अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

संसार का वास्तविक स्वरूप आत्मा है

अष्टावक्र गीता-14

 

राजा जनक को आत्मज्ञान हो जाने से उनका संसार के प्रति भ्रम दूर हो गया। उनको अनुभव हो गया कि मेरा वास्तविक स्वरूप यह चैतन्य आत्मा है, शरीर नहीं। इसी प्रकार संसार का वास्तविक स्वरूप आत्मा है, भौतिक पदार्थ नहीं। यह संसार जैसा दिखाई देता है वह वास्तविक नहीं है, कल्पना मात्र है जो अज्ञानवश वास्तविक जैसा दिखाई देता है।

अष्टावक्र गीता-14

आत्माऽज्ञानाज्जग˜ाति आत्मज्ञानान्न भासते।
रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञाना˜ासते न हि।। 7।।
अर्थात: आत्मा के अज्ञान से संसार भासता है, आत्मा के ज्ञान से नहीं भासता है। जैसे रस्सी के अज्ञान से सर्प भासता है, उसके ज्ञान से नहीं भासता है।
अनुवाद: आत्मा के अज्ञान से संसार भासता है, आत्मा के ज्ञान से नहीं भासता है। जैसे रस्सी के अज्ञान से
सर्प भासता है, उसके ज्ञान से नहीं भासता है।
व्याख्या: राजा जनक को आत्म ज्ञान हुआ जिससे उन्हें सारी सृष्टि आत्मवत् दिखाई देने लगी। इस सूत्र में वे सृष्टि में दिखाई देने वाली भिन्नता का कारण बताते हुये कहते हैं कि यह संसार भी आत्मा अथवा ब्रह्म-स्वरूप ही है क्योंकि यह उसी ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है किन्तु यह उस ब्रह्म से भिन्न संसार जैसा भासता है, इसका कारण उस आत्मा का ज्ञान नहीं होना है। जब तक आत्मा का ज्ञान नहीं होगा यह संसार भिन्न प्रकार का प्रतीत होगा अन्यथा यह संसार आत्मस्वरूप ही है। यह ऐसा ही है जैसे रस्सी के अज्ञान से साँप भासता है। साँप तभी तक दिखाई देता है जब तक कि रस्सी का ज्ञान न हो जाये किन्तु जब देख लिया कि यह रस्सी ही है, साँप नहीं है तभी साँप की भ्रान्ति मिटती है। ऐसा ही यह संसार आत्मा के अज्ञान से ही भासता है। राजा जनक ने दोनों स्थितियाँ देखीं, अज्ञान की भी एवं ज्ञान की भी। इसलिए उनका कथन प्रामाणिक है। इस सूत्र की महत्वपूर्ण बात यह है कि जिसको आत्म ज्ञान हो गया, जिसने आत्मा को जान लिया उसका संसार छूट जाता है, संसार छोड़ने से आत्म ज्ञान नहीं होता। यह सब भ्रान्त धारणाएँ हैं कि संसार को छोड़ा, यह माया है, मिथ्या है, भ्रम है, असत्य है। इसी प्रकार क्रोध, लोभ, मोह, वासना, आसक्ति छोड़ों तो परमात्मा मिलेगा यह भी भ्रान्त धारण ही है। ये सब कथन ज्ञानी के अनुभव से आये हैं। अज्ञानी यदि इन्हें मानकर वैसा ही कर्म करेगा तो इससे भी उसका अहंकार बढ़ेगा जिससे पतन ही होगा। संसार, लोभ, मोह, क्रोध आदि छोड़ने की अपेक्षा यदि उसकी वास्तविकता को अनुभवजन्य बनाया जाये तो लाभ हो सकता है अन्यथा नहीं। संसार में रहकर यदि उसका अनुभव प्राप्त हो गया तो वह अपने आप छूट जायेगा, छोड़ना नहीं पड़ेगा। यह संसार अनुभव प्राप्त करने की एक पाठशाला है। इसमें रहकर अन्तःकरण की शुद्धि की जा सकती है किन्तु आत्मा को जानने की प्रक्रिया इससे भिन्न है। रस्सी को साँप समझकर यदि भाग गये तो भ्रम दूर नहीं हुआ। वह भ्रम तो प्रत्यक्ष दर्शन से ही दूर होगा। इसलिए जनक कहते हैं कि ‘आत्मा के अज्ञान से ही संसार भासता है व उसके ज्ञान से नहीं भासता है।’ दोनों में से एक को ही देख सकते हो तो आत्मा को या संसार को। आत्मज्ञान के बाद भी संसार तो रहता है किन्तु जैसा वह अज्ञानी को दिखाई देता है वैसा ज्ञानी को नहीं। उसकी दृष्टि बदल जाती है, देखने का ढंग बदल जाता है। वह कहता है करने से अहंकार बढ़ेगा, करने वाला परमात्मा है। उसे ही कर लेने दो। तुम कत्र्ता भाव छोड़ दो, जो हो रहा है, स्वाभाविक रूप से उसे हो जाने दो, तुम संकल्प लेकर कोई काम मत करो, सब कुछ स्वीकार कर लो, कत्र्ता नहीं साक्षी बन जाओ, केवल दृष्टा। सृष्टि का नियम है सब अपने आप हो रहा है। साक्षी का अर्थ अकर्मण्य होना नहीं है, बल्कि अपने को कत्र्तापन से मुक्त करना है। सभी कुछ ईश्वर का है, वही कर रहा है, उसे रोकना भी ईश्वर के कार्य में बाधा डालना है। ऐसी दृष्टि से ही योगी शान्त हो जाता है। साधक के लिए यह पात्रता बनती है।

