Uncategorizedअध्यात्मधर्म-अध्यात्म

अर्जुन ने कहा मेरा मोह नष्ट हो गया

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-34)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

कच्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय।। 72।।
प्रश्न-‘एतत’ पद यहाँ किसका वाचक है और क्या इसको तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया है? इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से आरम्भ करके इस अध्याय के छाछठवें श्लोक पर्यन्त भगवान ने जो दिव्य उपदेश दिया है, उस उपदेश का महत्व प्रकट करने के लिये ही भगवान् ने यहाँ अर्जुन से उपर्युक्त प्रश्न किया है। अभिप्राय यह है कि मेरा वह उपदेश बड़ा ही दुर्लभ है, मैं हरेक मनुष्य के सामने मैं ही साक्षात् परमेश्वर हूं, तू मेरी ही शरण में आ जा इत्यादि बातें नहीं कह सकता। इसलिये तुमने मेरे उपदेश को भलीभाँति ध्यानपूर्वक सुन तो लिया है न? क्योंकि यदि कहीं तुमने उस पर ध्यान न दिया होगा तो तुमने निःसंदेह बड़ी भूल की है।
प्रश्न-क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हो गया? इस प्रश्न का क्या भाव है?
उत्तर-इस प्रश्न से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि तुमने उस उपदेश को भलीभाँति सुना है तो उसका फल भी अवश्य होना चाहिये। इसलिये तुम जिस मोह से व्याप्त होकर धर्म के विषय में अपने को मूढ़ चेता बतला रहे थे तथा अपने स्वधर्म का पालन करने में पाप समझ रहे थे और समस्त कर्तव्य कर्मों का त्याग करके भिक्षा के अन्न से जीवन बिताना श्रेष्ठ समझ रहे थे एवं जिसके कारण तुम स्वजन-वध के भय से व्याकुल हो रहे थे और अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर पाते थे। तुम्हारा वह अज्ञान जनित मोह अब नष्ट हो गया या नहीं? यदि मेरे उपदेश को तुमने ध्यानपूर्वक सुना होगा तो अवश्य ही तुम्हारा मोह नष्ट हो जाना चाहिये और यदि तुम्हारा मोह नष्ट नहीं हुआ है तो वही मानना पड़ेगा कि तुमने उस उपदेश को एकाग्रचित्त से नहीं सुना।
यहाँ भगवान् के इन दोनों प्रश्नों में यह उपदेश भरा है कि मनुष्य को इस गीता शाó का अध्ययन और श्रवण बड़ी सावधानी के साथ एकाग्रचित्त से तत्पर होकर करना चाहिये और जब तक अज्ञान जनित मोह का सर्वथा नाश न हो जाय तब तक यह समझना चाहिये कि अभी तक में भगवान् के उपदेश को यथार्थ नहीं समझ सका हूँ, अतः पुनः उस पर श्रद्धा और विवेकपूर्वक विचार करना आवश्यक है।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादन्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिप्ये वचनं तब।। 73।।
प्रश्न-यहाँ ‘अच्युत’ सम्बोधन का क्या भाव है?
उत्तर-भगवान् को ‘अच्युत’ नाम से सम्बोधित करके यहाँ अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप साक्षात् निर्विकार परब्रह्म, परमात्मा, सर्वशक्तिमान, अविनाशी परमेश्वर हैं। इस बात को अब मैं भलीभाँति जान गया हूँ।
प्रश्न-आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए भगवान् के प्रश्न का उत्तर दिया है। अर्जुन के कहने का अभिप्राय यह है कि आपने यह दिव्य उपदेश सुनाकर मुझ पर बड़ी भारी दया की है, आपके उपदेश को सुनने से मेरा अज्ञान जनित मोह सर्वथा नष्ट हो गया है अर्थात् आपके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप को यथार्थ न जानने के कारण जिस मोह से व्याप्त होकर मैं आपकी आज्ञा को मानने के लिये तैयार नहीं होता था और बन्धु-बान्धवों के विनाश का भय करके शोक से व्याकुल हो रहा था। वह सब मोह अब सर्वथा नष्ट हो गया है।
प्रश्न-मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हो जाने से मेरे अन्तःकरण में दिव्य ज्ञान का प्रकाश हो गया है, इससे मुझे आपके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप की पूर्ण स्मृति प्राप्त हो गयी है ओर आपका समग्र रूप मेरे प्रत्यक्ष हो गया है। मुझे कुछ भी अज्ञात नहीं रहा है।
प्रश्न-‘मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ’ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव प्रकट किया है कि अब आपके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार स्वरूप के विषय में तथा धर्म-अधर्म और कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के विषय में मुझे किंचित मात्र भी संशय नहीं रहा है। मेरे सब संशय नष्ट हो गये हैं तथा समस्त संशयों का नाश हो जाने के कारण मेरे अन्तःकरण में चंचलता का सर्वथा अभाव हो गया है?
प्रश्न-‘मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा’ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपकी दया से मैं कृतकृत्य हो गया हूँ मेरे लिये अब कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रहा अतएव आपके कथनानुसार लोक संग्रह के लिये युद्धादि समस्त कर्म जैसे आप करवायेंगे, निमित्त मात्र बनकर लीला रूप से मैं वैसे ही करूँगा।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषम˜ुतं रोमहर्षणम्।। 74।।
प्रश्न-‘इति’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-‘इति’ पद से यहाँ गीता के उपदेश की समाप्ति दिखलायी गयी है।
प्रश्न-भगवान् के ‘वासुदेव’ नाम का प्रयोग करके और ‘पार्थ’ के साथ ‘महात्मा’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-इससे संजय ने गीता का महत्त्व प्रकट किया है। अभिप्राय यह है कि साक्षात् नर ऋषि के अवतार महात्मा अर्जुन के पूछने पर सबके हृदय में निवास करने वाले सर्वव्यापी परमेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा यह उपदेश दिया गया है, इस कारण यह बड़े ही महत्त्व का है। दूसरा कोई भी शाó इसकी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि यह समस्त शास्त्रों का सार है।
प्रश्न-यहाँ ‘संवादम्’ पद के साथ ‘अ˜ुतम्’ और ‘रोमहर्षणम्’ विशेषण देने का क्या भाव है?
उत्तर-इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके संजय ने यह भाव दिखलाया है कि यह महात्मा अर्जुन के पूछने पर साक्षात् परमेश्वर के द्वारा कहा हुआ उपदेश बड़ा ही अ˜ुत अर्थात् आश्चर्यजनक और असाधारण है, इससे मनुष्य को भगवान् के दिव्य अलौकिक गुण, प्रभाव और ऐश्वर्ययुक्त समग्र स्वरूप का पूर्ण ज्ञान हो जाता है तथा मनुष्य इसे जैसे-जैसे सुनता और समझता है, वैसे ही वैसे हर्ष और आश्चर्य के कारण उसका शरीर पुलकित हो जाता है, उसके समस्त शरीर में रोमांच हो
जाता है।
प्रश्न-‘अश्रौषम्’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि ऐसे अ˜ुत आश्चर्यमय उपदेश को मैंने सुना, यह मेरे
लिये बड़े ही सौभाग्य की बात है।-क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button