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अष्टावक्र गीता

मुक्ति, ज्ञान व बैराग्य

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

अष्टावक्र गीता

हिफी अपने पाठकों को ज्ञानवर्द्धक एवं प्रेरणा देने वाले आध्यात्मिक आलेख समय-समय पर मुहैया कराता रहता है। रामचरित मानस पर आधारित ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता के बाद श्रीमद्भागवत गीता की विशद् व्याख्या को क्रमबद्ध जारी करने के बाद हम महाज्ञानी अष्टावक्र और विदेह कहे जाने वाले राजा जनक के मध्य संसार और मुक्ति पर, ज्ञानी और मूर्ख पर संवाद को क्रमशः प्रस्तुत करेंगे। महात्मा अष्टावक्र शरीर से वक्र थे लेकिन प्रखर मेधा प्राप्त की थी। वे जब 12 वर्ष की उम्र के थे तभी राजा जनक के दरबार में विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान हंस पड़े तो अष्टावक्र ने उन्हंे चर्मकार कहा। राजा जनक को यह अपमानजनक लगा लेकिन जब अष्टावक्र ने कहा कि ये लोग मेरे शरीर (चमड़ी) को देखकर हंसे, आत्मा नहीं देखी तो शरीर को देखने वाले चर्मकार ही हो सकते हैं….। राजा जनक इससे बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों मंे शिष्य की तरह बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था। राजा जनक ने ज्ञान, मुक्ति और बैराग्य के बारे मंे अष्टावक्र से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया था। -प्रधान सम्पादक