सूत्र: 8
प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्मयहं ततः।
यदा प्रकाशते विश्वं तदाऽहं भास एव हि।। 8।।
अर्थात: प्रकाश मेरा निजी स्वरूप है। मैं उससे भिन्न नहीं हूँ। जब संसार प्रकाशित होता है तब वह मेरे ही प्रकाशित होता है।
व्याख्या: राजा जनक आत्म ज्ञान की अनुभूति को व्यक्त करते हुए फिर कहते हैं कि-मैं आत्मस्वरूप हूँ इसलिए इस आत्मा के गुण समस्त मेरे ही गुण हैं। यह आत्मा स्वयं प्रकाश है। इसको अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। यह जो वस्तुओं में प्रकाश दिखाई देता है यह भी उसी का है। जीसस ने भी कहा है, ‘गाॅड इज लाइट’ (ईश्वर प्रकाश है) शाóों में इसे ‘ज्योतिषाम् ज्योति’ (ज्योतियों की ज्योति है) कहा है। यह प्रकाश उसका स्वाभाविक धर्म है। जनक कहते हैं, ‘प्रकाश मेरा जिन स्वरूप है।’ उस निराकार ब्रह्म का स्वरूप प्रकाश मात्र है। ज्ञान के क्षणों में जिस किसी को भी अनुभव हुआ उन्हें पहले तीव्र प्रकाश दिखाई दिया। वह प्रकाश भी इतना तेज कि जैसे अनेक सूर्य एक साथ चमक रहे हों। यह समस्त संसार आत्मा के प्रकाश से ही, उसी के तेज से प्रकाशित हो रहा है। सूर्य आदि में भी यह प्रकाश उसी का है। कोई पदार्थ जब जलता है तो उसमें प्रकाश ही निकलता है। इसका अर्थ है यह प्रकाश उसमें विद्यमान है। यह चैतन्यतत्व का ही प्रकाश है जो गुप्त रूप से सभी में विद्यमान है। परमाणु-विस्फोट से भी प्रकाश ही निकलता है जो इस मूल तत्व का स्वरूप है। विद्युत प्रकाश ही है जिससे पदार्थ बने हैं। वैज्ञानिकों ने जो खोज आज की है उसे अध्यात्म हजारों वर्ष पूर्व ही जान गया था।

सूत्र: 9
अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयि भासते।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा।। 9।।
अर्थात: आश्चर्य है कि कल्पित संसार अज्ञान से मुझे ऐसा भासता है जैसे सीपी में चाँदी, रस्सी में साँप, सूर्य की किरणों में जल भासता है।
व्याख्या: राजा जनक को आत्मज्ञान हो जाने से उनका संसार के प्रति भ्रम दूर हो गया। उनको अनुभव हो गया कि मेरा वास्तविक स्वरूप यह चैतन्य आत्मा है, शरीर नहीं। इसी प्रकार संसार का वास्तविक स्वरूप आत्मा है, भौतिक पदार्थ नहीं। यह संसार जैसा दिखाई देता है वह वास्तविक नहीं है, कल्पना मात्र है जो अज्ञानवश वास्तविक जैसा दिखाई देता है। यह संसार सीपी के समान महत्वहीन है किन्तु चाँदी के समान मूल्यवान दिखाई देता है, यह रस्सी के समान निर्जीव है किन्तु अज्ञान से सर्पवत् दिखाई देता है, यह सूर्य की किरणों में जल भ्रान्ति के समान दिखाई देता है अर्थात् इस मृग-मरीचिका में केवल जल की भ्रान्ति मात्र होती है वह प्यास नहीं बुझा सकती। इन तीन उदाहरणों में तीन तथ्य प्रकट किये गये हैं, सीपी में चाँदी का अर्थ है यह चाँदी के समान मूल्यवान एवं आकर्षक दिखाई देता है किन्तु है सीपी के समान निर्मूल्य। साँप के समान भयभीत करने वाल दिखाई देता है किन्तु है रस्सी के समान निर्जीव तथा जल की भ्रान्ति मात्र होती है कि यह प्सास बुझा सकेगा किन्तु इन विषय-वासनाओं की प्यास इन संसार के भोगों से आत तक किसी की बुझी नहीं। वह मृग-जल की भाँति तड़पता ही रह जाता है व प्राणान्त हो जाते है। इसलिए इसे मृग-मरीचिका कहा है कि यह सत्य नहीं है, माया जाल है, भ्रम मात्र है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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