अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

अपराध व अपराध का विचार दोनों पाप

अष्टावक्र गीता-30

 

अष्टावक्र कहते हैं कि अपराध करना ही पाप नहीं है, अपराध का विचार आना भी पाप है। ये एक सिक्के के दो पहलू हैं। इन्हें छोड़ने से ही मोक्ष मिलता है।

अष्टावक्र गीता-30

अष्टावक्र ने मूल पर ही चोट कर दी, जड़ को ही उखाड़ फेंकने को कह दिया जिससे वृक्ष पनपे ही नहीं, बीज को ही भुनने की बात कह दी जिससे वृक्ष उगने की सम्भावना ही समाप्त हो जाये। किन्तु लोग हैं बड़े चालाक। अहंकार तो छोड़ते नहीं जो सभी बुराइयों का मूल है, वासना और आसक्ति छोड़ते नहीं और छोड़ने के नाम पर कोई चाय छोड़ रहा है, कोई रात्रि का भोजन छोड़ रहा है, कोई घरबार छोड़ रहा है, कोई दान दे रहा है, मन्दिर, धर्मशालाएँ बनवा रहा है, कोई मंदिर जाकर 5 पैसे भेंट करता है, कोई नारियल-अगरबत्ती चढ़ाता है। धर्म के नाम से न जाने क्या-क्या मनुष्य कर रहा है किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि इन सबके पीछे यदि ‘मैं’ भाव है कि मैंने ऐसा किया, इन सबके पीछे यदि कुछ पाने की इच्छा है तो ये सब मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। दुनियाँ में सभी भोग से लिप्त हैं, ‘मैं’ भाव छूटा नहीं, वासना, आसक्ति छूटी नहीं इसलिए सब भोगवादी पूरे के पूरे चार्वाकी हैं। ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्’ ही सबका आदर्श है। आज यदि ऋण आदर्श नहीं है तो चोरी, डकैती, हत्या, बेईमानी, रिश्वतखोरी, धोखा देकर धन हड़पना, गबन करना, मिलावट करना, शोषण करना आदि द्वारा दूसरों का धन हड़पकर गुलछर्रे उड़ाना ही जीवन का आदर्श बन गया है। चार्वाक सच्चा तो था कि उसने संसार की वास्तविकता को प्रकट कर दिया कि यह संसार ऐसा है किन्तु लोग इतने बेईमान हैं कि इस असलियत को छिपाकर धर्म का झूठा मुखौटा लगाये घूमते हैं कि लोग हमें धार्मिक कह देना मूर्खता ही है। गीता, कुरान, बाइबिल, गुरुवाणी, धम्मपद आदि के आधार पर कोई कहे कि मैं इसे मानता हूँ, इसे पढ़ता हूँ इसलिए धार्मिक हूँ यह मूर्खतापूर्ण एवं पाखण्डयुक्त है। धर्म है स्वयं के रूपान्तरण में । जो धार्मिक जीवन जी रहा है वही धार्मिक है अन्य कोई नहीं। चोर अचैर्य का सिद्धान्त लेकर चलता है, हिंसक अहिंसा परमोधर्मः की तख्ती लटका लेता है, भोगी निष्काम कर्मयोग की बातें करता है, अष्टावक्र कहते हैं कि अहंकार के रहते जो भी कुछ किया जायेगा वह पाप ही होगा। इससे तो चार्वाक की भाँति भोग को स्वीकार कर लेना अधिक सत्यता है, वह धर्म के अधिक निकट है। इसलिए चार्वाक को ऋषि कहा गया। असत्य को भी यदि स्वीकार कर लिया तो वह साक्षी बन जाता है, एवं सत्य के साथ भी धोखा किया जाये तो वह नरक का द्वार ही है। क्रोध, काम आदि भीतर से उठने वाली तरंगें हैं इनको साक्षी भाव से देखने पर ये अपने आप लीन हो जायेंगी। संसार में जो कुछ हो रहा है अपने स्वभाव से हो रहा है। अतः भोग और मोक्ष दोनों से अलग होकर साक्षी हो जाना ही मोक्ष है। यह सब अहंकार गिरने से, ‘मैं’ भाव के गिरने से होगा अन्यथा नहीं। यही अष्टावक्र का उपदेश है।
नवाँ प्रकरण
(संसार की उपेक्षा कर अपने स्वभाव में स्थित होना ही मुक्ति है)

