
महाज्ञानी अष्टावक्र ने ज्ञान तत्व का राजा जनक को उपदेश दिया और राजा जनक में उपदेश ग्रहण करने की पात्रता थी इसलिए उन्हें आत्म बोध हो गया। वह कहने लगे कि मैं तो सचमुच निर्दोष हूँ लेकिन इतने समय तक मोह ग्रस्त था। इसके बाद अष्टावक्र यह बताते हैं कि संसार क्या है? वह कहते हैं कि संसार अध्यात्म सत्ता से भिन्न नहीं है।
अष्टावक्र गीता-12
राजा जनक को अष्टावक्र द्वारा दिये गये ज्ञान के उपदेश का सार इतना ही है कि आत्मा और परमात्मा एक ही तत्व है उसे पाना नहीं है वह प्राप्त ही है, केवल अज्ञान से विस्मृत हो गया है उसे ज्ञान द्वारा पुनः स्मृति में लाना मात्र है। ये ध्यान, योग, उपासना आदि आन्तरिक स्वच्छता के लिये हैं, शरीर में उस परम-शक्ति को झेलने की तैयारी मात्र है। जिससे पात्रता आती है कि तुम उसे झेल सको। अचानक घटना घटने पर मनुष्य पागल भी हो सकता है। यह शास्त्रीय ज्ञान उसमें बिल्कुल काम नहीं आता। इसका महत्व इतना ही है कि आत्म ज्ञान में कैसी स्थिति होती है इसे समझा जा सके। उस समय मनुष्य घबराये नहीं। यह तत्व ज्ञान बुद्धि का विषय नहीं है। बुद्धि सीमित है। वह उस असीम को अपने में नहीं समा सकती। इस तत्व ज्ञान का उपदेश सुनकर कोई मान ले कि मैं परमात्मा ही हूँ तो वह पाखण्ड ही होगा। जब भीतर से सब कुछ छूट जाता है तब मिलता है। बाह्य पदार्थों को छोड़ने से भी नहीं मिलता। यह ज्ञान ऐसा है जैसे स्वप्न टूटने पर ही ज्ञात होता है कि यह असत्य था, मिथ्या था। इसी प्रकार आत्मज्ञान के बाद ही संसार सम्बन्धी सारी मान्यताएँ, धारणाएँ गिर जाती हैं। इससे पहले नहीं। इससे पहले संसार सत्य प्रतीत होगा वह आत्मा असत्य। जीवन में भी साक्षाी भाव रखने पर भ्रान्ति मिट जाती है। अष्टावक्र इसीलिये निष्ठा की बात कहते हैं व समाधि को भी बन्धन मानते हैं।
यह उपदेश इतना सारगर्भित है कि जनक को सुनते-सुनते ही ही आत्मबोध हो गया, स्व-स्वरूप का ज्ञान हो गया। इसका कारण था कि उनकी पात्रता पूर्ण थी। पात्रता नहीं होती तो इसका कोई प्रभाव नहीं होता। सारी देरी पात्रता प्राप्त करने में होती है। उसके बाद प्राप्ति में देरी नहीं होती। क्षण भर में घटना घट जाती है।
दूसरा प्रकरण
(संसार अध्यात्म-सत्ता से भिन्न नहीं है)
सूत्र: 1
अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः।
एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडम्बितः।। 1।।
अर्थात: राजा जनक को अष्टावक्र का उपदेश सुनते ही आत्म ज्ञान हो गया वे कहते हैं-‘मैं निरंजन (निर्दोष) हूँ, बोध हूँ प्रकृति से परे हूँ, आश्चर्य है। किन्तु मैं इतने काल तक मोह द्वारा ठगा गया है।’’
व्याख्या: ज्ञानी अष्टावक्र के सम्पर्क में आते ही राजा जनक का भी ज्ञान-दीपक जल उठा जिससे उनका समस्त अज्ञान का अन्धकार विलीन हो गया। वे आत्मसत्ता में प्रतिष्ठित हो गये। उनका मोह, ममता, तृष्णा, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ, अहंकार आदि सारा भ्रम की भाँति दूर हो गया। उनकी सम्पूर्ण दृष्टि बदल गई। यह समस्त संसार स्वप्नवत् हो गया। जिस प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न में देखी गई समस्त माया विलीन हो जाती है, उसी प्रकार जनक को आत्म ज्ञान के बाद यह सृष्टि माया व भ्रमवत् प्रतीत होने लगी। अब वे अपने को संसारी न समझकर आत्मा समझने लग गये। शरीर, मन, प्रकृति से सम्बन्ध छूट गया। वासना विलीन हो गई, आसक्ति मिट गई। एक नए जीन का सूत्रपात हो गया। यह सब कुछ अकस्मात् नहीं था वरना जनक समझ भी नहीं पाते। पूर्व पात्रता थी, शक्ति के अवधारणा की क्षमता थी तो भी वे चैंक गये और कहने लगे कि ‘आश्चर्य है।’ मैं आत्म रूप हूँ अतः मैं निरंजन (निर्दोष) हूँ।
