जहां योगेश्वर कृष्ण व अर्जुन हैं, वहीं विजय
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-35)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
व्यास प्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।। 75।।
प्रश्न-‘व्यासप्रसादात्’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-इससे संजय ने व्यास जी के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट किया है। अभिप्राय यह है कि भगवान् व्यास जी ने दया करके जो मुझे दिव्य दृष्टि अर्थात् दूर देश में होेने वाली समस्त घटनाओं को देखने, सुनने और समझने आदि की अ˜ुत शक्ति प्रदान की है। उसी के कारण आज मुझे भगवान् का यह दिव्य उपदेश सुनने के लिए मिला, नहीं तो मुझे ऐसा सुयोग कैसे मिलता?
प्रश्न-‘एतम्’ पद यहाँ किसका वाचक है तथा उसके साथ ‘परम्’ ‘गुह्यम’ और ‘योगम्’ इन तीनों विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘एतत्’ पद यहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप इस गीता शाó का वाचक है, इसके साथ ‘परम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि यह अतिशय उत्तम है, ‘गुह्यम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि यह अत्यन्त गुप्त रखने योग्य है, अतः अनधिकारी के सामने इसका वर्णन नहीं करना चाहिये, तथा ‘योगम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि भगवान् की प्राप्ति के उपाय भूत कर्मयोग, ज्ञान योग, ध्यान योग और भक्ति योग आदि साधनों का इसमें भलीभाँति वर्णन किया गया है तथा वह स्वयं भी अर्थात् श्रद्धापूर्वक इसका पाठ भी परमात्मा की प्राप्ति का साधन होने के योग रूप ही है।
प्रश्न-उपर्युक्त विशेषणों से युक्त इस उपदेश को मैंने अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है, इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे संजय ने धृतराष्ट्र के प्रति यह भाव प्रकट किया है कि यह गीता शाó जो मैंने आपको सुनाया है-किसी दूसरे से सुनी हुई बात नहीं है, किन्तु समस्त योग शक्तियों के
अध्यक्ष, सर्वशक्तिमान् स्वयं श्रीकृष्ण के ही मुखारबिन्द से उस समय जबकि वे उसे अर्जुन से कह रहे थे-मैंने प्रत्यक्ष सुना है।
राजन्संरमृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।। 76।।
प्रश्न-‘पुण्यम्’ और ‘अ˜ुतम्’ इन दोनों विशेषणों का क्या भाव है?
उत्तर-‘पुण्यम्’ और ‘अ˜ुतम्’ इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके संजय ने यह भाव दिखलाया है कि भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन दिव्य संवादरूप यह गीता शाó अध्ययन, अध्यापन, श्रवण, मनन और वर्णन आदि करने वाले मनुष्य को परम पवित्र करके उसका सब प्रकार से कल्याण करने वाला तथा भगवान् के आश्चर्यमय गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य, तत्त्व, रहस्य और स्वरूप को बताने वाला है, अतः यह अत्यन्त ही पवित्र, दिव्य एवं अलौकिक है।
प्रश्न-इसे पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ। इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे संजय ने अपनी स्थिति का वर्णन करके गीतोक्त उपदेश की स्मृति का महत्त्व प्रकट किया है। अभिप्राय यह है कि भगवान् द्वारा वर्णित इस उपदेश ने मेरे हृदय को इतना आकर्षित कर लिया है अब मुझे दूसरी कोई बात ही अच्छी नहीं लगती, मेरे मन में बार-बार उस उपदेश की स्मृति हो रही है और उन भावों के आवेश में असीम हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ, प्रेम और हर्ष के कारण विह्वल हो रहा हूँ।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान्राजहृष्यामि च पुनः पुनः।। 77।।
प्रश्न-भगवान् के ‘हरि’ नाम का भाव है?
