
अष्टावक्र राजा जनक को समझाते हैं कि आत्मा आज जिस शरीर में है, कल दूसरे मंे चली जाएगी। इसलिए उसका कोई शरीर नहीं है। यह बात जो समझ जाता है, उसका शरीर से मोह छूट जाता है, वह कैवल्य हो जाता है।
अष्टावक्र गीता-37
सूत्र: 6
नाहं देहो न मे देहो
बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्।। 6।।
अर्थात: मैं शरीर नहीं हूँ, देह मेरी नहीं है, मैं तो बोध स्वरूप (चैतन्य) हूँ, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है वह पुरुष कैवल्य को प्राप्त होकर किए और अनकिये कर्म का स्मरण नहीं करता।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि जो आत्मज्ञान को उपलब्ध हो गया है वह अपने को निश्चय ही बोध स्वरूप चैतन्य आत्मा ही समझता है। उसका शरीर से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है इसलिए ऐसा ज्ञानी कहता है-‘मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ।’ आत्मा का कोई शरीर नहीं होने से वह कहता है, ‘मेरा शरीर नहीं है’। ज्ञानी ही ऐसा निश्चर्य पूर्वक जानता है जिससे वह कैवल्य को प्राप्त हो जाता है। कैवल्य को प्राप्त हुआ ज्ञानी अपने को आत्म स्वरूप मानता है जिससे वह किये और अनकिये कर्मों का स्मरण नहीं करता क्यांेकि जो कर्म किये गये हैं वे शरीर द्वारा किये गये हैं जो अनकिये रह गये हैं, केवल विचारों तक ही सीमित रह गये हैं वे मन की सीमा में आते हैं। दोनों का आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं होने से वह उनका स्मरण नहीं करता।
सूत्र: 7
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तमहमेवेति निश्चयी।
निर्विकल्पः शुचिः शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृतः।। 7।।
अर्थात: ब्रह्म से लेकर तृण पर्यन्त ‘मैं ही हूँ’ ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है वह निर्विकार, शुद्ध, शान्त और प्राप्त-अप्राप्त से निवृत्त (मुक्त) होता है।
व्याख्या: अज्ञानी शरीरों को देखता है, पदार्थों को देखता है, इसलिए उसे भिन्नताएँ दिखाई देती हैं किन्तु ज्ञानी इस सम्पूर्ण सृष्टि के मूल तत्व ब्रह्म को, आत्मा को देखता है जिससे इस सृष्टि का अस्तित्व है इसलिए उसे सम्पूर्ण सृष्टि में एकता दिखाई देती है, एक साम्य दिखाई देता है। जिसने आत्मा को जान लिया वह आत्म रूप ही हो जाता है, वह सम्पूर्ण सत्ता को अपनी ही सत्ता समझने लगता है, भिन्न-भिन्न शरीरों एवं भिन्न-भिन्न आत्माओं का अज्ञान समाप्त हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि जिस ज्ञानी को ऐसा निश्चय हो जाता है कि मैं आत्मा हूँ और ब्रह्म से लेकर तृण पर्यन्त मेरा ही (आत्मा का ही) विस्तार है। मैं एक और अद्वय हूँ, यह सृष्टि मेरी नहीं बल्कि में ही सृष्टि हूँ, मेरे से भिन्न कुछ है ही नहीं। ऐसा व्यक्ति निर्विकल्प हो जाता है। दूसरा कोई विकल्प रहता ही नहीं। वही व्यक्ति शान्त और शुद्ध हो जाता है, निखालिस स्वर्ण हो जाता है। जितनी विकृति, विजातीय अशुद्धता थी सब दूर हो गई। अब ऐसा व्यक्ति प्राप्त से भी मोह नहीं करता, न अप्राप्त की चिन्ता करता है। दोनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति ही कह सकता है कि ‘सब कुछ मेरा है अथवा मेरा कुछ भी नहीं है।’ यही ज्ञानी की स्थिति है। यही मुक्ति है।
सूत्र: 8
सुखदुःखे जन्ममृत्यु दैवादेवति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किच्ञदिव शाम्यति।। 8।।
अर्थात: अनेक आश्चर्यों वाला वह विश्व कुछ भी नहीं है अर्थात्् मिथ्या है ऐसा जो निश्चर्यपूर्वक जानता है वह वासना रहित, बोध-स्वरूप पुरुष इस प्रकार शान्ति को प्राप्त है मानो कुछ भी नहीं है।
