तत्व ज्ञान से भगवान का यथार्थ ज्ञान
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-25)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘प्रसन्नात्मा’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-जिसका मन पवित्र, स्वच्छ और शान्त हो तथा निरन्तर शुद्ध प्रसन्न रहता हो-उसे प्रसन्नात्मा कहते हैं। इस विशेषण का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए पुरुष की दृष्टि में एक सच्चिदानन्दधन ब्रह्म से भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता न रहने के कारण उसका मन निरन्तर प्रसन्न रहता है, कभी किसी भी कारण से क्षुब्ध नहीं होता।
प्रश्न-ब्रह्मभूत योगी न तो शोक करता है और न आंकालंगन ही करता है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से ब्रह्मभूत योगी का लक्षण किया गया है। अभिप्राय यह है कि ब्रह्मभूत योगी की सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि हो जाने के कारण संसार की किसी भी वस्तु में उसकी भिन्न प्रतीति, रमणीय-बुद्धि और ममता नहीं रहती। अतएव शरीरादि के साथ किसी का संयोग-वियोग होने में उसका कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं। इस कारण वह किसी भी हालत में किसी भी कारण से किंचित मात्र भी चिन्ता या शोक नहीं करता और वह पूर्णकाम हो जाता है, क्योंकि किसी भी वस्तु में उसकी ब्रह्म से भिन्न दृष्टि नहीं रहती, इस कारण वह कुछ भी नहीं चाहता।
प्रश्न-‘सर्वेषु भूतेषु समः’ इस विशेषण का क्या भाव है?
उत्तर-इस विशेषण से उस ब्रह्मभूत योगी का समस्त प्राणियों में समभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि वह किसी भी प्राणी को अपने से भिन्न नहीं समझता। इस कारण उसका किसी में भी विषमभाव नहीं रहता, सबमें समभाव हो जाता है। यही भाव छठे
अध्याय के उन्नीतसवें श्लोक में सर्वत्र समदर्शनः पद से दिखलाया गया है।
प्रश्न-‘पराम्’ विशेषण के सहित यहाँ ‘म˜क्तिम्’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-जो ज्ञान योग का फल है, जिसको ज्ञान की परानिष्ठा और तत्त्वज्ञान भी कहते हैं, उसका वाचक यहाँ परम् विशेषण के सहित म˜क्तिम पद है क्योंकि वह परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का साक्षात् कराकर उनमें अभिन्न भाव से प्रविष्ट करा देता है।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। 55।।
प्रश्न-‘भक्त्या’ पद यहाँ किसका वाचक है?
उत्तर-पूर्व के श्लोक में जिसका ‘परा’ विशेषण के सहित म˜क्तिम् पद से और पचासवें श्लोक में ज्ञान की परानिष्ठा के नाम से वर्णन किया गया है, उसी तत्त्वज्ञान का वाचक यहाँ ‘भक्त्या’ पद है। यही ज्ञान योग, भक्तियोग, कर्मयोग और ध्यान योग आदि समस्त साधनों का फल है, इसके द्वारा ही सब साधकों को परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होकर उनकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार समस्त साधनों के फल की एकता करने के लिये ही यहाँ ज्ञान योग के प्रकरण में ‘भक्त्या’ पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-इस भक्ति के द्वारा योगी मुझको, मैं जो हूँ और जितना हूँ ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि इस परा भक्तिरूप तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने के साथ ही वह योगी उस तत्त्वज्ञान के द्वारा मेरे यथार्थ रूप को जान लेता है। मेरा निर्गुण-निराकार रूप क्या है और सगुण-निराकार और सगुण-साकार रूप क्या है, मैं निराकार से साकार कैसे होता हूँ और पुनः साकार से निराकार कैसे होता हूँ-इत्यादि कुछ भी जानना उसके लिये शेष नहीं रहता। इस प्रकार ज्ञान योग के साधन से प्राप्त होने वाले निर्गुण-निराकार ब्रह्म के साथ सगुण ब्रह्म की एकता दिखलाने के लिये यहाँ ज्ञान योग के प्रकरण में भगवान् के ब्रह्म के स्थान में ‘माम्’ पद का प्रयोग किया है।
प्रश्न-‘ततः’ पद का क्या अर्थ है?
उत्तर-‘ततः’ पद हेतु वाचक है। परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान होने के साथ ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है-उसमें काल का व्यवधान नहीं होता, इस कारण यहाँ ‘ततः‘ पद का अर्थ पश्चात नहीं किया गया है। अतः जिसका प्रकरण हो, उसी हेतु का वाचक ‘ततः’ पद का अर्थ पूर्वार्द्ध में वर्णित ‘परा भक्ति’ समझना चाहिये।
प्रश्न-यहाँ ‘तदनन्तरम्’ पद का अर्थ तत्काल कैसे किया गया? ‘ज्ञात्वा’ पद के साथ ‘तदनन्तरम्’ पद का प्रयोग किया गया है, इससे तो विशते क्रिया का यह भाव लेना चाहिये कि पहले मनुष्य भगवान् के स्वरूप को यथार्थ जानता है और उसके बाद उसमें प्रविष्ट होता है।
उत्तर-ऐसी बात नहीं है किन्तु ‘ज्ञात्वा’ पद से जो काल के व्यवधान की आशंका होती थी उसे दूर करने के लिये ही यहाँ तदनन्तरम् पद का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि भगवान् के तत्त्वज्ञान और उनकी प्राप्ति में अन्तर यानी व्यवधान नहीं होता, भगवान् के स्वरूप को यथार्थ जानना और उनमें प्रविष्ट होना-दोनों एक साथ होते हैं। भगवान् सबके आत्मरूप होने से वास्तव में किसी को अप्राप्त नहीं हंै, अतः उनके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होने के साथ ही उनकी प्राप्ति हो जाती है। इसलिये यह भाव समझाने के लिये ही यहाँ ‘तदनन्तरम्’ पद का अर्थ ‘तत्काल’ किया गया है, क्योंकि कालान्तर का बोध तो ‘ज्ञात्वा’ पद से ही हो जाता है।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वîपाश्रयः।
मत्प्रसादादवापोन्ति शाश्वतं पदभव्ययम्।। 56।।
प्रश्न-‘मद्वयपाश्रयः’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-समस्त कर्मों का और उनके फलरूप समस्त भोगों का आश्रय त्याग कर जो भगवान् के ही आश्रित हो गया है जो अपने मन-इन्द्रियों सहित शरीर को, उसके द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्मों को और उनके फल को भगवान् के समर्पण करके उन सबसे ममता, आसक्ति और कामना हटाकर भगवान् के ही परायण हो गया है, भगवान को ही अपना परम प्राप्य, परम प्रिय, परम हितैषी, परमाधार और सर्वस्व समझकर जो भगवान् के विधान में सदैव प्रसन्न रहता है। किसी भी सांसारिक वस्तु के संयोग-वियोग में और किसी भी घटना में कभी हर्ष-शोक नहीं करता, सदा भगवान् पर ही निर्भर रहता है तथा जो कुछ भी कर्म करता है, भगवान् के आज्ञानुसार उन्हीं की प्रसन्नता के लिए अपने को केवल निमित्त मात्र समझकर, उन्हीं की प्रेरणा और शक्ति से, जैसे भगवान् कराते हैं वैसे ही करता है, एवं अपने को सर्वथा भगवान् के
अधीन समझता है। ऐसे भक्ति प्रधान कर्मयोगी का वाचक यहाँ ‘मद्वयपाश्रयमः‘ पद है।-क्रमशः (हिफी)