
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
चित्रकूट में रहते हुए प्रभु श्रीराम ने यह अनुमान किया कि यहां पर भरत जी, राजा जनक समाज के साथ आये थे, तो सभी लोग जान चुके हैं कि वे राजा दशरथ के पुत्र हैं। इस प्रकार कहां भीड़ भी एकत्रित होने लगी थी। इसलिए प्रभु श्रीराम ने चित्रकूट को छोड़कर दूसरे वन में रहने का निश्चय किया। इससे पूर्व उन्होंने सभी मुनिजनों से आज्ञा ली और अत्रिमुनि के आश्रम में गये। वहां अत्रि की पत्नी अनुसुइया जी ने सीता को अच्छी शिक्षाएं दीं। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो इन्द्र का पुत्र जयंत अपनी मूर्खता पर पछताता हुआ नारद जी के कहने पर प्रभु श्रीराम की शरण में आया है-
आतुर सभय गहेसि पद जाई, त्राहि त्राहि दयाल रघुराई।
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई, मैं मतिमंद जानिनहिं पाई।
निज कृत कर्म जनित फल पायउं, अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउं।
सुनि कृपाल अति आरत बानी, एक नयन करि तजा भवानी।
कीन्ह मोह बस द्रोह, जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह, को कृपाल रघुवीर सम।
नारद जी के निर्देश पर आतुर और भयभीत जयंत ने जाकर श्रीराम जी के चरण पकड़ लिये और कहने लगा- हे दयालु, रघुनाथजी, रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता (सामथ्र्य) को मैं मंद बुद्धि जान नहीं पाया था। अपने ही कर्म से उत्पन्न हुए फल को अब मैंने पा लिया है। अब हे प्रभो, मेरी रक्षा कीजिए, मैं आपकी शरण तक कर आया हूं। भगवान शंकर पार्वती जी को यह प्रसंग सुनाते हुए कहते हैं कि हे पार्वती, कृपालु श्री रघुनाथ जी ने जयंत की अत्यंत दुख भरी वाणी सुनकर उसे एक आंख का काना कह कर छोड़ दिया। भगवान शिव कहते हैं कि उसने यद्यपि मोह बस द्रोह किया था और उसका वध करना ही उचित था लेकिन प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया। श्रीराम जी के समान कृपा करने वाला ऐसा कौन होगा?
रघुपति चित्रकूट बसि नाना, चरित किए श्रुति सुधा समाना।
बहुरि राम अस मन अनुमाना, होइहि भीर सबहिं मोहि जाना।
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई, सीता सहित चले द्वौ भाई।
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ, सुनत महामुनि हरषित भयऊ।
पुलकित गात अत्रि उठि धाए, देखि रामु आतुर चलि आए।
करत दण्डवत मुनि उर लाए, प्रेम वारि द्वौ जन अन्हवाए।
देखि राम छवि नयन जुड़ाने, सादर निज आश्रम तब आने।
करि पूजा कहि बचन सुहाए, दिए मूल फल प्रभु मन भाए।
प्रभु आसन आसीन, भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिवर परम प्रवीन जोरि पानि अस्तुति करत।
चित्रकूट में रहते हुए श्री रघुननाथ जी ने बहुत से चरित्र किये जो कानों को अमृत के समान प्रिय हैं, फिर कुछ समय पश्चत श्रीराम जी के मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे यहां सभी लोग जान गये हैं, इससे यहां बड़ी भीड़ हो जाएगी। इसलिए सब मुनियों से विदा लेकर सीता जी समेत दोनों भाई चले। जाते समय प्रभु अत्रि जी के आश्रम गये तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गये। उनका शरीर पुलकित हो गया। अत्रि जी उठकर दौड़े। उन्हें इस प्रकार आता देखकर श्रीराम जी और शीघ्रता से आगे बढ़े और दण्डवत की। श्रीराम जी को उठाकर अत्रि मुनि ने हृदय से लगा लिया और अपने प्रेमाश्रुओं के जल से दोनांे भाइयों को नहला दिया। श्रीराम जी की छवि देखकर दोनों भाइयों के नेत्र शीतल हो गये। मुनि अत्रि उनको आदर पूर्वक अपने आश्रम में ले आए। पूजन करके सुन्दर बचन से मुनि ने कंद-मूल-फल दिये, जो प्रभु के मन को बहुत अच्छे लगे। प्रभु श्रीराम आसन पर विराजमान हैं। नेत्र भर कर उनकी शोभा देखकर मुनि श्रेष्ठ अत्रि हाथ जोड़कर उनकी स्तुति कर रहे हैं- -क्रमशः (हिफी)