उत्तर-भगवान् श्रीकृष्ण के गुण, प्रभाव, लीला, ऐश्वर्य, महिमा, नाम और स्वरूप का श्रवण, मनन, कीर्तन, दर्शन और स्पर्श आदि करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है, उनके साथ किसी प्रकार का भी सम्बन्ध हो जाने से मनुष्य के समस्त पापों को, अज्ञान को और दुःख को हरण कर लेते हैं तथा वे अपने भक्तों के मन को चुराने वाले हैं। इसलिये उन्हें ‘हरि’ कहते हैं।
प्रश्न-‘तत्’ और ‘अति’ अ˜ुतम्’ विशेषणों के सहित ‘रूपम्’ पद भगवान् के किस रूप का वाचक है?
उत्तर-जिस अत्यन्त आश्चर्यमय दिव्य विश्वरूप का भगवान् ने अर्जुन को दर्शन कराया था और जिसके दर्शन का महत्त्व भगवान् ने ग्यारहवें अध्याय के सैंतालीसवें और अड़तालीसवें श्लोकों में स्वयं बतलाया है, उसी विराट् स्वरूप का वाचक यहाँ ‘तत्’ और ‘अति अ˜ुतम्’ विशेषणों के सहित ‘रूपम्’ पद है।
प्रश्न-उस रूप को पुनः-पुनः स्मरण करके मुझ महान् आश्चर्य होता है-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि भगवान् का वह रूप मेरे चित्त से उतरता ही नहीं, उसे मैं बार-बार स्मरण करता रहता हूँ और मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि भगवान् के अतिशय दुर्लभ उस दिव्य रूप का दर्शन हो गया। मेरा तो ऐसा कुछ भी पुण्य नहीं था जिससे मुझे ऐसे रूप के दर्शन हो सकते। अहो! इसमें केवल मात्र भगवान् की अहैतुकी दया ही कारण है। साथ ही उस रूप के अत्यन्त अ˜भुत दृश्यों को और घटनाओं को याद कर-करके भी मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि अहो! भगवान् की कैसे विचित्र योग शक्ति है।
प्रश्न-मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ-इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि मुझे केवल आश्चर्य ही नहीं होता है, उसे बार-बार याद करके मैं हर्ष और प्रेम से विह्वल भी हो रहा हूँ मेरे आनन्द का पारावार नहीं है।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम।। 78।।
प्रश्न-श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहकर और अर्जुन को धनुर्धर कहकर इस श्लोक में संजय ने क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-धृतराष्ट्र के मन में सन्धि की इच्छा उत्पन्न करने के उद्देश्य से इस श्लोक में संजय उपर्युक्त विशेषणों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण का और अर्जुन का प्रभाव बतलाते हुए पाण्डवों के विजय की मिश्रित सम्भावना प्रकट करते हैं। अभिप्राय यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण समस्त योग शक्तियों के स्वामी हैं, वे अपनी योगशक्ति के क्षण भर में समस्त जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार कर सकते हैं, ये साक्षात् नारायण भगवान् श्रीकृष्ण जिस धर्मराज युधिष्ठिर के सहायक हैं, उसकी विजय में क्या हो शंका है। इसके सिवा अर्जुन भी नर ऋषि के अवतार भगवान् के प्रिय सखा और गाण्डीव धनुष के धारण करने वाले महान् वीर पुरुष हैं, वे भी अपने भाई युधिष्ठिर की बराबरी दूसरा कौन हो सकता है, क्योंकि जहाँ सूर्य रहता है, प्रकाश उसके साथ ही रहता है-उसी प्रकार जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन रहते हैं वही सम्पूर्ण शोभा, सारा ऐश्वर्य और अटल न्याय (धर्म) ये सब उनके साथ-साथ रहते हैं और जिस पक्ष में धर्म रहता है, उसी की विजय होती है। अतः पाण्डवों की विजय में किसी प्रकार की शंका नहीं है। यदि अब भी तुम अपना कल्याण चाहते हो तो अपने पुत्रों को समझाकर पाण्डवों से सन्धि कर लो। (हिफी) (समाप्त)