अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

मन की चंचलता को करें शांत

अष्टावक्र गीता-42

 

राजा जनक कहते हैं कि चित्त की चंचलता को पूरी तरह से शांत करना जरूरी है। इससे संसार स्वरूप वासना का बीज नष्ट हो जाता है और मनुष्य को कैवल्य पद प्राप्त होता है।

अष्टावक्र गीता-42

सूत्र: 6
स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न वा।
नाशोल्लासौ विहायास्मादहमासे यथासुखम्।। 6।।
अर्थात: सोते हुए मुझे हानि नहीं है, न यत्न करते हुए मुझे सिद्धि है। इसलिए मैं हानि-लाभ दोनों को छोड़कर सुखपूर्वक स्थित हूँ।
व्याख्या: इसी क्रम में जनक कहते हैं कि मेरे सारे कर्म अब स्वभाव से अपने आप हो रहे हैं। प्रकृति के विरुद्ध कोई कर्म नहीं हो रहा है। अब मुझे सोने में भी हानि नहीं है। नींद लगना स्वभाव है तो मैं सो जाता हूँ। स्वभाव के विरुद्ध जागता भी नहीं। ऐसा नहीं सोचता कि सोने से मुझ हानि हो जाएगी, काम बिगड़ जाएगा, घाटा हो जाएगा आदि। न मैं समझता हूँ कि बहुत यत्न करने से बड़ी सिद्धि मिल जाएगी। स्वभाव से जितना आवश्यक एवं अनिवार्य है उतना लाभ-हानि की चिन्ता एवं उद्देश्य-निर्धारण ही अशान्ति का कारण है। ज्ञानी इनसे पार हो जाता है जिससे उसे परमशान्ति मिल जाती है जबकि संसारी इनसे दुःखी, पीड़ित एवं तनावग्रस्त रहता है।

सूत्र: 7
सुखादिरूपानियमं भावेष्वालोक्य भूरिशः।
शुभाशुभे विहायास्मादहमासे यथासुखम्।। 7।।
अर्थात: इसलिए अनेक परिस्थितियों में सुखादि की अनित्यता को बारम्बार देखकर और शुभ और अशुभ दोनों को छोड़कर मैं सुखपूर्वक स्थित हूँ।
व्याख्या: अज्ञानी संसार में दुःख ही देखता है। उसे संसार में दुःख ही दुःख दिखाई देते हैं। सुख कहीं दिखाई नहीं देते। वह दुःखों को बढ़ाकर एवं सुखों को घटाकर देखने का आदी है। इनके लिए वह सारी सृष्टि, समाज एवं भगवान तक को दोष देता है। दुःखों की निवृत्ति एवं सुख-प्राप्ति हेतु वह अनेक प्रकार के शुभ-अशुभ कर्म करता है। दूसरों को दुःख पहुँचाकर भी स्वयं सुख प्राप्त करना चाहता है। किन्तु जनक कहते हैं कि मैंने अनेक परिस्थितियों में अनेक जन्मों में देख लिया है कि जैसे दुःख अनित्य हैं, सदा रहने वाले नहीं है, नष्ट होंगे ही, वैसे ही सुख भी अनित्य हैं। वे भी शाश्वत नहीं हैं, वे भी नष्ट होंगे। यह सृष्टि का नियम है। मैं आत्मानन्द को उपलब्ध हो गया इसलिए अब मैं इन शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों के पार केवल अपने स्वभाव में सुखपूर्वक स्थित हूँ। अज्ञानी इन द्वन्द्वों के झगड़ों में पड़कर परेशान, चिन्तित, व दुःखी रहते हैं। ज्ञानी इनसे पार हो जाने से सदा आत्मानन्द में स्थित हुआ सुखपूर्वक जीता है। यह अवस्था ही मोक्ष और निर्वाण की अवस्था है।
चैदहवाँ प्रकरण
(साक्षी पुरुष के जान लेने पर मुक्ति की चिन्ता नहीं होती)

