
राजा जनक कहते हैं कि बोध से आत्मज्ञान हो सकता है और जिसमें बोध नहीं है उसी को ध्यान, धारण व समाधि आदि का आश्रय लेना पड़ता है। इसीलिए मेरा मन मुक्त है।
अष्टावक्र गीता-38
पतंजलि कहते हैं कि ‘अभ्यास और वैराग्य से चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है।’ अतः अभ्यास और वैराग्य आत्मज्ञान के लिए परमावश्यक है। जनक कहते हैं पहले मैंने शारीरिक कर्मों का निरोध किया फिर वाणी के कर्मों का निरोध किया और फिर मानसिक कर्मों का भी निरोध किया। इस प्रकार मैं आत्मज्ञान को उपलब्ध होकर अब आत्मा में ही स्थित हूँ। शरीर और इन्द्रियों से जो कर्म किये जाते हैं उनके साथ फलाकांक्षा, आशा-निराशा, लाभ-हानि, सुख-दुःख, एवं अनेक अपेक्षाएँ जुड़ी रहती हैं जिनसे मन में विक्षेप उत्पन्न होते हैं। इनके निरोध के लिए जप, तप, यज्ञ, आसन, हठयोग आदि शारीरिक कर्मों को करते हैं जिससे और नये विक्षेप आरम्भ हो जाते हैं। यदि शारीरिक कर्मों को रोक भी दिया जाये तो भी वाणी के कर्म चलते रहते हैं। भजन-कीर्तन, मन्त्रोच्चारण, प्रवचन, उपदेश, अखण्ड-पाठ आदि कुछ न कुछ चलता रहता है। इनके रोक देने पर भी मन में अनेक संकल्प-विकल्प, विचार आदि चलते रहते हैं। ये तीनों प्रकार के कर्म जब तक शान्त नहीं होते तब तक चित्त शान्त नहीं होता एवं चित्त के शान्त हुए बिना आत्मज्ञान नहीं होता। इन तीनों के निरोध का मात्र उपाय इतना है कि इनके प्रति उपेक्षा रखना। कर्म से कर्म को रोकने के प्रयत्न में नये कर्म उत्पन्न हो जाते हैं। अतः अपेक्षा, उदासीन होना, दृष्टा होना ही मार्ग है। शरीर, मन और वाणी के कर्म अपने आप होते हैं, स्वभाव से होते हैं, नींद और बेहोशी में भी शरीर का कार्य बन्द नहीं होता, स्वप्न में भी मन का कार्य चलता रहता है, शरीर भी अपने आप चलता है, सारी क्रियाएँ प्राकृतिक हैं। इसी प्रकार मन एवं वाणी की क्रियाएँ भी स्वभाव से होती हैं। रोकने के प्रयत्न से ये ज्यादा उग्ररूप से चलने लगती हैं। अतः अपने को इन सबसे अलग करके दृष्टा रूप होकर साक्षी भाव से देखने से इनका निरोध हो जाता है जिससे इनसे मुक्त हो जाते हैं। अपने को कत्र्तापन से हटा लेना ही मार्ग है। इसी से चित्त स्थिर व शान्त हो सकता है। यही वीतरागता है। मित्र-शत्रु, प्रशंसा-निन्दा, त्याग-ग्रहण, राग-विराग, सभी उपद्रव हैं, दोनों में ही रस है, आसक्ति है। ग्रहण में आसक्ति है तो त्याग भी आसक्ति ही है, शत्रु, निन्दा, विराग भी उल्टी आसक्ति है। इसलिए जनक कहते हैं कि मैं तीनों प्रकार के कर्मों का न सहारने वाला हुआ, इस प्रकार अब मैं चैतन्य आत्मा में स्थित हूँ।
सूत्र: 2
प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यतवेन चात्मनः।
विक्षेपैकाग्रहृदय एवमेवाहमास्थितः।। 2।।
अर्थात: शब्द आदि ऐन्द्रिक विषयों के प्रति राग के अभाव से और आत्मा की अदृश्यता से प्राप्त विक्षेपों से जिसका मन मुक्त होकर एकाग्र हो गया-ऐसा ही मैं स्थित हूँ।
व्याख्या: मन में वासनाएँ हैं उनकी पूर्ति वह शरीर के माध्यम से करता है। शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन ज्ञानेन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि विषय हैं जिनका इन्द्रियों के माध्यम से सेवन कर मन तुष्ट होता है। इसी से राग पैदा होता है एवं बार-बार भोगने की इच्छा होती है यह मन स्वयं एक उपद्रव है। यह, न भोगने से शान्त होता है, न भोगों के त्याग से। शारीरिक भोग बन्द करने पर वाणी के भोग चलते रहते हैं, वाणी के बन्द करने पर मानसिक भोग चलते रहते हैं। मन भोग और त्याग दोनों से ही अशान्त बना रहता है, उसमें विक्षेप निरन्तर चलते रहते हैं क्योंकि इसका मूल वासना है जो भीतर विद्यमान