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कृष्ण ने बताये अर्जुन को सुख के तीन भेद

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-16)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद ये शब्द अलग-अलग किन-किन भावों के वाचक हैं तथा धृति के द्वारा इनको न छोड़ना अर्थात् धारण किये रहना क्या है?
उत्तर-निद्रा और तन्द्रा आदि जो मन और इन्द्रियों को तमसाच्छन्न , बाह्य क्रिया से रहित और मूढ़ बनाने वाले भाव हैं, उन सबका नाम स्वप्न्न है, धन आदि पदार्थों के नाश की, मृत्यु की, दुःख प्राप्ति की, सुख के नाश की अथवा इसी तरह अन्य किसी प्रकार के इष्ट के नाश और अनिष्ट-प्राप्ति की आशंका से अन्तःकरण में जो एक आकुलता और घबड़ाहट भरी वृत्ति होती है उसका नाम भय है मन में होने वाली नाना प्रकार की दुश्चिंताओं का नाम शोक है उसके द्वारा जा इन्द्रियों में सन्ताप हो जाता है, उसे विषाद कहते हैं, यह शोक का ही स्थूल भाव है तथा जो धन, जन और बल आदि के कारण होने वाली उन्मत वृत्ति है, उसे मद कहते हैं इसी का नाम गर्व, घमंड और उन्मत्तता भी है। इन सबको तथा प्रमाद आदि अन्यान्य तामस भावों को जो अन्तःकरण से दूर हटाने की चेष्टा न करके इन्हीं में डूबे रहना है, यही धृति के द्वारा इनको न छोड़ना अर्थात् धारण किये रहना है।
प्रश्न-वह धारण शक्ति तामसी है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि त्याग करने योग्य उपर्युेक्त तामस भावों को जिस धृति के कारण मनुष्य छोड़ नहीं सकता, अर्थात् जिस धारण शक्ति के कारण उपर्युक्त भाव मनुष्य के अन्तःकरण में स्वभाव से ही धारण किये हुए रहते हैं। वह धृति तामसी है। यह धृति सर्वथा अनर्थ में हेतु है, अतएव कल्याणकामी मनुष्य को इसका तुरंत और सर्वतो भाव से त्याग कर देना चाहिये।
सुखं त्विदानी त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।। 36।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।। 37।।
प्रश्न-अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार मैंने ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और धृति के सात्त्विक राजस और तामस भेद बतलाये हैं, उसी प्रकार सात्त्विक सुख को प्राप्त कराने के लिये और राजस-तामस का त्याग कराने के लिये अब तुम्हें सुख के भी तीन भेद बतलाता हूँ उनको तुम सावधानी के साथ सुनो।
प्रश्न-‘यत्र’ पद किस सुख का वाचक है तथा अभ्यास से रमण करता है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-जो सुख प्रशान्त मनवाले योगी को मिलता है, उसी उत्तम सुख का वाचक यहाँ ‘यत्र’ पद है। मनुष्य को इस सुख का अनुभव तभी होता है, जब वह इस लोक और परलोक के समस्त भोग-सुखों को क्षणिक समझकर उन सबसे आसक्ति हटाकर निरन्तर परमात्म स्वरूप के चिन्तन का अभ्यास करता है। बिना साधन के इसका अनुभव नहीं हो सकता। यही भाव दिखलाने के लिये इस सुख का जिसमें अभ्यास से रमण करता है, यह लक्षण किया गया है।
प्रश्न-जिससे दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है, इस कथन का कया भाव है?
उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि जिस सुख में रमण करने वाला मनुष्य आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-सब प्रकार के दुःखों के सम्बन्ध से सदा के लिये छूट जाता है। जिस सुख के अनुभव का
फल निरतिशय सुख स्वरूप सच्चिदानन्दधन परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति बतलाया गया है। वही सात्त्विक सुख है।
प्रश्न-यहाँ ‘अगे्र’ पद किस समय का वाचक है और सात्त्विक सुख का विष के तुल्य प्रतीत होना क्या है?
उत्तर-जिस समय मनुष्य सात्त्विक सुख की महिमा सुनकर उसको प्राप्त करने की इच्छा से, उसकी प्राप्ति के उपाय भूत विवेक, वैराग्य, शम, दम और तितिक्षा आदि साधनों में लगता है। उस समय का वाचक, यहाँ ‘अग्रे’ पद है। उस समय जिस प्रकार बालक अपने घरवालों से विद्या की महिमा सुनकर विद्याभ्यास की चेष्टा करता है, पर उसके महत्त्व का यथार्थ अनुभव न होने के कारण आरम्भ काल में अभ्यास करते समय उसे खेल-कूद को छोड़कर विद्याभ्यास में लगे रहना अत्यन्त कष्टप्रद और कठिन प्रतीत होता है, उसी प्रकार सात्त्विक सुख के लिये अभ्यास करने वाले मनुष्य को भी विषयों का त्याग करके संयमपूर्वक, विवेक, वैराग्य, शम, दम और तितिक्षा आदि साधनों में लगे रहना अत्यन्त श्रमपूर्ण और कष्टप्रद प्रतीत होता है, वही आरम्भ काल में सात्त्विक सुख का विष के तुल्य प्रतीत होना है।
प्रश्न-वह सुख परिणाम में अमृत के तुल्य है। इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह दिखलाया गया है कि जब सात्त्विक सुख की प्राप्ति के लिये साधन करते-करते साधक को उस ध्यान जनित सुख का अनुभव होने लगता है, तब उसे वह अमृत के तुल्य प्रतीत होता है उस समय उसके सामने संसार के समस्त भोग-सुख तुच्छ, नगण्य और दुःख रूप प्रतीत होने लगते हैं।
प्रश्न-वह परमात्मा विषयक बुद्धि के प्रसाद से होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-उपर्युक्त प्रकार से अभ्यास करते-करते निरन्तर परमात्मा का
ध्यान करने के फल स्वरूप अन्तःकरण के स्वच्छ होने पर इस सुख का अनुभव होता है, इसीलिये इस सुख को परमात्म बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला बतलाया गया है और वह सुख सात्त्विक है। इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि यही सुख उत्तम सुख है, राजस और तामस सुख वास्तव में सुख ही नहीं है। वे तो नाम मात्र के ही सुख हैं, परिणाम में दुःख रूप ही हैं, अतएव अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को राजस-तामस सुखों में फँसकर निरन्तर सात्त्विक सुख में ही रमण करना चाहिये।-क्रमशः (हिफी)

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