मैं इतने काल तक बस मोह के द्वारा ठगा गया हूँ। यह मोह ही वास्तव में ठगने वाला है। सारे संसार को इसी ने ठग रखा है जिससे वास्तविकता का ज्ञान नहीं हो पाता। कबीर ने भी कहा है-‘माया महा ठगिनी मैं जानी।’ यह माया मोह ही है जिससे संसार जैसा है वैसा न दिखाई देकर भिन्न प्रकार का दिखाई देता है। जनक का यह माया का आवरण दूर हो गया। वे अपने स्वरूप को पहचान गये। यही गुरु महिमा है जो लोहे को स्वर्ण बना देता है, एवं शिष्य की भी पात्रता है जो स्वयं को बदलने को तैयार है, खुला है। जनक अब अपने को निर्दोष कहते हैं। पाप-पुण्य, कर्म आदि का समस्त मायाजाल टूट या। यह माया जाल केवल अहंकार के कारण है जिससे मनुष्य अपने को कत्र्ता समझता है। जब कत्र्तापन खो गया तो कृत्य का पाप-पुण्य उसे कैसे लग सकता है। ज्ञान रूपी अग्नि में सभी भस्म हो जाते हैं। यथार्थ का ज्ञान ही पर्याप्त है। यह सब सद्गुरु की उपस्थिति से ही घटा। गुरु ने ‘कलेलिटिक एजेन्ट’ का कार्य किया। पत्ता भी नहीं हिला और विस्फोट हो गया, घाव भी नहीं हुआ और शल्य क्रिया पूर्ण हो गई। ऐसा ही हुआ विवेकानन्द के साथ, ऐसा ही अन्य ज्ञानियों के साथ। जनक ऐसा अनुभव करने लगे जैसे शरीर से वस्त्र उतार दिये गये हों, साँप ने केंचुली उतार दी हो। सिंह का
बच्चा भेड़ों के समुदाय में पलने से अपने को भेड़ ही समझने लग गया था, घास-पात खाकर वह भेड़ के समान ही हो गया था किन्तु जब उसने पानी में अपना चेहरा देखा, सिंह की आवाज सुनी, खून का स्वाद एक बार उसे आया कि उसके भीतर का सिंह जाग उठा तथा वह वैसी ही गर्जना कर भेड़ों के समूह को छोड़कर सिंहों के साथ वन में चला गया।
यह था स्वयं के समूह को छोड़कर सिंहों के साथ वन में चला गया। यह था स्वयं की सुप्त प्रतिभा का जागरण एवं गुरु की महिमा जिससे अपने स्वरूप को पहचान लिया, खोई स्मृति जाग गई। गुरु ने सिंह बनाया नहीं केवल उसके स्वरूप का बोध कराया। यही आत्मज्ञान का स्वरूप, यही है निज स्वरूप जिसे पहचानना मात्र है।
सूत्र: 2
यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत्।
अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किंचन।। 2।।
अर्थात: जैसे इस देह को मैं अकेला ही प्रकाशित करता हूँ वैसे ही संसार को भी प्रकाशित करता हूँ। इसीलिए तो मेरा सम्पूर्ण संसार है अथवा कुछ भी नहीं है।
व्याख्या: राजा जनक आगे अपने आत्मज्ञान की अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं कि मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ अतः यह मेरी देह मुझसे ही प्रकाशित है। यही आत्मा मैं हूँ वही सम्पूर्ण जगत् की भी आत्मा है अतः यह सम्पूर्ण जगत् भी मेरे ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है अर्थात् आत्म रूप चैतन्य तत्व से प्रकाशित हो रहा है। इसलिए यह सम्पूर्ण संसार मेरा ही (आत्मा या ब्रह्म) स्वरूप है या मेरा कुछ भी नहीं है। सभी ईश्वर है, आत्मा से पृथक् इस जगत् का अस्तित्व नहीं है। अर्जुन उलझी हुई मनःस्थिति का था, क्षत्रिय होने से उसमें अहंकार अधिक था इसलिए वह हजार प्रश्न उठाता है, विभिन्न तर्क देता है किन्तु तत्व ज्ञान को ग्रहण नहीं करता। जनक न तर्क देते हैं, न प्रश्न करते हैं क्योंकि उनकी भूमि पहले से ही तैयार थी, पात्रता पूर्ण थी इसलिए उपदेश को सीधा पी गये। एकदम केन्द्र का, उस मूल सत्ता का स्मरण लौट आया। यह सभी आश्चर्य ही था। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)