सूत्र: 1
कृताकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा।
एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भव त्यागपरोऽव्रती।। 1।।
अर्थात: अष्टावक्र जी आगे कहते हैं-‘‘किया और अनकिया कर्म और द्वन्द्व किसके कब शान्त हुए हैं? इस प्रकार निश्चिन्त जानकर इस संसार से निर्वेद (उदासीन) होकर त्याग और अव्रती हो।।’’
व्याख्या: आठवें प्रकरण में अष्टावक्र बन्ध व मोक्ष की व्याख्या करके इस प्रकरण में वे शान्ति का उपाय बताते हुए कहते हैं कि संसार के प्रति उदासीन होकर या उसकी उपेक्षा कर अपने स्वभाव (आत्मा) में स्थित हो जाने से ही शान्ति उपलब्ध होगी, अन्यथा नहीं। वे कहते हैं कि जो कर्म किये जा चुके हैं, वे वासना एवं अहंकार से किये गये हैं अतः उनका तो फल भोगना ही पड़ेगा। उनसे छूटने का कोई उपाय नहीं है। ये बिना भोगे शान्त नहीं हो सकते अतः ये तो बन्धन हैं ही किन्तु जो कर्म अभी नहीं किये गये हैं वे भी बन्धन हैं क्योंकि उनके करने की वासना भीतर विद्यमान है, विचार भीतर विद्यमान है। मनुष्य कर्मों से अधिक अशान्त नहीं है, किन्तु विचारों का महत्व सर्वाधिक है क्योंकि वे ही कर्म के कारण हैं। विचारों की तरंग उठते ही भीतर मलिनता प्रविष्ट हो जाती है। यही पाप हो गया, यही बन्धन बन गया, उपद्रव शुरू हो गया। अपराध करना ही पाप नहीं है, अपराध के विचार आना ही पाप है क्योंकि ये विचार ही मनुष्य को पापी बना देते हैं। इसी से मनुष्य सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, ग्रहण-त्याग, राग-विराग, जीवन-मृत्यु आदि द्वन्द्वों के आधार पर ही चलता है। संसार की गति ही द्वन्द्वात्मक है। ये द्वन्द्व एक ही सिक्के के दो पक्ष की भाँति हैं जिनमें एक का ग्रहण व दूसरे का त्याग किया ही नहीं जा सकता। या तो दोनों रहेंगे या दोनों नहीं रहेंगे। अष्टावक्र इसीलिए कहते हैं ये किये और अनकिये कर्म तथा द्वन्द्व किसी के शान्त नहीं हो सकते, ऐसा निश्चित जानकर इस संसार के प्रति उदासीन होकर त्याग परायण और अव्रती होना ही शान्ति प्राप्त करने का तरीका है। व्रत ले-लेकर, कसमें खा-खा कर, इनको छोड़ने के प्रयास से मनुष्य और अशान्त होता है। जो है उसको भोगने में तो अशान्ति है ही, उनको छोड़ने की जिद से और नई अशािन्त पैदा हो जाती है। इन दोनों प्रकार की अशान्ति को दूर करने का एक ही उपाय है कि स्वाभाविक रूप से जो हो रहा है उसी स्वीकार करना एवं अनाग्रह पूर्वक जीवन जीना।

सूत्र: 2
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमंगता।। 2।।
अर्थात: हे तात! लोक की चेष्टा (व्यवहार, उत्पत्ति और विनाश) को देखकर किसी भाग्यशाली की ही जीने की कामना, भोगने की वासना और ज्ञान की इच्छा शान्त हुई है।
व्याख्या: आत्मा निर्दोष है, ज्ञानमय है, उत्पत्ति और विनाश से रहित है, शान्त है, आनन्दमय है किन्तु लोक-चेष्टा इससे भिन्न है। लोक की उत्पत्ति है, विनाश है, वह द्वन्द्वात्मक है, इसमें वासना है, कामना है, भोग है। यह अनित्य है, सदोष है, अज्ञानजनक है, अशान्त है, दुःखमय है किन्तु उस परमानन्द स्वरूप आत्मा के अज्ञान के कारण ही इस लोक में संसारी की जीने की कामना, भोगने की वासना एवं इस संसारी ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा कभी शान्त नहीं होती। वह इस लोक में अधिक से अधिक पाने एवं भोगने की इच्छा करता है, वह इसी में सभी सुख मानता है किन्तु जिसने आत्मतत्व का स्वाद चख लिया उसे ये संसारी भोग, वासनाएँ, जीने की इच्छाएँ, इसका ज्ञान सब अनित्य एवं क्षणिक तथा सदोष ज्ञात होने लगता है इसलिए वह संसार के प्रति उदासीन हो जाता है, उसे संसार से वैराग्य हो जाता है क्योंकि उसे परमानन्द का स्थाई, नित्य, निर्दोष सुख प्राप्त हो गया। फिर वह क्षणिक की इच्छा नहीं करता। अष्टावक्र कहते हैं कि आत्म अज्ञान के कारण ही संसारी की इस लोक में जीने की कामना, भोगने की वासना एवं ज्ञान की इच्छा कभी शान्त नहीं होती। हजारों में से कोई एक-आध ही ऐसा भाग्यशाली होता है जिसे इस आत्मसुख की उपलब्धि होती है और उसी की ये सब सांसारिक वासनाएँ शान्त होती हैं।

अन्य की नहीं। ऐसे व्यक्ति को ही संसार से वैराग्य होता तो ये नंगे-भूखे व भिखारी सभी वैरागी कहलाने के
अधिकारी होते। निश्चित ही आत्मज्ञानी ही वैराग्यवान है एवं वही जीवन-मुक्त है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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