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आग में धुएं की तरह कर्मों में हैं दोष

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-23)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘हि’ अव्यय का प्रयोग करके सभी कर्मों को धूएं से अग्नि की भाँति दोष से युक्त बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘हि’ पद यहाँ हेतु के अर्थ में है, इसका प्रयोग करके समस्त कर्मों को धूएँ से अग्नि की भाँति दोष से युक्त बतलाने का यहाँ यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार धूएँ से अग्नि ओतप्रोत रहती है, धूआँ अग्नि से सर्वथा अलग नहीं हो सकता। उसी प्रकार आरम्भ मात्र दोष से ओतप्रोत हैं, क्रियामात्र में किसी न किसी प्रकार से किसी न किसी प्राणी की हिंसा हो ही जाती है, क्योंकि संन्यास आश्रमों में भी शौच,, स्नान और भिक्षाटनादि कर्म द्वारा किसी न किसी अंश में प्राणियों की हिंसा ही है और ब्राह्मण के यज्ञादि कर्मों में भी आरम्भ की बहुलता होने से क्षुद्र प्राणियों की हिंसा होती है। इसलिये किसी भी वर्ण आश्रम के कर्म साधारण दृष्टि से सर्वथा दोष रहित नहीं हैं और कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता। इस कारण स्वधर्म का त्याग कर देने पर भी कुछ न कुछ कर्म तो मनुष्य को करना ही पड़ेगा तथा वह जो कुछ करेगा, वही दोष युक्त होगा। इसीलिये अमुक कर्म नीचा है या दोष युक्त है। ऐसा समझकर मनुष्य को स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये बल्कि उसमें ममता, आसक्ति और फलेच्छा रूपी दोषों का त्याग करके उनका न्याययुक्त आचरण करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध होकर उसे शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कम्र्यसिर्द्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।। 49।।
प्रश्न-‘सर्वत्र असक्त बुद्धिः, ‘विगतस्पृहः’ और जितात्मा इन तीनों विशेषणों का अलग-अलग क्या अर्थ है और यहाँ इनका प्रयोग किसलिये किया गया है।
उत्तर-अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित शरीर में उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में तथा समस्त भोगों में और चराचर प्राणियों के सहित समस्त जगत् में जिसकी आसक्ति का सर्वथा अभाव हो गया है जिसके मन, बुद्धि की कहीं किंचित मात्र भी संलग्नता नहीं रहती है। वह सर्वत्र असक्त बुद्धिः है। जिसकी स्पृहा का सर्वथा अभाव हो गया है जिसकेा किसी भी सांसारिक वस्तु की किंचित मात्र भी परवाह नहीं है उसे विगतस्पृहः कहते हैं और जिसका इन्द्रियों के
सहित अन्तःकरण अपने वश में किया हुआ है उसे जितात्मा कहते हैं। यहाँ संन्यास योग के अधिकारी का निरूपण करने के लिये इन तीनों विशेषणों का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि जो उपुर्यक्त तीनांे गुणों से सम्पन्न होता है, वही मनुष्य सांख्य योग के द्वारा परमात्मा के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है।
प्रश्न-यहाँ संन्यासेन पद किस साधन का वाचक है और परमाम् विशेषण के सहित नैष्कम्र्य सिद्धिम पद किस सिद्धि का वाचक है तथा संन्यास के द्वारा उसे प्राप्त होना क्या है?
