स्वतंत्रता दिवस के सबक-3

देश के ही गद्दारों और सुविधाभोगियों के चलते मुसलमानों और अंग्रेजों ने हम पर शासन किया। हालांकि इनका विरोध बराबर किया गया। कितने ही स्वाधीनता सेनानी इतिहास के पन्नों मंे छोटी सी जगह भी नहीं पा सके। आजादी के अमृत महोत्सव अर्थात् 75वीं वर्षगांठ पर ऐसे वीर जवानों, महिलाओं को तलाशा जा रहा है और गांव-गांव उनके स्मारक भी बनवाए जाएंगे। इस कार्य को सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ देना है। सभी लोगों की सहभागिता से ही गांव-गांव में स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वालों को तलाशा जा सकता है। मीडिया भी इसमें प्रमुख भूमिका निभा सकती है। अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की कुटिल नीति से एक-एक करके सभी राजाओं को अपने अधीन कर लिया लेकिन उनको राजा बनाए रखा ताकि आम जनता से उनकी दूरी बनी रहे। इस प्रकार लगभग एक वर्ष बीत गया और मंगल पांडे नामक एक जवान ने ईष्ट इंडिया कंपनी को ललकारा। मंगल पांडेय की इस ललकार को ही देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा जाता है। अंग्रेजों ने इसे गदर घोषित किया और इसी के बाद महारानी विक्टोरिया ने ईस्ट इंडिया कंपनी से अधिकार छीनकर भारत को अपना एक उपनिवेश बनाया। इसलिए मंगल पांडेय को हम सबसे पहले याद करते हैं।
मंगल पांडे का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक गांव नगवा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम दिवाकर पांडे तथा माता का नाम अभय रानी था। वे सन 1849 में 22 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हुए थे। देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत करने और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पहली गोली चलाने वाले देश के स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे का 19 जुलाई को जन्मदिन मनाया जाता है। मंगल पांडे ने देश में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की जो चिंगारी जलाई थी, वह कहीं ज्वाला का रूप न ले ले इस डर से अंग्रेज प्रशासन ने उन्हें फांसी की सजा तय दिन से 10 दिन पहले ही दे दी थी।
उनका उनका बचपन आम बच्चों की तरह ही बीता। 1849 में मात्र 22 वर्ष की उम्र में वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में बंगाल नेटिव इन्फेंट्री बटालियन की 34वीं रेजीमेंट में पैदल सेना के सिपाही के रूप में भर्ती किए गए। इस रेजीमेंट में ज्यादातर ब्राह्मणों को ही भर्ती किया जाता था। 1856 से पहले तक अंग्रेजी सेना के भारतीय सिपाही ब्राउन ब्रीज नाम की बंदूक का इस्तेमाल करते थे। 1856 में भारतीय सेना के इस्तेमाल के लिए एनफील्ड पी-53 लाई गई। इस बंदूक को लोड करने के लिए पहले कारतूस को दांत से काटना पड़ता था। इसी समय भारतीय सिपाहियों के बीच यह बात फैल गई कि इस राइफल में इस्तेमाल किए जाने वाले कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया गया है। इस वजह से हिंदू और मुस्लिम सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंच रही थी। सिपाहियों द्वारा इसे ब्रिटिश शासन द्वारा हिंदू और मुसलमान धर्म को भ्रष्ट करने की सोची समझी साजिश कहा गया। इस विद्रोह के पीछे एक और कहानी भी है। लेफ्टिनेंट जे ए राइट ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि एक बार एक नीची जाति के खलासी ने ब्राह्मण सिपाही के लोटे से पानी पीने की इच्छा जाहिर की तो उसने उसे यह कहकर पानी पिलाने से मना कर दिया कि इससे उसका लोटा अशुद्ध हो जाएगा और धर्म भ्रष्ट होगा, तब उस नीची जाति के व्यक्ति ने कहा कि जल्दी तुम्हारी जाति का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा, जब तुम्हें सूअर और गाय की चर्बी से बने कारतूसो को मुंह से काटना पड़ेगा। इस घटना के बाद यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई कि अंग्रेजी सरकार भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करने की साजिश कर रही है।
