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अहंकार से मोहित रहते आसुरी प्रकृति के लोग

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सोलहवां अध्याय-05)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘कामक्रोध परायणाः’ का क्या भाव है?
उत्तर-उन आशाओं की पूर्ति के लिये वे भगवान् का या किसी देवता, सत्कर्म और सद्विचार का आश्रय नहीं लेते केवल काम-क्रोध का ही अवलम्बन करते हैं। इसलिये उनको काम-क्रोध के परायण कहा गया है।
प्रश्न-विषय भोगांे के लिये अन्यायपूर्वक धनादि के संग्रह की चेष्टा करना क्या है?
उत्तर-विषय-भोगों के उद्देश्य से जो काम-क्रोध अवलम्बन करके अन्यायपूर्वक अर्थात् चोरी, ठगी, डाका, झूठ, कपट, छल, दम्भ, मार-पीट, कूटनीति, जूआ, धोखेबाजी, विष-प्रयोग, झूठे मुकदमे और भय-प्रदान आदि शास्त्र विरुद्ध उपायों के द्वारा दूसरों के धनादि को हरण करने की चेष्टा करना है-यही विषय-भोगों के लिये अन्याय से अर्थ संचय करने का प्रयत्न करना है।
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।। 13।।
प्रश्न-इस श्लोक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मनोरथ शब्द यहाँ स्त्री, पुत्र, धन, जमीन, मकान और मान, बड़ाई आदि सभी मनोवांछित पदार्थों के चिन्तन का वाचक है अतएव इस श्लोक में यह भाव दिखलाया गया है कि आसुर-स्वभाव वाले पुरुष अहंकार पूर्वक नाना प्रकार के विचार करते रहते हैं। वे सोचते हैं कि अमुक अभीष्ट वस्तु तो मैंने अपने पुरुषार्थ से प्राप्त कर ली है और अमुक मनोवांछित वस्तुओं को मैं अपने पुरुषार्थ से प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन और ऐश्वर्य तो पहले से है ही और फिर इतना और हो जाएगा।
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।। 14।।
प्रश्न-वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-कामोपभोग को ही परम पुरुषार्थ मानने वाले असुर-स्वभाव के मनुष्य काम-क्रोध परायण होते हैं। ईश्वर, धर्म और कर्म फल में उनका जरा भी विश्वास नहीं होता। इसलिये वे अहंकार से उन्मत्त होकर समझते हैं कि जगत् में ऐसा कौन है जो हमारे मार्ग में बाधा दे सके या हमारे साथ विरोध करके जीवित रह सके?
इसलिये वे क्रोध में भरकर घमण्ड के साथ क्रूर वाणी से कहा करते हैं कि वह जो इतना बड़ा बलवान और जगत प्रसिद्ध प्रभावशाली पुरुष था, हमसे वैर रखने के कारण देखते-ही-देखते हमारे द्वारा यमपुरी पहुँचा दिया
गया, इतना ही नहीं, जो कोई
दूसरे हमसे विरोध करते हैं या करेंगे, वे भी चाहे जितने भी बलवान् क्यांे न हों, उनको भी हम अनायास ही मार डालेंगे।
प्रश्न-मैं ईश्वर, भोगों, सिद्ध, बलवान् और सुखी हूँ इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि अहंकार के साथ ही वे मान में भी चूर रहते हैं, इससे ऐसा समझते हैं कि संसार में हमसे बड़ा और है ही कौन, हम जिसे चाहे मार दें, बचा दें, जिसकी चाहें जड़ उखाड़ दें या रोप दें। अतः बड़े गर्व के साथ कहते हैं अरे! हम सर्वथा स्वतन्त्र हैं सब कुछ हमारे ही हाथों में तो है हमारे सिवा दूसरा कौन ऐश्वर्यवान् है, सारे ऐश्वर्यों के स्वामी हमीं तो हैं। सारे ईश्वरों के ईश्वर परम पुरुष भी तो हम ही हैं। सबको हमारी ही पूजा करनी चाहिये। हम केवल ऐश्वर्य के स्वामी ही नहीं, समस्त ऐश्वर्य का भोग भी करते हैं। हमने अपने जीवन में कभी विफलता का अनुभव किया ही नहीं। हमने जहां हाथ डाला, वहीं सफलता ने हमारा अनुगमन किया। हम सदा सफल जीवन हैं, परम सिद्ध हैं, भविष्य में होने वाली घटना हमें पहले से ही मालूम हो जाती है। हम सब कुछ जानते हैं, कोई बात हमसे छिपी नहीं है। इतना ही नहीं, हम बड़े बलवान् हैं हमारे मनोबल या शारीरिक बल का इतना प्रभाव है कि जो कोई उसका सहारा लेगा, वही उस बल से जगत् पर विजय पा लेगा। इन्हीं सब कारणों से हम परम सुखी हैं संसार के सारे सुख सदा हमारी सेवा करते हैं और करते रहेंगे।
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।। 15।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगुषु पतन्ति नरकेऽशुचै।। 16।।
प्रश्न-मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है? इस कथन का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-इससे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के धन और कुटुम्ब सम्बन्धी घमण्ड का स्पष्टीकरण किया गया है। अभिप्राय यह है कि वे आसुर-स्वभाव वाले पुरुष अहंकार से कहते हैं कि हमारे धन का और हमारे कुटुम्बी, मित्र, बान्धव, सहयोगी, अनुयायी और साथियों का पार ही नहीं है। हमारी एक आवाज से असंख्यों मनुष्य हमारा अनुगमन करने को तैयार हैं। इस प्रकार धनबल और जनबल में हमारे समान दूसरा कोई भी नहीं है।
प्रश्न-मैं यह करूँगा, दान दूँगा-इस कथन का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-इससे उनका यज्ञ और दान सम्बन्धी मिथ्या अभिमान दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि आसुर स्वभाव वाले मनुष्य वास्तव में न तो सात्त्विक यज्ञ या दान करते हैं और न करना चाहते ही हैं। केवल दूसरों पर रोब जमाने के लिये यज्ञ और दान का ढोंग रचकर अपने घमण्ड को व्यक्त करते हुए कहा करते हैं कि हम अमुक यज्ञ करेंगे, बड़ा भारी दान देंगे। हमारे समान दान देने वाला और यज्ञ करने वाला दूसरा कौन है?
प्रश्न-मैं आमोद-प्रमोद करूँगा इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे उनका सुख सम्बन्धी मिथ्या अभिमान दिखलाया गया है। वे आसुर-स्वभाव वाले लोग भाँति-भाँति की डींग हाँकते हुए गर्व में फूलकर कहा करते हैं कि ‘अहा’! फिर कैसी मौज होगी, हम आनन्द में मग्न हो रहेंगे, मजे उड़ायँगे।
प्रश्न-‘‘इति अज्ञानविमोहिताः’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि वे आसुर-स्वभाव वाले लोग तेरहवें श्लोक से लेकर यहाँ तक बतलाये हुए अहंकार रूप अज्ञान से अत्यन्त मोहित रहते हैं।-क्रमशः (हिफी)

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