उत्तर-संन्यासेन पद यहाँ ज्ञान योग का वाचक है इसी को सांख्य योग भी कहते हैं। इसका स्वरूप भगवान् ने इक्यावनवें से तिरपनवें श्लोक तक बतलाया है। इस साधन का फल जोकि कर्मबन्धन से सर्वथा छूटकर सच्चिदानन्दधन निर्विकार परमात्मा के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त हो जाना है, उसका वाचक यहाँ परमाम् विशेषण के सहित नैष्कम्र्य सिद्धिम पद है तथा उपर्युक्त सांख्य योग के द्वारा जो परमात्मा के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेना है, वह संन्यास के द्वारा इस सिद्धि को प्राप्त होना है।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथान्पोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।। 50।।
प्रश्न-‘परा’ विशेषण के सहित यहाँ ‘निष्ठा’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-जो ज्ञान योग की अन्तिम स्थिति है, जिसको पराभक्ति और तत्त्वज्ञान भी कहते हैं, जो समस्त साधनों की अवधि है, उसका वाचक यहाँ ‘परा’ विशेषण के सहित ‘निष्ठा’ पद है। ज्ञान योग के साधन समुदाय को ज्ञान निष्ठा कहते हैं और उन साधनों के फल रूप तत्त्व ज्ञान को ज्ञान की ‘परा निष्ठा’ कहते हैं।
प्रश्न-यहाँ सिद्धिम् पद किसका वाचक है?
उत्तर-जो पूर्व श्लोक में नैष्कम्र्य सिद्धि के नाम से कही गयी है। यहाँ जो ज्ञान की परानिष्ठा बतायी गयी है तथा चैवनवें श्लोक में जिसका परा भक्ति के नाम से वर्णन आया है उसी का वाचक यहाँ ‘सिद्धिम’ पद है।
प्रश्न-यहाँ ‘सिद्धिम्’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-जो पूर्व श्लोक में नैष्कम्र्य सिद्धि के नाम से कही गयी है। यहाँ जो ज्ञान की परानिष्ठा बतायी गयी है तथा चैवनवें श्लोक में जिसका परा भक्ति के नाम से वर्णन आया है उसी का वाचक यहाँ ‘सिद्धिम’ पद है।
प्रश्न-यथा पद का क्या अर्थ है?
उत्तर-शुद्ध अन्तःकरण वाला अधिकारी पुरुष जिस विधि से ज्ञान की परानिष्ठा को प्राप्त होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है, उस विधि का अर्थात् अंग-प्रत्यंगों सहित ज्ञान योग के प्रकार का वाचक यहाँ ‘यथा’ पद है।
प्रश्न-उपर्युक्त सिद्धि को प्राप्त हुए पुरुष को ब्रह्म की प्राप्ति कब होती है?
उत्तर-सिद्धि प्राप्त होने के बाद ब्रह्म की प्राप्ति में विलम्ब नहीं होता, बल्कि उसी क्षण प्राप्ति हो जाती है।
प्रश्न-‘ब्रह्म’ पद किसका वाचक है और उसको प्राप्त होना क्या है?
उत्तर-नित्य-निर्विकार, निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दधन, पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का वाचक यहाँ ‘ब्रह्म’ पद है और तत्त्वज्ञान के द्वारा पचपनवें श्लोक के वर्णनानुसार अभिन्न भाव से उसमें प्रविष्ट हो जाना ही उसको प्राप्त होना है।
प्रश्न-‘तथा’ पद किसका वाचक है और उसे तू मुझसे संक्षेप में जान, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-‘यथा’ पद से विधि का लक्ष्य कराया गया है, उसी का वाचक यहाँ ‘तथा’ पद है। एवं उसे तू मुझसे संक्षेप में ही जान। इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उसका विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं करके वह विषय मैं तुम्हें संक्षेप में ही बतलाऊँगा। इसलिये सावधानी के साथ उसे सुनो, नहीं तो उसे समझ नहीं सकोगे।
बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादाीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वैषौ व्युदस्य च।। 51।।
विविक्त सेवी लध्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानरोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।। 52।।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। 53।।
प्रश्न-‘विशुद्ध बुद्धि’ किसे कहते हैं और उससे युक्त होना क्या है?
उत्तर-पूर्वार्जित पाप के संस्कारों से रहित अन्तःकरण को विशुद्ध बुद्धि कहते हैं और जिसका अन्तःकरण इस प्रकार शुद्ध हो गया हो, वह विशुद्ध बुद्धि से युक्त कहलाता है।-क्रमशः (हिफी)

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