व्याख्या: जिसने शाश्वत को जान लिया वह क्षणभंगुर में रुचि नहीं लेता, जिसने परम को जान लिया वह क्षुद्र में मोहित नहीं हो सकता, जो अद्वैत के परमानन्द में मग्न हो गया वह द्वैत के अशान्त, दुःखमय एवं क्लेशयुक्त घेरे से बाहर हो जाता है। फिर उसकी इस क्षणिक एवं नाशवान् संसार के प्रति वासना, आसक्ति, आदि सब कुछ छूट जाती है एवं वह परमशान्ति को उपलब्ध हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि यद्यपि यह संसार अनेक आश्चर्यों वाला है किन्तु आत्मानन्द के सामने कुछ भी नहीं है, मिथ्या है, रसहीन है। बोध-स्वरूप आत्मज्ञानी ऐसा निश्चयपूर्वक जानता है इसलिए वह संसार को मिथ्या समझकर शान्ति को प्राप्त होता है। संसार में सत्य, आनन्द, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि को जो अनुभव होता है वह सब मनुष्य की वासना एवं अहंकार की तुष्टि होती है, वह सुखपूर्ण ज्ञात होता है, विपरीत होने पर दुःख होता है किन्तु सृष्टि अपने नियमों से चलती है। उसे हर मनुष्य के सुख-दुःख की चिन्ता नहीं है। मनुष्य अपने को उन नियमों के अनुकूल बनाकर सुखी हो सकता है एवं विपरीत जाने पर टूटता है, कष्ट पाता है। आत्मज्ञानी इस रहस्य को जान लेता है जिससे वह सृष्टि के नियमों के अनुकूल व्यवहार करता हुआ सृष्टि की अवहेलना उपेक्षा करता है, उन्हें मिथ्या एवं तथ्यहीन, असत्य समझने लगता है। इसी से उसे शान्ति प्राप्त होती है। इसके विपरीत संसारी मनुष्य आदि नियमों में उलझकर अशान्ति को ही प्राप्त होता है। ज्ञानी एवं अज्ञानी की दृष्टि में यही अन्तर होता है। सृष्टि के नियमों को जान लेना ही ज्ञान है एवं इन्हें नहीं जान पाना ही अज्ञान है। इसलिए ज्ञान से ही अज्ञान मिटता है, भ्रान्ति दूर होती है, सत्य उपलब्ध होता है, शान्ति प्राप्त होती है। अज्ञान से लड़ना वह उसे सीधा हटाने का प्रयत्न करना बिना दीपक जलाये अँधेरे को हटाने के प्रयत्न करने के समान है। यह भागने से नहीं जागने से होगा, त्याग से नहीं, उपलब्धि से होगा। अष्टावक्र जैसा ऊँचा वक्तव्य कोई नहीं दे सका। सार भूत में अन्तिम क्रान्तिकारी बात कह दी।
बारहवाँ प्रकरण
(अपने स्वभाव को प्राप्त हो जाना ही परम स्थिति है)
सूत्र: 1
कायकृत्यासहः पूर्व ततो वाग्विस्तरासहः।
अथ चिन्तासहस्त
स्मादेवमेवाहमास्थितः।। 1।।
अर्थात: राजा जनक आत्मज्ञान के बाद हुई अनुभूतियों का वर्णन अष्टावक्र जी के सामने करते हुए कहते हैं-‘पहले मैं शारीरिक कर्मों का न सहारने वाला हुआ, फिर वाणी के विस्तृत कर्म का न सहारने वाला हुआ। इस प्रकार मैं स्थिर हूँ।’
व्याख्या: अष्टावक्र और जनक दोनों ज्ञानियों में परस्पर बड़ा मधुर सम्वाद चल रहा है। दोनों को एक ही अनुभूति हुई जिससे सम्वाद सम्भव हुआ। एक ज्ञानी और एक अज्ञानी में विवाद तो हो सकता है, सम्वाद सम्भव नहीं है, दो अज्ञानियों में परस्पर विवाद भी सम्भव नहीं होता, झगड़ा ही होगा। अष्टावक्र के उपदेश से जनक आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए। अब वे अपनी उपलब्धि के क्रम का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वासना के कारण चित्त में तरंगें उठती हैं जिससे मन में विचारों की, संकल्प-विकल्प की उथल-पुथल आरम्भ होती है। ये ही विचार वाणी एवं शारीरिक क्रियाओं में प्रकट होते हैं। इन सबका निरोध करने से ही आत्मज्ञान होता है। पतंजलि कहते हैं, ‘चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।’ गीता में कहा गया है ‘यह मन कठिनाई से ही वश में आता है।’ ़-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)