अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-6

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-6 के श्लोक 20 से 34 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।20।।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।21।।
इसलिए दृढ़ आसन के अभ्यास से इन्द्रियों का निग्रह होगा तथा इसी से चित्त स्वयं ही आत्मा की भेंट करने जाता है। चित्र की दौड़ हमेशा आगे की ओर रहती है व अन्त में वह आत्मानन्द में तल्लीन हो जाता है।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।22।।
फिर ऐसी अवस्था होने पर कि मेरु पर्वत से भी बड़े दुःख के भार से शरीर के दबे होने पर भी चित्त को दुःख नहीं होता या शस्त्र से शरीर काट भी दिया जाए या अग्नि में पड़ जाए फिर भी महासुख में निमग्न चित्त जागृत नहीं होता, उसे शरीर की याद नहीं रह जाती और एक अनिर्वचनीय सुख की प्राप्ति के कारण उसे अन्य बातों का विस्मरण हो जाता है।

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योग स´्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।23।।
जिस ब्रह्मसुख की मिठास से संसार में उलझा हुआ मन विषय वासना को ही भूल जाता है और जो योग की शोभा, सन्तोष का राज्य और जिसके लिए ज्ञान की आवश्यकता है, वह ब्रह्मसुख अभ्यास के द्वारा मूर्तिमन्त दिखाई देता है।

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।24।।
फिर भी हे अर्जुन! यह योग आसान है। संकल्प से काम-क्रोध आदि को मार डालना चाहिए। विषय समाप्त होने पर संकल्प भी समाप्त हो जाएगा। जिससे बुद्धि स्थिर हो जाएगी।

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धîा धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्।।25।।
यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।26।।
बुद्धि के स्थिर होने पर धैर्य आता है, तब वह धीरे-धीरे ब्रह्मानुभव के मार्ग पर ले जाकर उसकी ब्रह्म स्वरूप में स्थापना करती है। ब्रह्मप्राप्ति का दूसरा मार्ग है-साधक को अपना एक नियम बनाना चाहिए कि एक बार किया हुआ निश्चय नहीं टालना चाहिए। इस निश्चय से यदि चित्त स्थिर हो गया, तो अपने आप काम बन गया, और यदि ऐसा नहीं हुआ तो चित्त को अपनी मर्जी से चलने देना चाहिए। फिर वह जहाँ भी जाए लेकिन निश्चय उसे अपने स्थान पर वापस ले आएगा और इस प्रकार वह तत्काल स्थिर हो जाएगा।

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।27।।
फिर इस प्रकार अनेक बार स्थिर रहने से वह सहज आत्मस्वरूप के पास आ जाएगा और उसे देखकर तद्रूप हो जाएगा। फिर अद्वैत में द्वैत डूब जाएगा और उस एकता के प्रभाव से यह त्रैलोक्य प्रकाशित हो जाएगा। फिर सब कुछ ब्रह्म हो जाएगा।

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्यसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्रुते।।28।।
नमक पानी में घुलकर जिस प्रकार पानी को नहीं छोड़ सकता, उसी प्रकार जीव और ब्रह्म की एकता हो जातने पर उसकी वैसी ही स्थिति हो जाती है और फिर ब्रह्मानन्द के मंदिर में वह महासुख की दीवाली सारे संसार के साथ मनाता है। ऐसा कठिन योग यदि तुमसे साध्य न हो तो एक दूसरा उपाय बताता हूँ।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।29।।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।30।।
मैं सबके शरीर में हूँ और मुझमें सब कोई है, इस सम्बन्ध में तो विवाद है ही नहीं। इस प्रकार दुनिया और ईश्वर एक दूसरे से मिले हुए हैं। परन्तु यह साधक की बुद्धि को स्वीकार होना चाहिए। जिस प्रकार दीपक और प्रकाश में एकत्व की योग्यता होती है, उसी प्रकार वह मेरे समान और मैं उसके समान हूँ।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।31।।
अर्जुन! जिस प्रकार वस्त्र में केवल तन्तु ही होते हैं उसी प्रकार जिसने जान लिया कि एकता की दृष्टि से सब जगह मेरी ही व्याप्ति है या आभूषण के आकार कितने भी हों, लेकिन सुवर्ण अनेक प्रकार का नहीं होता, उसी प्रकार जिसने अपने विचारों को ऐक्यभाव में स्थिर कर लिया है, ऐसे अद्वैत प्रकाश से जिसकी अज्ञानरूपी रात नष्ट हो गई है, वह पंचभूतात्मक शरीर में आ भी जाए तो उसे स्वस्वरूप में आने में क्यों प्रतिबन्ध होगा? जिसने शरीर धारण भी किया है, वह शरीर का नहीं है। यह बात कहने की नहीं है, फिर इसका वर्णन कैसे किया जाए?

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।32।।
जो हमेशा अपनी ही तरह सारे संसार को देखता है, जो सुख और दुःख के विचार अथवा शुभ और अशुभ कर्म दो हैं, ऐसा नहीं समझता, जिसने सारा त्रैलोक्य मैं ही हूँ, यह अनुभव से समझ लिया है वह परब्रह्म ही है। उस समदृष्टि की तुम उपासना करो। समदृष्टि के अतिरिक्त इस दुनिया में कोई प्राप्त नहीं है।

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।33।।
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।34।।
फिर अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा – देव! आपने दयाभाव के कारण हमें यह समता का मार्ग बतलाया, किन्तु मन के चंचल स्वभाव के कारण हमारी कुछ नहीं चलती, इसकी थाह मिल ही नहीं पाती। इसके विचरण करने के लिए पूरा त्रैलोक्य भी पर्याप्त नहीं है। इसलिए यदि बन्दर से समाधि लगाने के लिए कहें तो क्या वह स्थिर हो जाएगा? ऐसा यह मन क्या अपना स्वभाव छोड़ देगा? मन की ऐसी चंचल वृत्ति होेने के कारण वह प्राप्त होना कठिन है।- क्रमशः (हिफी)

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