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अनन्य प्रेम से मिलती भक्ति

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-30)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘दृढम्’ के सहित ‘इष्टः’ पद से क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-तिरसठवें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को अपने कर्तव्य का निश्चय करने के लिये स्वतंत्र विचार करने को कह दिया। इस बात को सुनकर अर्जुन के मन में उदासी छा गयी, वे सोचने लगे कि भगवान् ऐसा क्यों कह रहे हैं। क्या मेरा भगवान् पर विश्वास नहीं है, क्या मैं इनका भक्त और प्रेमी नहीं हूँ। अतः ‘दृढम्’ और ‘इष्ट’ इन दोनों पदों से भगवान् अर्जुन का शोक दूर करने के लिये उन्हें उत्साहित करते हुए यह भाव दिखलाते हैं कि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो, तुम्हारा
और मेरा प्रेम का सम्बन्ध अटल है, अतः तुम किसी तरह का शोक मत करो।
प्रश्न-‘ततः’ अव्यय के प्रयोग का तथा मैं तुझसे परम हित की बात कहूँगा, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-‘तत्ः’ पद यहाँ हेतु वाचक है, इसका प्रयोग करके और अर्जुन को उसके हित का वचन कहने की प्रतिज्ञा करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम मेरे घनिष्ठ प्रेमी हो, इसलिये मैं तुमसे किसी प्रकार का छिपावन रखकर गुप्त से भी अति गुप्त बात तुम्हारे हित के लिये, तुम्हारे सामने प्रकट करूँगा और मैं जो कुछ भी कहूँगा वह तुम्हारे लिये अत्यन्त हित की बात होगी।
मन्मना भव म˜क्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। 65।।
प्रश्न-भगवान् को मनवाला होना क्या है?
उत्तर-भगवान् को सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, सर्वेश्वर तथा अतिशय सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य आदि गुणों के समुद्र समझकर अनन्य प्रेमपूर्वक निश्छल भाव से मन को भगवान् में लगा देना, क्षण मात्र भी भगवान् की विस्मृति को न सह सकना भगवान् में मनवाला होना है। इसकी विशेष व्याख्या नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में की गयी है।
प्रश्न-भगवान् का भक्त बनना क्या है?
उत्तर-भगवान् को ही एकमात्र अपना भर्ता, स्वामी, संरक्षक, परमगति और परम आश्रय समझकर सर्वथा उनके अधीन हो जाना, किंचित मात्र भी अपनी स्वतन्त्रता न रखना, सब प्रकार से उन पर निर्भर रहना, उनके प्रत्येक विधान में सदा ही सन्तुष्ट रहना और उनकी आज्ञा का सदा पालन करना तथा उनमें अतिशय श्रद्धापूर्वक अनन्य पे्रम करना भगवान का भक्त बनना है।
प्रश्न-भगवान् का पूजन करना क्या है?
उत्तर-नवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक के वर्णनानुसार पत्र-पुष्पादि से श्रद्धाभक्ति और प्रेमपूर्वक भगवान् के विग्रह का पूजन करना, मन से भगवान् का आवाहन करके उनकी मानसिक पूजा करना, उनके वचनों का, उनकी लीलाभूमि का और उनके विग्रह का सब प्रकार से आदर-सम्मान करना तथा सबमें भगवान् को व्याप्त समझकर या समस्त प्राणियों को भगवान् का स्वरूप समझकर उनकी यथायोग्य सेवा-पूजा, आदर-सत्कार करना आदि सब भगवान् की पूजा करने के अन्तर्गत हैं। इसका वर्णन नवें अध्याय के छब्बीसवें से अट्ठाइसवें श्लोक तक की व्याख्या में तथा चैंतीसवें श्लोक की व्याख्या में देखना चाहिये।
प्रश्न-‘माम्’ पद किसका वाचक है और उसको नमस्कार करना क्या है?
