानता रहा और किसी भी आदरसूचक विशेषण का प्रयोग न करके सदा बिना सोचे-समझे ‘कृष्ण’ ‘यादव’ और ‘सखे’ आदि कहकर आपको तिरस्कारपूर्वक पुकारता रहा। मेरे इन अपराधों को आप क्षमा कीजिये।’
प्रश्न-‘अच्युत’ सम्बोधन का क्या भाव है?
उत्तर-अपने महत्त्व और स्वरूप से जिसका कभी पतन न हो, उसे ‘अच्युत’ कहते हैं। यहाँ भगवान् को ‘अच्युत’ नाम से सम्बोधित करके अर्जुन यह भाव दिखला रहे हैं कि मैंने अपने व्यवहार-बर्ताव द्वारा आपका जो अपमान किया है, अवश्य ही वह मेरा बड़ा अपराध है, किन्तु भगवन्! मेरे ऐसे व्यवहारों से वस्तुतः आपकी कोई हानि नहीं हो सकती। संसार में ऐसी कोई भ्ीा क्रिया नहीं हो सकती जो आपको अपनी महिमा से जरा भी डिगा सके। किसी की सामथ्र्य नहीं, जो आपका कोई अपमान कर सके क्योंकि आप सदा ही अच्युत हैं।
प्रश्न-‘यत्’ और ‘च’ के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-पिछले श्लोक में अर्जुन ने जिन अपराधों का स्पष्टीकरण किया है, इस श्लोक में उनसे भिन्न अपने व्यवहार द्वारा होने वाले दूसरे अपराधों के साथ इस श्लोक में बतलाये हुए समस्त अपराधों का समाहार करने के लिये ‘च’ का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-‘अवहासार्थम्’ का क्या भाव है?
उत्तर-प्रेम, प्रमाद और विनोद-इन तीन कारणों से मनुष्य व्यवहार में किसी के मानापमान का ख्याल नहीं रखता। प्रेम में नियम नहीं रहता, प्रमाद में भूल होती है और विनोद में वाणी की यथार्थता का सुरक्षित रहना कठिन हो जाता है। किसी सम्मान्य पुरुष के अपमान में ये तीनों कारण मिलकर भी हेतु हो सकते हैं और पृथक्-पृथक् भी। इनमें से ‘पे्रम’ और ‘प्रमाद’ इन कारणों के विषय में पिछले श्लोक में अर्जुन कह चुके हैं। यहाँ ‘अवहासार्थम्’ पद से तीसरे कारण हँसी-मजाक का लक्ष्य करा रहे हैं।
प्रश्न-‘विहारशय्यासन भोजनेषु’, ‘एकः’ और ‘तत्समक्षम्’ इन पदों का प्रयोग करके ‘असत्कृतोऽसि’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इनके द्वारा अर्जुन उन अवसरों का वर्णन कर रहे हैं जिनमें वे अपने द्वारा भगवान् का अपमान होना मानते हैं। वे कहते हैं कि एक साथ चलते-फिरते, बिछौने पर सोते, ऊँचे-नीचे या बराबरी के आसनों पर बैठते और खाते-पीते समय मेरे द्वारा आपका जो बार-बार अनादर किया गया है फिर वह चाहे एकान्त में किया गया हो या सब लोगों के सामने मैं अब उसको बड़ा अपराध मानता हूँ और ऐसे प्रत्येक अपराध के लिये आपसे क्षमा चाहता हूँ।
प्रश्न-‘तत्’ पद किसका वाचक है तथा ‘त्वाम्’ के साथ ‘अप्रमेयम्’ विशेषण देकर ‘क्षामये’ क्रिया के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘तत्’ पद यहाँ इकतालीसवें और बयालीसवें श्लोकों में जिन अपराधों का अर्जुन ने वर्णन किया है, वैसे समस्त अपराधों का वाचक है तथा ‘स्वाम’ पद के साथ ‘अप्रमेयम्’ विशेषण देकर ‘क्षामये’ क्रिया का प्रयोग करके अर्जुन ने भगवान् से उन समस्त अपराधों को क्षमा करने के लिये प्रार्थना की है। अर्जुन कह रहे हैं कि प्रभो! आपका स्वरूप और महत्त्व अचिन्तय है। उसको पूर्णरूप से तो कोई भी नहीं जान सकता। किसी को उसका थोड़ा-बहुत ज्ञान होता है तो वह आपकी कृपा से ही होता है। यह आपके परम अनुग्रह का ही फल है कि मैं-जो पहले आपके प्रभाव को नहीं जानता था और इसीलिये आपका अनादर किया करता था, अब आपके प्रभाव को कुछ-कुछ जान सकता हूँ। अवश्य ही ऐसी बात नहीं कि मैंने आपका सारा प्रभाव जान लिया है, सारा जानने की बात तो दूर रही-मैं तो अभी उतना भी नहीं समझ पाया हूँ जितना आपकी दया मुझे समझा देना चाहती है परन्तु जो कुछ समझा हूँ, उसी से मुझे यह भलीभाँति मालूम हो गया है कि आप सर्वशक्तिमान् साक्षात् परमेश्वर हैं। मैंने जो आपको अपनी बराबरी का मित्र मानकर आपसे जैसे बर्ताव किया उसे मैं अपराध मानता हूँ और ऐसे समस्त अपराधों के लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ।
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्व गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।। 43।।
प्रश्न-आप इस चराचर जगत के पिता बड़े से बड़े गुरु और पूज्य हैं-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से अर्जुन ने अपराध क्षमा करने के औचित्य का प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं भगवन् यह सारा जगत् आप ही से उत्पन्न है, अतएव आप ही इसके पिता हैं। संसार में जितने भी बड़े-बड़े देवता, महर्षि और अन्यान्य समर्थ पुरुष हैं उन सबमें सबकी अपेक्षा बड़े ब्रह्माजी हैं क्योंकि सबसे पहले उन्हीं का प्रादुर्भाव होता है और वे ही आपके नित्य ज्ञान के द्वारा सबको यथायोग्य शिक्षा देते हैं। परन्तु हे प्रभो! वे ब्रह्माजी भी आप ही से उत्पन्न होते हैं और उनको वह ज्ञान भी आप ही से मिलता है। अतएव हे सर्वेश्वर! सबसे बड़े सब बड़ों से बड़े और सबके एकमात्र महान् गुरू आप ही हैं। समस्त जगत् जिन देवताओं की और महर्षियों की पूजा करता है उन देवताओं के और महर्षियों के भी परम पूज्य तथा नित्य वन्दनीय ब्रह्मा आदि देवता और वसिष्ठादि महर्षि
यदि क्षण भर के लिये आपके प्रत्यक्ष पूजन या स्तवन का सुअवसर पा
जाते हैं तो अपने को महान् भाग्यवान समझते हैं। अतएव सब पूजनीयों के भी परम पूजनीय आप ही हैं, इसलिये मुझ क्षुद्र के अपराधों को क्षमा करना आपके लिये सभी प्रकार से उचित है।-क्रमशः (हिफी)