Uncategorized

वस्तु को अपने स्वरूप में देखना ही ज्ञान

अष्टावक्र गीता-32

 

अष्टावक्र कहते हैं वासना के कारण सृष्टि भूत मात्र न दिखकर अन्य प्रकार की दिख रही है। यही बंधन है। वस्तु को अपने स्वरूप में देखना ही ज्ञान है। बंधन मुक्ति के लिए केवल दृष्टि परिवर्तन करना है।

अष्टावक्र गीता-32

सूत्र: 6
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः।
निर्वेदसमतायुक्त्वा यस्तारयति संसृतेः।। 6।।
अर्थात: जो उपेक्षा, समता और युक्ति द्वारा चैतन्य के सच्चे स्वरूप को जानकर संसार में अपने को तारता है, क्या वह गुरु नहीं है?
व्याख्या: पूर्व में कहा गया है कि ज्ञान-प्राप्ति के लिए शिष्य की पात्रता ही मुख्य है, गुरू गौण है। गुरु की केवल उपस्थिति आवश्यक है जिससे घटना घटती है। गुरू कुछ करता नहीं व न ज्ञान दे सकता है, न मुक्ति अपितु शिष्य की पात्रता ही इसका कारण होती है किन्तु गुरू की उपस्थिति के बिना यदि घटना घटती है तो वह उससे सम्भल नहीं सकता। उस स्थिति में गुरू ही सम्भालता है। किन्तु आत्मज्ञान हो जाने पर वह शिष्य स्वयं गुरू हो जाता है। वास्तविक गुरू तो भीतर बैठा आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं। इसलिए यह बाह्य गुरू निमित्त मात्र होता है एवं आत्मज्ञान के पूर्व ही उसकी आवश्यकता होती है। बाद में स्वयं का भीतरी गुरू प्रकट हो जाने पर इस बाह्य गुरू का भी त्यागकर देना चहिए जैसे अन्य विधि-विधान, शास्त्र, धर्म, सम्प्रदाय, जाति आदि का त्याग किया जाता है, यहाँ तक कि मूर्ति-पूजा, कर्मकाण्ड, साकार-उपासना आदि का एवं ईश्वर का भी त्यागकर देना चाहिए वरना वे भी बन्धन बन जाते हैं जैसे रामकृष्ण ने काली का त्याग किया था, शंकराचार्य इसीलिए ईश्वर को भी माया कहकर त्याग करने की बात कहते हैं, बुद्ध ने आत्मा के भी त्याग की बात कही है। इसी प्रकार स्वयं का गुरू प्राप्त होने पर इस बाह्य गुरू का भी त्याग आवश्यक है वरना जो गुरू मुक्त कराता है वही बाद में बन्धन बन जाता है। आत्मा ही हमारा सच्चा गुरू है। बुद्ध इसीलिए कहते हैं, ‘अपना प्रकाश स्वयं बनो’ (अप्प दीपो भव) दूसरों के दीपक से काम नहीं चलेगा। अष्टावक्र कहते हैं कि जो किसी भी विधि से, चाहे वह उपेक्षा की हो अथवा समता की, चाहे इन संसारी द्वन्द्वों की उपेक्षा कर दी जाय अथवा इनको समान मान लिया जाय, कृष्ण ने समता की बात कही है, ‘सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ’ (सुख-दुःख, लाभ-हानि एवं जय-पराजय को समान मानकर) अथवा किसी अन्य युक्ति से जिसने अपने चैतन्य स्वरूप को जान लिया है वही अपने को संसार से तार लेता है एवं ऐसा ज्ञानी स्वयं ही गुरू है। फिर उसे अन्य गुरू की आवश्यकता नहीं है। जैसे किनारे लगने पर नाव का त्याग किया जाता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आत्मज्ञान के पहले भी गुरू नहीं होना चाहिए किन्तु वह गुरू भी आत्मज्ञानी ही हो सकता है, अन्य कोई, न गुरू हो सकता है, न दूसरे को मार्ग दिखा सकता है। अज्ञानी उप गुरू तो हो सकता है, शिक्षक भी हो सकता है किन्तु वह गुरू नहीं कहला सकता।

