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न्यायपालिका से टकराव!

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

विपक्ष को चारों खाने चित्त करने के बाद नरेन्द्र मोदी की सरकार अब क्या न्यायपालिका से टकराएगी? यह सवाल राजनीतिक गलियारों मंे पूछा जा रहा है। कई मामलों पर सरकार और न्यायपालिका के मतभेद खुलकर सामने आए हैं। प्रवर्तन निदेशक (ईडी) संजय मिश्र के कार्यकाल को बढ़ाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से टिप्पणियां की थीं, उससे सरकार की किरकिरी हुई है। जजों की नियुक्ति करने वाले कोलेजियम में सरकार की दखलंदाजी का भी न्यायपालिका की तरफ से विरोध किया गया है। अब निर्वाचन आयोग मंे सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है। मोदी सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त बिल के माध्यम से भारत के मुख्य न्यायाधीश को देश के शीर्ष चुनाव अधिकारियों की नियुक्ति प्रक्रिया से बाहर कर देगी। पिछले महीनों मंे सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग मंे एक चुनाव आयुक्त की तैनाती को रोक दिया था। जिसे मोदी सरकार ने बीआरएस के दूसरे दिन ही चुनाव आयुक्त की कुर्सी पर बैठाने का प्रयास किया था। कार्यपालिका और न्यायपालिका के विवाद के चलते ही माना जाता है कि किरेन रिजिजू को कानून मंत्रालय से हटाया गया था। इसके अलावा पिछले दिनों पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जो सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा सदस्य बनाये गये हैं, ने दिल्ली बिल पर बहस के दौरान संविधान के मूल ढांचे पर चर्चा का सुझाव भी दिया था। निर्वाचन आयुक्तों की तैनाती के लिए केन्द्र सरकार से नियम बनाने का सुझाव हालांकि न्यायालय ने ही दिया था।
कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच नए सिरे से टकराव शुरू होने की संभावना वाले एक कदम में, केंद्र ने एक ऐसे विधेयक को पेश किया है जो कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को देश के शीर्ष चुनाव अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया से बाहर कर देगा। मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) बिल, 2023 गत 10 अगस्त को राज्यसभा में पेश किया गया। इसमें प्रस्ताव है कि चुनाव अयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और प्रधान मंत्री द्वारा नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के पैनल की सिफारिश पर की जाएगी। इसमें कहा गया है कि प्रधानमंत्री पैनल की अध्यक्षता करेंगे। वास्तव में, बिल का उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के मार्च 2023 के फैसले को कमजोर करना है जिसमें एक संविधान पीठ ने कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, चुनाव आयुक्तों का चयन राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश के पैनल की सलाह पर किया जाएगा। यह बिल सुप्रीम कोर्ट और केंद्र के बीच नए सिरे से टकराव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। जजों की नियुक्तियों से लेकर दिल्ली सेवा अधिनियम जैसे विवादास्पद कानूनों तक, कई मुद्दों पर केंद्र और सुप्रीम कोर्ट के बीच खींचतान चल रही है। दिल्ली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि दिल्ली सरकार राष्ट्रीय राजधानी में भूमि, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस को छोड़कर सभी सेवाओं को नियंत्रित करेगी। केंद्र ने समीक्षा की मांग की और दिल्ली पर अपना नियंत्रण फिर से हासिल करने के लिए एक अध्यादेश लाया गया। एक बार जब संसद की बैठक हुई, तो उसने अध्यादेश को बदलने के लिए एक अधिनियम पारित करने के लिए अपनी संख्यात्मक ताकत का इस्तेमाल किया। बुनियादी संरचना सिद्धांत जैसे मुद्दों पर कार्यपालिका और सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग मत हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो इसका अर्थ यह है कि संविधान की एक बुनियादी संरचना है, जिसे संसद द्वारा बदला नहीं जा सकता।। इस मतभेद का ताजा उदाहरण भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और अब मनोनीत राज्यसभा सदस्य जस्टिस रंजन गोगोई का एक बयान है।