बंगाल के बैरकपुर छावनी में 2 फरवरी 1857 को शाम की परेड में सैनिकों ने एनफील्ड राइफलों में इस्तेमाल किए जाने वाले कारतूसों का विरोध किया। मंगल पांडे ने सूअर और गाय की चर्बी वाले कारतूसों का विरोध किया, और भारतीय सिपाहियों को भी ब्रिटिश शासन का विरोध करने के लिए तैयार कर लिया। मंगल पांडे ने मारो फिरंगियों को का नारा दिया। अंग्रेजों के वफादार सैनिकों ने इस विद्रोह की खबर अंग्रेज अफसरों को दे दी। बंगाल के बैरकपुर छावनी में 29 मार्च को शाम 5 बजकर 10 मिनट पर जब मंगल पांडे ने विद्रोह कर कारतूस का इस्तेमाल करने से मना कर दिया तब परेड ग्राउंड पर लेफ्टिनेंट बी एच बो पहुंच गए। मंगल पांडे ने उन्हें देखते ही उन पर गोली चला दी। गोली घोड़े के पैर में लगी। बो ने मंगल पांडे पर गोली चलाई लेकिन उनका निशाना चूक गया था। इसी बीच सार्जेंट मेजर ह्यूसन भी आ गए थे। वह और बो दोनों ने अपनी तलवारें निकाली। मंगल पांडे ने उन पर अपनी तलवार से हमला कर दिया। वहां मौजूद भारतीय सैनिकों में से कोई भी अंग्रेज अफसरों की मदद के लिए आगे नहीं आया। तभी शेख पलटू नाम के सैनिक ने मंगल पांडे को पीछे की तरफ से कमर से पकड़ लिया और दोनों अंग्रेज अफसर वहां से बच निकले। यह अनियोजित क्रांति थी, इसलिए असफल रही।
इस घटना के बाद 34वीं नेटिव इन्फेंट्री के कमांडिंग अफसर कर्नल एस जी वेलर ने घटनास्थल पर पहुंच कर, वहां मौजूद सैनिकों से मंगल पांडे को गिरफ्तार करने के लिए कहा लेकिन सैनिकों ने मंगल पांडे को गिरफ्तार करने से पूरी तरह मना कर दिया। इसी बीच, डिविजन के कमांडिंग अफसर मेजर जनरल हियरसे भी पहुंच गए। उन्होंने अपनी पिस्टल हवा में लहराते हुए कहा कि मेरे आदेश पर अगर किसी सैनिक ने मार्च नहीं किया तो मैं उसे गोली मार दूंगा। इस बार सैनिकों ने उसकी बात सुनी। सभी सैनिक मंगल पांडे की तरफ बढ़ने लगे, तभी मंगल पांडे ने बंदूक की नली अपने सीने की तरफ करके अपने पैर की उंगली से बंदूक का घोड़ा दबा दिया। गोली मंगल पांडे के सीने और गर्दन को घायल करके आगे निकल गई। उनके कोट में आग लग गई। मंगल पांडे पेट के बल गिर गए। मंगल पांडे को तुरंत गिरफ्तार कर अस्पताल भेज दिया गया।
मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल शुरू हुआ लेकिन इसके पहले ही शेख पलटू का प्रमोशन कर दिया गया। कोर्ट मार्शल के दौरान मंगल पांडे ने स्वीकार कर लिया कि इस मामले में उनका कोई साथी नहीं है। ब्रिटिश हुकूमत क्रांतिकारियों को विद्रोही का दर्जा देती थी। और अंग्रेज अफसर पर हमले का मतलब साफ तौर पर अपनी मौत का वारंट खुद निकलवाना होता था। इसलिए सिपाही नंबर 1446 मंगल पांडे को मौत की सजा सुनाई गई। फांसी के लिए 18 अप्रैल 1857 की तारीख तय की गई थी लेकिन ब्रिटिश शासन को डर था कि तब तक विद्रोह देश के दूसरे इलाकों में न फैल जाए। इसलिए तय समय से 10 दिन पहले 8 अप्रैल सुबह 5.30 बजे ही उनके साथी सैनिकों के सामने 30 वर्ष की कम उम्र में ही उन्हें फांसी दे दी गई। (हिफी)
(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)