भगवान में तन्मय होना परमपद
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-26)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘सर्वकर्माणि’ पद यहाँ किन्र कर्मों का वाचक है?
उत्तर-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जितने भी शाó विहित कर्तव्य कर्म हैं जिनका वर्णन पहले नियतं कर्म और स्वभावजं कर्म के नाम से किया गया है तथा जो भगवान् की आज्ञा और प्रेरणा के अनुकूल हैं, उन समस्त कर्मों का वाचक यहाँ सर्वकर्माणि पद है।
प्रश्न-यहाँ ‘अपि’ अव्यय के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘अपि’ अव्यय का प्रयोग करके यहाँ भक्ति-प्रधान कर्मयोगी की महिमा की गयी है और कर्मयोग की सुगमता दिखलायी गयी है। अभिप्राय यह है कि सांख्य योगी समस्त परिग्रह का और समस्त भोगों का त्याग करके एकान्त देश में निरन्तर परमात्मा के
ध्यान का साधन करता हुआ जिस परमात्मा को प्राप्त करता है, भगवदाश्रयी कर्मयोगी स्वर्णाश्रमोचित समस्त कर्मों को सदा करता हुआ भी उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। दोनों के फल में किसी प्रकार का भेद नहीं होता।
प्रश्न-‘शाश्वतम्’ और ‘अव्ययम्’ विशेषणों के सहित ‘पदम’ पद किसका वाचक है और भक्ति प्रधान कर्मयोगी का भगवान् की कृपा से उसको प्राप्त हो जाना क्या है?
उत्तर-जो सदा से है और सदा रहता है जिसका कभी अभाव नहीं होता, उस सच्चिदानन्दधन, पूर्ण ब्रह्म, सर्व शक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर का वाचक यहाँ उपर्युक्त विशेषणों के सहित ‘पदम्’ पद है। वही परम प्राप्य है, यह भाव दिखलाने के लिये उसे ‘पद’ के नाम से कहा गया है। पैंतालीसवें श्लोक में जिसे ‘संसिद्धि’ की प्राप्ति, छियालीसवें में ‘सिद्धि’ की प्राप्ति और पचपनवें श्लोक में ‘माम्’ पद वाप्य परमेश्वर की प्राप्ति कहा गया है, उसी को यहाँ ‘शाश्वतम्’ और ‘अव्ययम्’ विशेषणों के सहित ‘पदम्’ पदवाच्य भगवान् की प्राप्ति कहा गया है। अभिप्राय यह है कि भिन्न-भिन्न नामों से एक ही तत्त्व का वर्णन किया गया है। उपर्युक्त भक्ति रूप बुद्धि योग प्रदान कर देते हैं। उस बुद्धि योग के द्वारा भगवान् के यथार्थ स्वरूप को जानकर जो उस भक्त का भगवान् में तन्मय हो जाना है। सच्चिदानन्दधन परमेश्वर में प्रविष्ट हो जाना है। यही उसका उपर्युक्त परम पद को प्राप्त हो जाना है।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धि योगमुपाश्रित्य मज्वित्तः सततं भव।। 57।।
प्रश्न-समस्त कर्मों को मन से भगवान् में अर्पण करना क्या है?
उत्तर-अपने मन, इन्द्रिय और शरीर को, उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों को और संसार की समस्त वस्तुओं को भगवान् की समझकर उन सबमें ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है, भगवान् ही सब प्रकार की शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा अपने इच्छानुसार समस्त कर्म करवाते हैं, मैं कुछ भी नहीं करता-ऐसा समझकर भगवान् के आज्ञानुसार उन्हीं के लिये, उन्हीं की प्रेरणा से, जैसे करावें वैसे ही, निमित्त मात्र बनकर समस्त कर्मों को कठपुतली की भाँति करते रहना-यही समस्त कर्मों को मन से भगवान् में अर्पण कर देना है।
प्रश्न-‘बुद्धियोगम्’ पद किसका वाचक है और उसका अवलम्बन करना क्या है?
उत्तर-सिद्धि और असिद्धि में, सुख और दुःख में, हानि और लाभ में इसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थों में और प्राणियों में जो समबुद्धि है-उसका वाचक ‘बुद्धियोगम्’ पद है। इसलिये जो कुछ भी होता है, सब भगवान् की ही इच्छा और इशारे से होता है-ऐसा समझकर समस्त वस्तुओं में, समस्त प्राणियों में और समस्त घटनाओं में राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विषय भावों से रहित होकर सदा-सर्वदा समभाव से युक्त रहना ही उपर्युक्त बुद्धियोग का अवलम्बन करना है।
प्रश्न-भगवान् के परायण होना क्या है?
उत्तर-भगवान् को ही अपना परम प्राप्य, परम गति, परम हितैषी, परम प्रिय और परमाधार मानना, उनके विधान में सदा ही सन्तुष्ट रहना और उनकी प्राप्ति के साधनों में तत्पर रहना भगवान् के परायण होना है।
प्रश्न-निरन्तर भगवान् में चित्तवाला होना क्या है?
उत्तर-मन-बुद्धि को अटल भाव से भगवान् में लगा देना, भगवान् के सिवा अन्य किसी में किंचित मात्र भी प्रेम का सम्बन्ध न रखकर अनन्य प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान् का ही चिन्तन करते रहना। क्षण मात्र के लिये भी भगवान् की विस्मृतिका असह्य हो जाना। उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते-जागते और समस्त कर्म करते समय भी नित्य-निरन्तर मन से भगवान् के दर्शन करते रहना-यही निरन्तर भगवान् में चित्तवाला होना है। नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में और यहाँ पैसठवें श्लोक में ‘मन्मना भव’ से भी यही बात कही गयी है।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमंकारान्न श्रोष्यसि विनड्क्ष्यसि।। 58।।
प्रश्न-मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायगा, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह दिखलाया है कि पूर्व श्लोक में कहे हुए प्रकार से समस्त कर्म मुझमें अर्पण करके और मेरे परायण होकर निरन्तर मुझमें मन लगा देने के बाद तुम्हें और कुछ भी नहीं करना पड़ेगा, मेरी दया के प्रभाव से अनायास ही तुम्हारे इस लोक और परलोक के समस्त दुःख टल जायँगे, तुम सब प्रकार के दुर्गुण और दुराचारों से रहित होकर सदा के लिये जन्म-मरण रूप महान् संकट से मुक्त हो जाओगे और मुझ नित्य-आनन्दधन परमेश्वर को प्राप्त कर लोगे।
प्रश्न-‘अर्थ’ और ‘चेत’ इन दोनों अव्ययों का क्या भाव है और अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा। इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘अथ’ पक्षान्तर का बोधक है और ‘चेत्’ ‘यदि’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इन दोनों अव्ययों के सहित उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो, इस कारण अवश्य ही मेरी आज्ञा का पालन करोगे, तथापि तुम्हें सावधान करने के लिये मैं बतला देता हूँ कि जिस प्रकार मेरी आज्ञा का पालन करने से महान् लाभ होता है, उसी प्रकार उसके त्याग से महती हानि भी होती है। इसलिये यदि तुम अहंकार के वश में होकर अर्थात् अपने को बुद्धिमान या समर्थ समझकर मेरे वचनों को न सुनोगे। मेरी आज्ञा का पालन न करके अपनी मनमानी करोगे तो तुम नष्ट हो जाओगे। फिर तुम्हें इस लोक में या परलोक में कहीं भी वास्तविक सुख और शान्ति नहीं मिलेगी और तुम अपने कत्र्तव्य से भ्रष्ट होकर वर्तमान स्थिति में गिर जाओगे।-क्रमशः (हिफी)