जस्टिस गोगोई ने कहा, मेरा विचार है कि संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत का एक बहुत ही विवादास्पद न्यायिक आधार है, मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने पूर्व सहयोगी की टिप्पणी का जवाब देते हुए कहा कि एक बार जब न्यायाधीश पद छोड़ देते हैं, तो वे जो भी कहते हैं वह सिर्फ राय होती है और बाध्यकारी नहीं होती।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका की अधीनता से अलग करना होगा। कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता बनाए रखी जानी चाहिए वरना इसके अच्छे परिणाम नहीं होंगे। सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने पूर्व मंे ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक पैनल करेगा। इस पैनल में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष (सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता) शामिल रहेंगे। जस्टिस केएम जोसेफ, जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार की बेंच ने चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति पर आश्चर्य भी जताया था जस्टिस जोसेफ ने अपने फैसले में लिखा- हम इस बात से
थोड़ा हैरान हैं कि अधिकारी ने 18 नवंबर को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कैसे किया था, अगर उन्हें नियुक्ति के प्रस्ताव के बारे में पता नहीं था। हालांकि, सर्वोच्च अदालत ने गोयल को हटाने को लेकर कोई फैसला नहीं सुनाया।
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में सुनवाई के दौरान सरकार और याचिकाकर्ताओं के बीच जोरदार बहस हुई थी। याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण ने सुनवाई के बीच अरुण गोयल के नियुक्ति को लेकर सवाल उठाया। वहीं अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने कहा कि पहले के बनाए गए सारे नियमों का पालन किया जा रहा है, इसलिए इस याचिका को खारिज कर दिया जाए। कोर्ट ने इस दौरान टिप्पणी करते हुए कहा था कि टीएन शेषन जैसे चुनाव आयुक्त की देश को जरूरत है। सुनवाई के दौरान जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा था कि मान लीजिए प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत दाखिल की जाती है और आयुक्त कमजोर है, तो कैसे कार्रवाई करेगा? आपको लगता है, यह सही है? हम चुनाव आयोग को निष्पक्ष बनाना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद तस्वीर में बड़ा बदलाव सम्भव नहीं है। नामों के पैनल की सिफारिश केन्द्र सरकार के विधि मंत्रालय द्वारा की जाती है, जिसमें अधिकांशतः नौकरशाहों के नाम ही होते हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार बनाई जा रही समिति को उसी पैनल से ही नाम का चयन करना होगा। नेता विपक्ष के विरोध करने की स्थिति में चुनाव आयुक्त के चयन में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की भूमिका निर्णायक हो जाएगी। संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को कराने की भूमिका सही अर्थों में निभा सकता है।
ध्यान रहे कि 1989 तक देश में चुनाव आयोग में एक ही आयुक्त होते थे, लेकिन राजीव गांधी की सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो आयुक्त की नियुक्ति का प्रावधान कर दिया। बाद में 1990 में वीपी सिंह की सरकार आई तो सिंह ने फिर से एक आयुक्त के नियुक्ति की प्रक्रिया बहाल कर दी। इसके बाद चुनाव आयुक्त बने टीएन शेषन। शेषण्न के खौफ से सभी पार्टियां त्रस्त रहने लगी। इसलिए 1993 में फिर से एक संशोधन कर केंद्र सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान कर दिया। इसके पीछे वजह मुख्य चुनाव आयुक्त के फैसले पर वीटो लगाना था। यह भी ध्यान देने की बात है कि 2019 में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ एक शिकायत दर्ज की गई थी। उस वक्त एक चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने मामले में पीएम को दोषी माना, लेकिन तत्कालीन सीईसी सुनील अरोड़ा और एक अन्य चुनाव आयुक्त ने पीएम को क्लीन चिट दे दी थी। (हिफी)

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