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स्वतंत्रता दिवस के सबक-4

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

मंगल पांडेय के विद्रोह ने भारतीय सैनिकों के मन में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रति घृणा ही पैदा नहीं की थी बल्कि उससे मुक्ति का वे उपाय भी सोचने लगे थे। सैनिक सोच रहे थे कि हम सैनिक और देशवासी मिलकर लड़ें तो अंग्रेजों की कोई औकात नहीं। जनता भी जाग उठी और इस तरह स्वाधीनता का पहला संग्राम शुरू हो गया। कहीं हम हारे तो कहीं अंग्रेजों को हराया। पूरे देश मंे क्रांति की ज्वाला भड़क उठी थी। इस ज्वाला को चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह ने और ज्यादा प्रज्ज्वलित कर दिया। यही कारण था कि जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सत्य और अहिंसा से ब्रिटिश सरकार को उखाड़ रहे थे तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र युद्ध की तैयारी कर रहे थे।
जल्लाद भी मंगल पांडे को फांसी नहीं देना चाहते थे। लेकिन अंग्रेजों के दबाव में उन्हें यह काम करना पड़ा लोगों ने अंग्रेजों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। अब हर किसी को ये बात समझ में आ गई थी कि अगर हम सैनिक और देशवासी मिलकर लड़ें तो अंग्रेजों की कोई औकात नहीं। अंग्रेजों को हराया जा सकता है। अब ये बात सैनिक और आम लोग भी महसूस करने लगे थे। इस तरह शुरू हुआ भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम। मंगल पांडे के शहीद होने से पूरे भारत में क्रांति की ज्वाला भड़क उठी।अंग्रेजों ने मंगल पांडे को यह सोचकर तय समय से पहले फांसी दी थी कि इस तरह से वे स्थिति पर काबू पा लेंगे और विद्रोह को कई जगह भड़कने से रोक लेंगे लेकिन मंगल पांडे की मौत के बाद विद्रोह की चिंगारी कई सैनिक छावनियों में भी फैलने लगी। कई सैनिक विद्रोही बन गए। अंग्रेज सैनिको ने विद्रोही सैनिकों को मंगल पांडे के सरनेम पैनडीज नाम से पुकारना शुरू कर दिया। देश के विभिन्न हिस्सों से भी क्रांति की खबरें आने लगीं। 20 अप्रैल 1857 को हिमाचल प्रदेश के कसौली में सिपाहियों ने ही पुलिस चैकी में आग लगा दी। इसी तरह 3 मई 1857 में मेरठ में भारतीय घुड़सवार सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। मेरठ के विद्रोह से यह चिंगारी पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पूरे देश में भी फैल गई। लखनऊ और पुराने लखनऊ समेत चिनहट इस्माइलगंज में 30 मई को किसानों मजदूरों और सैनिकों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था।मंगल पांडे की शहादत व्यर्थ नहीं गई और इस तरह 1857 की क्रांति के रूप में भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ। विद्रोह की सजा दी गई 34वीं रेजीमेंट को मंगल पांडे के विद्रोह की सामूहिक सजा के रूप में 34 वीं रेजीमेंट को अप्रैल 1857 में भंग कर दिया गया। तब निकाले गए सभी सैनिकों ने विरोध जताते हुए ग्राउंड से निकलने से पहले अपनी टोपी को जमीन पर फेंक कर कुचल दिया था। 1984 में मंगल पांडे के सम्मान में डाक टिकट जारी हुआ। मंगल पांडे का नाम भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। उनकी वीरता की कहानियां हमेशा नौजवानों के लिए प्रेरणास्रोत रहीं हैं। स्वतंत्रता दिवस पर हमंे अमर शहीद मंगल पांडे के बारे मंे नई पीढ़ी को जरूर बताना चाहिए।
भारत की आजादी की लड़ाई में लाखों लोगों ने भाग लिया था लेकिन कुछ ऐसे भी लोग थे जो एक नई प्रतीक या प्रतिमा के साथ उभरे। ये कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने जीवन का त्याग किया और इन्हीं लोगों के कारण हम आज स्वतंत्र देश में रहने का आनंद ले रहे हैं। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए जीवन, परिवार, संबंध और भावनाओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था हमारे देश की आजादी। इस पूरी लड़ाई में कई व्यक्तित्व उभरे, कई घटनाएं हुई, इस अद्भुत क्रांति में असंख्य लोग मारे गए, घायल हुए इत्यादि। अपने सम्मान और गरिमा के लिए हर कोई अपने देश के लिए मौत को गले लगाने का फैसला नहीं कर सकता है! कुछ स्वनामधन्य लोगों के बारे में हम यहां बता रहे हैं। इनमें एक नाम था शहीद भगत सिंह का।
शहीद भगत सिंह पंजाब के रहने वाले थे। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती था। वे भारत के सबसे छोटे स्वतंत्रता सेनानी थे। वह सिर्फ 23 वर्ष के थे जब उन्होंने अपने देश के लिए फासी को गले लगाया था। भगत सिंह पर अराजकतावादी और माक्र्सवादी विचारधाराओं का काफी प्रभाव पड़ा था। लाला लाजपत राय की मौत ने उनको अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए उत्तेजित किया था। उन्होंने इसका बदला ब्रिटिश अधिकारी जॉन सॉंडर्स की हत्या
करके लिया। भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ केंद्रीय विधानसभा या असेंबली में बम फेंकते हुए क्रांतिकारी नारे लगाए थे। उन पर लाहौर षड़यंत्र का मुकदमा चला और 23 मार्च, 1931 की रात भगत सिंह को फाँसी पर लटका दिया गया।
इसी तरह एक नाम शहीद चंद्रशेखर आजाद का है। उनका पूरा नाम पंडित चंद्रशेखर तिवारी था और उन्हें आजाद कहकर भी बुलाया जाता था। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। वे 14 वर्ष की आयु में बनारस गए और वहां एक संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई की। वहीं पर उन्होंने कानून भंग आंदोलन में योगदान भी दिया था। वे एक महान भारतीय क्रन्तिकारी थे। उनकी उग्र देशभक्ति और साहस ने उनकी पीढ़ी के लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह के सलाहकार थे और उन्हें भारत के सबसे महान क्रांतिकारियों में से एक माना जाता है।
1920-21 के वर्षों में वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े, भारतीय क्रन्तिकारी, काकोरी ट्रेन डकैती (1926), वाइसराय की ट्रैन को उड़ाने का प्रयास (1926), लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए सॉन्डर्स पर गोलीबारी की (1928), भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्रसभा का गठन भी किया था। जब वे जेल गए थे वहां पर उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता और जेल को निवास बताया था। उनकी मृत्यु 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में हुई थी।
सुभाष चंद्र बोस, जिन्हें नेताजी के नाम से भी जाना जाता है, एक भारतीय राष्ट्रवादी थे जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती था। वे 1920 के अंत तक राष्ट्रीय युवा कांग्रेस के बड़े नेता माने गए और सन् 1938 और 1939 को वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक (1939- 1940) नामक पार्टी की स्थापना की। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ जापान की सहायता से भारतीय राष्ट्रीय सेना “आजाद हिन्द फौज” का निर्माण किया। 05 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने “सुप्रीम कमांडर” बन कर सेना को संबोधित करते हुए “दिल्ली चलो” का नारा लगाने वाले सुभाष चन्द्र बोस ही थे। 18 अगस्त 1945 को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास नेताजी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हुआ बताया जाता है, लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया था इसलिए आज भी उनकी मृत्यु एक रहस्य है। (हिफी)

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