सूत्र: 7
पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथार्थतः।
तत्क्षणाद् बन्धनिर्मुक्तः स्वरूपस्थो भविष्यसि।। 7।।
अर्थात: जब भूत-विकारों को (देह, इन्द्रिय आदि) तू यथार्थतः भूतमात्र देखेगा-उसी क्षण बन्ध से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जायेगा।
व्याख्या: मनुष्य का वास्तविक स्वरूप चैतन्य आत्मा है। यह भूत-सृष्टि उसका विकार मात्र है, उसका विकृत स्वरूप है। मनुष्य की जैसी दृष्टि होती है वैसी ही यह सृष्टि दिखाई देती है। ज्ञान के अभाव में यह सत्य एवं आकर्षक प्रतीत होती है इसका कारण है हमारी इच्छाएँ, वासनाएँ, हमारे हित इससे जुड़े हैं इसलिए इसका यही स्वरूप हमें दिखाई नहीं देता। हम उसकी उपयोगिता को दृष्टि में रखकर देखते हैं। जो हमारे लिये उपयोगी है, हमारी इच्छाओं और वासनाओं को पूरा करती है जिससे हमारा हित होता है, उसे हम श्रेष्ठ समझते हैं व दूसरों को व्यर्थ। इसलिए हमारी स्त्री, हमारे बच्चे, हमारा घर, हमारा खेत आदि के साथ हमारे स्वार्थ व वासनाएँ, कामनाएँ, अपेक्षाएँ जुड़ी होने से हमें जितने अच्छे लगते हैं उतने दूसरे नहीं किन्तु यह उनका वास्तविक स्वरूप नहीं है। यह उन पर हमारे मन का ही प्रक्षेपण है अन्यथा व्यक्ति-व्यक्ति में, वस्तु-वस्तु में भेद नहीं है। अष्टावक्र कहते हैं कि संसार में यह समस्त भूत, सृष्टि, इन्द्रिय, देह आदि उस चैतन्य आत्मा का विकार है। इसे तू चैतन्य से भिन्न भूतमात्र देखेगा उसी क्षण तू बन्ध से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जायेगा। वासना के कारण यह सृष्टि भूतमात्र न दिखाई देकर अन्य प्रकार की दिखाई दे रही है। यही बन्ध है। अतः इस बन्धन-मुक्ति के लिए केवल दृष्टि-परिवर्तन करना है। वस्तु को अपने स्वरूप में देखना ही ज्ञान है।

सूत्र: 8
वासना एव संसार इति सर्वा विमुच्ञ ताः।
तत् त्यागो वासनात्यागात् स्थितिरद्य यथा तथा।। 8।।
अर्थात: वासना ही संसार है इसलिए इन सब (वासनाओं का) का त्यागकर। वासना के त्याग से ही संसार का त्याग है। अब जहाँ चाहे वहाँ रहे।
व्याख्या: इसी को स्पष्ट करते हुए अष्टावक्र कहते हैं कि यह संसार भूत मात्र है किन्तु हमारी वासना के कारण ही यह हमें सत्य दिखाई देता है अन्यथा है मिथ्या, सारहीन। इसलिए वासना ही संसार है एवं वासनाओं के त्याग से ही संसार-त्याग हो जायेगा। संसार तो जैसा है वैसा ही रहेगा किन्तु तू इससे मुक्त हो जायेगा, वासना के कारण ही यह संसार तेरा बन्धन है। इसने तुझे बाँधा नहीं है, अपनी वासना के कारण तू खुद ही इससे बँध गया है। अपनी वासना पूर्ति हेतु तथा अनेकों प्रकार की अपेक्षाओं के कारण ही तू स्त्री, पुत्र, घर-गृहस्थी, परिवार, समाज आदि से बँधा है। जिस क्षण वासना एवं अपेक्षाओं का त्याग कर दिया उसी क्षण तू मुक्त ही है। तुझे मुक्त होने के लिए कहीं घर छोड़कर जंगल भागना नहीं पड़ेगा, पत्नी, बच्चे, परिवार, समाज आदि कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ेगा। वासना यदि छूट गई तो फिर तू जहाँ चाहे वहाँ रह। वासना के रहते तू हिमालय की गुफा में जाकर रहेगा तो भी संसार में ही है। वहाँ भी मुक्त नहीं है। अष्टावक्र सभी प्रकार की वासना की बात कह रहे हैं चाहे वह लोक-वासना हो या शास्त्र-वासना अथवा शरीर-वासना। शरीर एवं शास्त्र-वासना का भी त्याग करने से आत्मज्ञान हो जाता है किन्तु अन्त में आत्मा, ईश्वर आदि के भी त्याग से ही मुक्ति होती है। यह शुद्ध वासना या अहंकार है जिसके मुक्त होने से ही परम मुक्ति या निर्वाण है। इसलिए बुद्ध ने आत्मा को भी असत्य कहा है। यह परम नहीं है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button