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वर्णों को कत्र्तव्य पालन से मिलता परम पद

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-21)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-परिचर्यात्मकम् यानी सब वर्णों की सेवा करना किसको कहते हैं?
उत्तर-उपर्युक्त द्विजाति वर्णों की अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की दासवृत्ति से रहना उनकी आज्ञाओं का पालन करना घर में जल भर देना, स्नान करा देना, उनके जीवन निर्वाह के कार्यों में सुविधा कर देना, दैनिक कार्य में यथायोग्य सहायता करना, उनके पशुओं का पालन करना, उनकी वस्तुओं को सम्हालकर रखना, कपड़े साफ करना, क्षौर कर्म करना आदि जितने भी सेवा के कार्य हैं, उन सबको करके उनको सन्तुष्ट रखना अथवा सबके काम में आने वाली वस्तुओं को कारीगरी के द्वारा तैयार करके उन वस्तुओं से उनकी सेवा करके अपनी जीविका चलाना ये सब परिचर्यात्मकम् यानी सब वर्णों की सेवा करना रूप कर्म के अन्तर्गत हैं।
प्रश्न-यह शूद्र का स्वाभाविक कर्म है, इस कथन का क्या भाव है तथा यहाँ ‘अपि’ पद का प्रयोग किसलिये किया गया है?
उत्तर-शूद्र के स्वभाव में रजो मिश्रित तमोगुण प्रधान होता है, इस कारण उपर्युक्त सेवा के कार्यों में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। ये कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल पड़ते हैं अतएव इनके करने में उसे किसी प्रकार की कठिनता का बोध नहीं होता। यहाँ ‘अपि’ का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे दूसरे वर्णों के लिये उनके अनुरूप अन्य कर्म स्वाभाविक हैं इसी तरह शूद्र के लिये भी सेवा रूप कर्म स्वाभाविक हैं। साथ ही यह भाव भी दिखलाया है कि शूद्र का केवल एक सेवा रूप कर्म ही कर्तव्य है और वही उसके लिये स्वाभाविक है, अतएव उसके लिये इसका पालन करना बहुत ही सरल है।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्विं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।। 45।।
प्रश्न-इस वाक्य में ‘स्वे’ पद का दो बार प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया है तथा ‘संसिद्धिम्’ पद किस सिद्धि का वाचक है।
उत्तर-यहाँ ‘स्वे’ पद का दो बार प्रयोग करके भगवान् ने यह दिखलाया है कि जिस मनुष्य का जो स्वाभाविक कर्म है उसी का अनुष्ठान करने से उसे परम पद की प्राप्ति हो जाती है। अर्थात् ब्राह्मण को अपने शम-दमादि कर्मों से क्षत्रिय को शूरवीरता, प्रजा पालन और दानादि कर्मों से और वैश्य को कृषि आदि कर्मों से जो फल मिलता है, वही शूद्र को सेवा के कर्मों से मिल जाता है। इसलिये जिसका जो स्वाभाविक कर्म है, उसके लिये वही परम कल्याण प्रद है, कल्याण के लिये एक वर्ण को दूसरे वर्ण के कर्मों के ग्रहण करने की जरूरत नहीं है।
‘संसिद्धिम’ पद यहाँ अन्तःकरण की शुद्धि रूप सिद्धि का या स्वर्ग प्राप्ति का अथवा अणिमाद सिद्धियों का वाचक नहीं है यह उस परम सिद्धि का वाचक है जिसे परमात्मा की प्राप्ति, परम गति प्राप्ति, शाश्वत पद की प्राप्ति, परम पद की प्राप्ति और निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति कहते हैं। इसके सिवा ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्मों में ज्ञान और विज्ञान भी हैं, अतः उनका फल परम गति के सिवा दूसरा मानना बन भी नहीं सकता।
प्रश्न-यहाँ ‘नरः’ पद किसका वाचक है और उसका प्रयोग करके अपने-अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है, यह कहने का क्या भाव है?
उत्तर-यहाँ ‘नरः’ पद चारों वर्णों में प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक मनुष्य का वाचक है। अतएव इसका प्रयोग करके अपने-अपने कर्मों में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। इस कथन से मनुष्य मात्र का मोक्ष प्राप्ति में अधिकार दिखलाया गया है। साथ ही यह भाव दिखलाया गया है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिये कर्तव्य कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, परमात्मा को लक्ष्य बनाकर सदा-सर्वदा वर्णाश्रमोचित कर्म करते-करते ही मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो सकता है।
प्रश्न-अपने स्वाभाविक कर्मों में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करता हुआ परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन-इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-पूर्वार्द्ध में यह बात कही गयी कि अपने-अपने कर्मों में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को पा लेता है। इस पर यह शंका होती है कि कर्म तो मनुष्य को बाँधने वाले हैं उनमें तत्परता से लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को कैसे पाता है। अतः उसका समाधान करने के लिये भगवान् ने यह वाक्य कहा है। अभिप्राय यह है कि उन कर्मों में लगे रहकर परम पद को प्राप्त कर लेने का उपाय मैं तुम्हें अगले श्लोक में स्पष्ट बतलाता हूँ, तुम सावधानी के साथ उसे सुनो।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमम्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।। 46।।
प्रश्न-जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-अपने-अपने कर्मों द्वारा भगवान् की पूजा करने की विधि बतलाने के लिये पहले इस कथन के द्वारा भगवान् के गुण, प्रभाव और शक्ति के सहित उनके सर्वव्यापी स्वरूप का लक्ष्य कराया गया है। अभिप्राय यह है कि मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्तव्य-कर्म का पालन करते समय इस बात का
ध्यान रहना चाहिये कि सम्पूर्ण चराचर प्राणियों के सहित यह समस्त विश्व भगवान् से ही उत्पन्न हुआ है और भगवान् से ही व्याप्त है, अर्थात् भगवान् ही अपने योगमाया से जगत् के रूप में प्रकट हुए हैं। इसलिये यह जगत् उन्हीं का स्वरूप है। यह समस्त विश्व भगवान् से किस प्रकार व्याप्त है, यह बात नवें अध्याय के चैथे श्लोक की व्याख्या में समझायी गयी है।
प्रश्न-अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा उस परमेश्वर की पूजा करना क्या है?
उत्तर-भगवान् इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सबके प्रेरक, सबके आत्मा, सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापी हैं, यह सारा जगत् उन्हीं की रचना है और वे स्वयं ही अपने योगमाया से जगत् के रूप में प्रकट हुए हैं, अतएव यह सम्पूर्ण जगत् भगवान् का है मेरे शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा मेरे द्वारा जो कुछ भी यज्ञ, दान आदि स्ववर्णोचित कर्म किये जाते हैं वे सब भी भगवान् के हैं और मैं स्वयं भी भगवान् का ही हूँ, समस्त देवताओं के एवं अन्य प्राणियों के आत्मा होने के कारण वे ही समस्त कर्मों के भोक्ता हैं। परम श्रद्धा और विश्वास के साथ इस प्रकार समझकर समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का सर्वथा त्याग करके भगवान् के आज्ञानुसार उन्हीं की प्रसन्नता के लिये अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा जो समस्त जगत की सेवा करना है-अर्थात् समस्त प्राणियों को सुख पहुँचाने के लिये उपर्युक्त प्रकार से स्वार्थ का त्याग करके जो अपने कर्तव्य का पालन करना है, यही अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा परमेश्वर की पूजा करना है।-क्रमशः (हिफी)

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