है। उसके रहते भोग और त्याग दोनों व्यर्थ हो जाते हैं। मन को शान्त करने के लिए जो जप, तप, यज्ञ, कर्मकाण्ड आदि किये जाते हैं इनसे नये विक्षेप और पैदा हो जाते हैं। अतः ये दोनों ही कर्म मन को इन विक्षेपों से मुक्त नहीं कर सकते। आत्मा अदृश्य है। वह दिखाई नहीं देती। ध्यान एवं समाधि में भी आत्मा का केवल अनुभव होता है, ज्ञान होता है, बोध होता है। वह दृश्य विषय नहीं है, द्रष्टा है, वही सबको देखने वाली है। इन्द्रियों के समस्त कार्य उसी से हो रहे हैं। शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ हैं, यन्त्रमात्र हैं जो उस आत्मा रूपी चेतन शक्ति से सक्रिय हैं। जड़ पदार्थ चेतन को कैसे देख सकता है। इसलिए जनक को आत्म ज्ञान हो जाने से वे इस स्थिति की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि आत्मा की अदृश्यता से अर्थात् उसके ज्ञान के अभाव से ही शरीर, मन आदि के समस्त विक्षेप होते हैं, आत्म अज्ञान ही समस्त विक्षेपों का कारण है एवं सभी राग इसी अज्ञान से उत्पन्न होते हैं। अतः मुझे आत्म ज्ञान हो जाने से अब मेरे समस्त रागों का अभाव हो गया है तथा आत्मा की अदृश्यता से जो मन में विक्षेप पैदा हुए थे उनसे अब मेरा मन मुक्त होकर एकाग्र हो गया है। अब मैं केवल आत्मा में स्थित हूँ तथा इन विक्षेपों से पार हो गया हूँ। यह आत्मज्ञानी की स्थिति है। शरीर और मन द्वारा किये गये कर्मों से आत्मा अस्पर्श रहती है। इसीलिए आत्मज्ञानी पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ आदि कर्मों से सर्वदा मुक्त रहता है। वह अच्छे-बुरे कर्मों का न कत्र्ता है, न उनके फलों का भोक्ता।
सूत्र: 3
समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये।
एवं विलोक्य नियममेवमेवाहमास्थितः।। 3।।
अर्थात: सम्यक् अध्यास आदि के कारण विक्षेप होने पर ही समाधि का व्यवहार होता है। ऐसे नियम को देखकर समाधिरहित मैं स्थित हूँ।
व्याख्या: आत्मा के अज्ञान के कारण ही मनुष्य मन, शरीर, बुद्धि व इन्द्रियों का दास हो जाता है, वह भोगों में ही रुचि लेता है जिससे अनेक प्रकार के विक्षेप पैदा होते हैं। ये सारे विक्षेप अध्यासमात्र हैं, भ्रममात्र हैं, अज्ञानवश होते हैं। ये अन्धकारवत् हैं। आत्मज्ञान के प्रकाश में ही सत्य और मिथ्या, तथ्य एवं भ्रान्ति, विवेक और मूढ़ता का पता चलता है। इस अज्ञान को दूर करने एवं आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए लोग समाधि का व्यवहार करते हैं। आत्मा का ज्ञान समाधि अवस्था में ही होता है किन्तु जनक आत्म ज्ञान को उपलब्ध हो गये इसलिए वे इन सबको साक्षी भाव से देख रहे हैं। वे अब समाधि रहित होकर आत्मा में ही स्थित हो गये हैं। अब उन्हें समाधि की भी आवश्यकता नहीं है। साध्य प्राप्त होने पर साधन अपने आप छूट जाते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि अज्ञान के कारण ही विक्षेप होते हैं जिससे समाधि का व्यवहार किया जाता है किन्तु मैं आत्मस्वरूप हूँ इसलिए समाधि रहित होकर इस नियम को देख मात्र रहा हूँ। अब मुझे इस नियम के पालन की आवश्यकता नहीं है। अब मैं आत्मानन्द में स्थित हूँ। इसका सार इतना ही है कि आत्मज्ञान बोध से हो सकता है। जिसमें बोध नहीं है उसी को ध्यान, धारणा, समाधि आदि का व्यवहार करना पड़ता है अन्यथा यह आवश्यक नहीं है। आत्मज्ञान के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है कि यह समाधि के बिना होगा ही नहीं, अहिंसा, सत्य, दया, करुणा आदि के बिना होगा ही नहीं। आत्मा तो सदा उपलब्ध ही है। जागकर देखना मात्र है। दृष्टि पर्याप्त है। क्रिया आवश्यक नहीं है। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)