सूत्र: 1
प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमादाöावभावनः।
निद्रितो बोधित इव क्षीणसंसरणो हि सः।। 1।।
अर्थात: राजा जनक कहते हैं-‘जो स्वभाव से ही शून्य-चित्त है पर प्रमाद से विषयों की भावना करता है और सोता हुआ भी जागने के समान है-वह पुरुष संसार से मुक्त है।’
व्याख्या: बारहवें एवं तेरहवें प्रकरण में राजा जनक अनुभूति का वर्णन करते हंै कि आत्मा को जान लेने मात्र से सिद्धि नहीं है बल्कि उसे उपलब्ध कर लेना ही सिद्धि है, यही परम पुरुषार्थ है। उपलब्धि के बाद भी चित्त की चंचलता को पूर्णरूपेण शान्त करने के लिए उसमें निरन्तर स्थिर रहना आवश्यक है जिससे अनेक जन्मों के संसार-स्वरूप वासना के बीज को पूर्णतः नष्ट किया जा सके। जब यह बीज ही नष्ट हो जाता है तभी उसे कैवल्य पद प्राप्त होता है। ऐसा व्यक्ति सर्वत्र ही उस अद्वय आत्मा को देखता है। यही आत्मज्ञान की स्थिति है। इस प्रकरण में जनक मुक्ति का वर्णन करते हैं जो आत्मज्ञान के बाद की स्थिति है। आत्मज्ञानी में भी यदि कामना एवं वासना सम्बन्धी थोड़ा सा भी बीज विद्यमान रह गया तो वह फिर समय पाकर प्रस्फुटित हो सकता है। इस बीज का नाश ही मुक्ति है। राजा जनक कहते हैं कि आत्म स्वरूप को उपलब्ध हुआ ज्ञानी स्वभाव से शून्यचित्त वाला होता है। उसके चित्त से समस्त कामना, वासना एवं संस्कार जनित तरंगें शान्त होकर चित्त की चंचलता नष्ट हो चुकी है, अब उसमें संकल्प-विकल्प के विक्षेप नहीं हैं। ऐसी स्थिति को उपलब्ध हुआ ज्ञानी सदैव जाग्रत रहता है। सोते समय केवल शरीर का थोड़ा सा भाग ही सोता है। शरीर की सारी क्रियाएँ यथावत् चलती रहती हैं। नींद में श्वाँस, रक्त प्रवाह, स्नायु संस्थान, मन आदि अपना-अपना कार्य करते रहते हैं। ये सोते ही नहीं। केवल मस्तिष्क का थोड़ा सा भाग ही सोता है, थोड़ा विश्राम लेता है किन्तु चेतना कभी नहीं सोती। वह नींद में भी जाग्रत रहती है। सोना चेतना का स्वभाव ही नहीं है। इसलिए जनक कहते हैं कि मैं आत्म स्वरूप हूँ अतः सोता हुआ प्रतीत होते हुए भी नित्य जाग्रत हूँ। शरीर सोता है, आत्मा कभी नहीं सोती। इस प्रकार आत्मा में स्थित हुआ योगी संसार से मुक्त है। ऐसा पुरुष यदि संसारी विषयों की भावना करता है तो वह वासना एवं आसक्ति से युक्त न होकर प्रमादवश करता है। आत्म ज्ञानी के क्रियमाण कर्म तो बन्द हो जाते हैं क्योंकि वह कत्र्ता नहीं रहता इसलिए उसके कर्म संचित नहीं होते तथा संचित कर्म भी आत्मज्ञान से नष्ट हो जाते हैं क्योंकि कर्मों का सम्बन्ध मन से है वह मन नहीं रहने पर कर्मों का भी क्षय हो जाता है किन्तु प्रारब्ध कर्म जिनसे यह शरीर एवं जीवन मिला है उसे इस जन्म में आत्मज्ञान के बाद भी भोगने ही पड़ते हैं। इनको भोगे बिना मुक्ति नहीं होती। इसलिए आत्मज्ञानी के लिए भी शेष प्रारब्ध कर्मों को भोगना भी अनिवार्य है तभी मुक्ति होती है। यदि उन्हें न भोगा गया तो अनभोगे कर्म फिर अपना प्रभाव दिखाते हैं। इसलिए जनक कहते हैं कि मैं अब विषयों की भावना, वासना से न करके प्रमाद वश, प्रारब्ध होकर करता हूँ। इस जन्म में जो भोग मुझे मजबूरी से भोगने हैं, ईश्वरीय विधान के अनुसार भोगने हैं इसलिए उनकी ही भावना करता हूँ किन्तु अहंकार एवं कत्र्तापन से मुक्त हूँ।

सूत्र: 2
क्व धनानि क्व मित्राणि क्व मे विषयदस्यवः।
क्व शास्त्रं क्व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा।। 2।।
अर्थात: जब मेरी स्पृहा (इच्छा) नष्ट हो गई तब मेरे लिये कहाँ धन, कहाँ मित्र, कहाँ विषय रूपी चोर हैं, कहाँ शास्त्र है, कहाँ ज्ञान है?
व्याख्या: आत्मज्ञान के सुख के अभाव से ही मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक सुख-प्राप्ति हेतु विषयों की ओर प्रवृत्त होता है। उसे यह भ्रान्ति है कि ये विषय ही उसे आनन्द दे सकते हैं किन्तु ये विषय तथा इनसे प्राप्त सुख अनित्य है। ज्ञानी शाश्वत सुख को उपलब्ध हो जाता है फिर उसका इन अनित्य विषयों के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहता। उसकी इन्हें प्राप्त करने की स्पृहा (इच्छा) ही नष्ट हो जाती है। परम के मिलने पर कौन क्षुद्र की इच्छा करता है। धन, मित्र, विषय-भोग, शास्त्र, ज्ञान आदि मनुष्य की वासना पूर्ति के साधन मात्र हैं। जब तक वासना भीतर है तभी तक ये मूल्यवान, महत्वपूर्ण एवं उपयोगी प्रतीत होते हैं, इनमें रस मालूम होता है। यह जीवन एवं संसार वासना की दौड़ मात्र है। मनुष्य दौड़ता ही जाता है किन्तु उपलब्धि से अतृप्त ही रहता है, अतृप्त ही मर जाता है जिससे फिर नये जन्म की दौड़ की शुरुआत होती है। यह वासना अनेक जन्मों में भी शान्त नहीं होती। इसीलिए संसार को मृग-मरीचिका कहा है। यह झूठी है जिसमें मिलने पर भी खालीपन का अनुभव होता है। यह स्पृहा संसार की ही नहीं धर्म की भी होती है। किन्तु स्पृहा न रहने पर ही शून्यचित्त होता है। यही स्थिति आत्म ज्ञान की है, यही परमात्मा का निवास है। जनक कहते हैं कि जब मेरी स्पृहा ही नष्ट हो गई तो मैं शून्यचित्त हो गया, अब मेरे लिए धन, मित्र, विषय, आदि तो क्या शास्त्र और ज्ञान भी अर्थहीन हो गया। अब इनका कोई मूल्य नहीं रहा। ये सब आत्मा की तृप्ति के लिए नहीं थे। केवल मन, शरीर एवं अहंकार-तृप्ति के लिए थे जिनसे ही मैं आत्मानन्द-प्राप्ति से वंचित रहा। इन विषयों ने ही चोर की भाँति मेरी आत्मा को चुराया। अब मैं उसे पुनः प्राप्त कर सुख में स्थित हूँ।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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