जनक उवाच
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो।। 1।।
अर्थात-राजा जनक ने ज्ञान-प्राप्ति एवं मुक्ति हेतु अष्टावक्र के सामने जिज्ञासा की कि हे प्रभो! ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मुक्ति कैसे होती है? और वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? यह मुझे कहिए।
व्याख्या: अध्यात्म मंे ज्ञान का अर्थ है-आत्मज्ञान। आत्मज्ञान ही मात्र ज्ञान है, बाकी सब विज्ञान है, जानकारी है, सूचनाएँ हैं जो बाहर से प्राप्त होती हैं। यह जड़ प्रकृति उस चैतन्यतत्व की ही अभिव्यक्ति है, उसी का खेल है, लीला है, नृत्य है। यह चैतन्य ही समस्त सृष्टि का आधारभूत तत्व है जो समस्त जड़ चेतन में व्याप्त है। इस व्यष्टि चेतन को ‘आत्मा’ तथा समष्टि चेतन को ही ‘ब्रह्म’ कहा गया है। दोनों एक ही तत्व हैं। आत्मा का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान है। आत्मा से परमात्मा (ब्रह्म) भिन्न नहीं है। इस आत्मतत्व का ज्ञान होने पर सब कुछ जाना हुआ हो जाता है। उपनिषद कहते हैं, ‘‘यस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।’’ (जिसके जानने से सब कुछ जाना हुआ हो जाता है) सम्पूर्ण सृष्टि का रहस्य ज्ञात हो जाता है। फिर जानने को कुछ बाकी नहीं रहता। मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि नहीं बल्कि आत्मा ही उसका वास्तविक स्वरूप है। वही नित्य, शाश्वत एवं सनातन है। प्रकृति अनित्य है। इस आत्मा का ज्ञान ही ‘स्व; का ज्ञान है। अज्ञानी प्रकृति को ही जानते हैं जो स्थूल है, इन्द्रिय ग्राह्य है जबकि ज्ञानी उस चेतन को भी जान लेते हैं जो सूक्ष्म है, इन्द्रियातीत है।
इस ज्ञान प्राप्ति से होती है मुक्ति। सृष्टि का आधार जान लेने पर समस्त विश्व प्रपंच का ज्ञान हो जाता है, भ्रान्ति मिट जाती है, मनुष्य शान्त हो जाता है, साक्षी हो जाता है, दृष्टा मात्र रह जाता है, जिससे संसार-बन्धनों से मुक्त होकर वह स्वतन्त्र हो जाता है। मुक्ति ज्ञान के बिना नहीं हो सकती। जीवन का चरमोत्कर्ष मुक्ति है जो जीव की अन्तिम परिणति है, अन्तिम स्थिति है, चरम विकास है।
आत्म ज्ञान के लिये वैराग्य का होना आवश्यक है। वैराग्य का अर्थ संसार को छोड़ना अथवा उससे भागना नहीं है, अपितु उसके प्रति आसक्ति का त्याग है। संसार बन्धन नहीं है, उसके प्रति जो आसक्ति है, लगाव है, यही बन्धन है। इस आसक्ति का कारण है अहंकार। जब तक अहंकार है असाक्ति होती ही तथा यही आसक्ति, बन्धन है। संसार और आत्मा दो छोर हैं। बाहर है संसार, भीतर है आत्मा (परमात्मा)। दोनो मार्ग भिन्न दिशाओं में जा रहे हैं। मनुष्य दोनों के मध्य खड़ा है। यदि वह संसार की ओर भागता है तो परमात्मा से दूर होता जाता है। यदि वह परमात्मा की ओर जाना चाहता है तो उसे संसार से विमुख होना पड़ेगा। संसार से विमुख होना ही वैराग्य है। यह केवल दृष्टि परिवर्तन से होगा। शहर छोड़कर जंगल में भागने से नहीं होगा। यदि व्यक्ति संसार के प्रति आसक्ति का त्याग-मात्र कर देता है तो वह ज्ञान-प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है। मनुष्य के अहंकार के कारण ही लोभ, मोह, वासना आदि पैदा होते हैं, जिससे मनुष्य इस कर्मजाल के बन्धन में उलझ जाता है। यह जाल उसने स्वयं ही अज्ञानवश तैयार किया है जिसे ज्ञान द्वारा नष्ट किया जा सकता है किन्तु ज्ञान प्राप्ति हेतु मुमुक्षु भी होना अनिवार्य है अन्यथा उसे कोई भी देवता उपहार स्वरूप लाकर नहीं दे सकते।
राजा जनक मुमुक्षु हैं। उनमें ज्ञान व मुक्ति की तीव्र इच्छा है। अष्टावक्र ज्ञानी हैं जिन्होंने पा लिया है, वे ही दे सकते हैं जिसने स्वयं नहीं पाया वह दे भी नहीं सकता बल्कि और भटका देता है। आज संसार ऐसे ही अज्ञानियों द्वारा भटकाया गया है, विभ्रमित किया गया है। इन मुद्दों ने दुनिया को जितनी हानि नहीं पहुंचाई उतनी इन अज्ञानियों ने पहुंचायी है। ये अज्ञानी ही साम्प्रदायिकता फैलाते हैं जिससे संसार विकृत हुआ है। राजा जनक ज्ञानी गुरू से तीन प्रश्न करते हैं-ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मुक्ति कैसे होती है? तथा वैराग्य कैसे होता है? तीन ही प्रश्नों के उत्तर में सारे अध्यात्म का सारा निचोड़ समाया है। हर व्यक्ति मुक्ति की चाह तो करता है, किन्तु सद्गुरू के अभाव में सब कुछ करता हुआ भी आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं होता। इसके मुख्य तीन कारण हैं-स्वयं की मुमुक्षा का न होना, स्वयं की पात्रता का अभाव एवं सद्गुरु का अभाव। ये तीनों जहां मिल जाते हैं, जहां इस त्रिवेदी का संगम हो जाता है, वहाँ चेतना अवश्य प्रकट होती है। ज्ञानी गुरु ही तत्व का बोध करा सकता है। मुमुक्षु राजाजनक की पात्रता का निश्चय हो जाने पर अष्टावक्र ने अपनी पूरी शक्ति का उपयोग कर सारा ज्ञान सार भूत रूप में केप्स्यूल में बन्द कर उनके गले उतार दिया व तीनों
प्रश्नों का, तीन वाक्यों का समाधान कर दिया।
अष्टावक्र पहले वैराग्य का स्वरूप बताते हैं क्योंकि वैराग्य हुए बिना मनुष्य आत्मज्ञान का अधिकारी नहीं बनता। यह प्रारम्भिक शर्त है।
अष्टावक्र उवाच
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्यज।
क्षमाज्र्जवदयातोषं सत्यं पीयूषवद् भज।। 2।।
अर्थात-अष्टावक्र ने कहा-हे प्रिय! यदि तू मुक्ति चाहता है तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा, आर्जव (सरलता), दया, सन्तोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।
व्याख्या: हे प्रिय! अष्टावक्र आयु में कम होते हुए भी ज्ञानवृद्ध हैं एवं गुरुपद पर आसीन हैं। राजाजनक शिष्य भाव से जिज्ञासा कर रहे हैं। इसलिए अष्टावक्र उन्हें प्रिय शब्द से सम्बोधित कर कहते हैं कि ‘यदि तू मुक्ति चाहता है तो इन विषयों को विष के समान छोड़ दे।’ एक ही वाक्य में वैराग्य का रहस्य प्रकट कर दिया। इन्द्रियों द्वारा भोगे जाने वाले विषयों में आसक्त होना ही मनुष्य को आत्मज्ञान से वंचित रखता है। विषय केवल शरीर और मन को ही तुष्ट कर सकते हैं, आत्मा को नहीं। फिर भोग से कभी वासनाएँ तृत्त नहीं होतीं। बार-बार उठती हैं व अनेक जन्मों तक चलती रहती हैं जिससे मनुष्य शरीर व मन ही नहीं है, वह चैतन्य आत्मा है। अतः आत्मज्ञज्ञन की इच्छा रखने वाले को इन इन्द्रियगत विषयों को विष के समान छोड़ देना चाहिए। इन विषयों के प्रति आसक्ति ही मनुष्य के बारन्बार जन्म व मृत्यु का कारण बनती है अतः यह विष के समान है किन्तु विषयों के छोड़ने मात्र से वह आत्मज्ञानी नहीं हो जाता बल्कि इनसे वह आत्मज्ञान का अधिकारी बनता है, उसमें पात्रता आ जाती है। विषयों को छोड़ने का अर्थ उनके प्रति आसक्ति का त्याग है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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