उत्तर-जिन परमेश्वर के सगुण-निर्गुण, निराकार-साकार आदि अनेक रूप हैं, जो अर्जुन के सामने श्रीकृष्ण रूप में प्रकट होकर गीता का उपदेश सुना रहे हैं जिन्होंने रामरूप में प्रकट होकर संसार में धर्म की मर्यादा का स्थापन किया और नृसिंह रूप
धारण करके भक्त प्रहलाद का उद्धार किया। उन्हीं सर्वशक्तिमान, सर्वगुणसम्पन्न, अन्तर्यामी, परमाधार, समग्र पुरुषोत्तम भगवान् का वाचक यहाँ ‘माम्’ पद है।
उनके किसी भी रूप को, चित्र को, चरण चिन्हों को या चरणपादुकाओं को तथा उनके गुण, प्रभाव और तत्व का वर्णन करने वाले शाóों को साष्टांग प्रणाम करना या समस्त प्राणियों में ंउनको व्याप्त समस्त प्राणियों को भगवान् का स्वरूप समझकर सबको प्रणाम करना भगवान् को नमस्कार करना है। इसका विस्तार नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में देखना चाहिये।
प्रश्न-ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त प्रकार से साधन करने के उपरान्त तू अवश्य ही मुझ सच्चिदानन्दधन सर्वशक्तिमान परमेश्वर को प्राप्त हो जायगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। भगवान् को प्राप्त होना क्या है, यह बात भी नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक की व्याख्या में बतलायी गयी है।
प्रश्न-मैं तुझसे सत्य प्रतिष्ठा करता हूँ, इसका क्या भाव है?
उत्तर-अर्जुन भगवान् के प्रिय भक्त और सखा थे, अतएव उन पर प्रेम और दया करके उनका अपने ऊपर अतिशय दृढ़ विश्वास कराने के लिये और अर्जुन के निमित्त से अन्य अधिकारी मनुष्यों को विश्वास दृढ़ कराने के लिये भगवान् ने उपर्युक्त वाक्य कहा है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त प्रकार से साधन करने वाला भक्त मुझे प्राप्त हो जाता है, इस बात पर दृढ़ विश्वास करके मनुष्य को वैसा बनने के लिये अधिक से अधिक चेष्टा करनी चाहिये।
प्रश्न-तू मेरा प्रिय है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से प्रेममय भगवान् ने उपर्युक्त प्रतिज्ञा करने का हेतु बतलाया है। अभिप्राय यह है कि तुम मुझको बहुत ही प्यारे हो, तुम्हारे प्रति मेरा जो प्रेम है, उस प्रेम से ही बाध्य होकर तुम्हारा विश्वास दृढ़ कराने के लिये मैं तुमसे यह प्रतिज्ञा करता हूँ नहीं तो इस प्रकार प्रतिज्ञा करने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं थी।
प्रश्न-इस श्लोक में भगवान् ने जो चार साधन बतलाये हैं, उन चारों के करने से ही भगवान् की प्राप्ति होती है या इनमें से एक-एक से भी हो जाती है?
उत्तर-जिसमें चारों साधन पूर्णरूप से होते हैं, उसको भगवान् की प्राप्ति हो जाय। इसमें तो कहना ही क्या है, परन्तु इनमें से एक-एक साधन से भी भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। क्योंकि भगवान् ने स्वयं ही आठवें अध्याय के चैदहवें श्लोक में केवल अनन्य चिन्तन से अपनी प्राप्ति को सुलभ बतलाया है, सातवें अध्याय के तेईसवें और नवें के पचीसवें में अपने भक्त को अपनी प्राप्ति बतलायी है और नवें अध्याय के छब्बीसवें अट्ठाइसवें तक एवं इस अध्याय के छियालीसवें श्लोक में केवल पूजन से अपनी प्राप्ति बतलायी है। यह बात अवश्य है कि उपर्युक्त एक-एक साधन को प्रधान रूप से करने वाले में दूसरी सब बातें भी आनुषांगिक रूप से रहती ही हैं और श्रद्धा-भक्ति का भाव तो सभी में रहता है।-क्रमशः (हिफी)

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