अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

आत्मज्ञान की पुष्टि के लिए पुनः उपदेश

अष्टावक्र गीता-44

 

अष्टावक्र जी राजा जनक को आत्मज्ञान की पुष्टि के लिए पुनः उपदेश देते हुए कहते हैं विषयों मंे रस लेना बंधन है और बिरस होना मोक्ष। यही विज्ञान है और तू (राजा जनक) जैसा चाहे, वैसा कर।

अष्टावक्र गीता-44

पन्द्रहवाँ प्रकरण
(यह तत्व-बोध भोग की अभिलाषा रखने वालों के लिए व्यक्त है)
सूत्र: 1
यथा तथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान्।
आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति।। 1।।
अर्थात: सत्व बुद्धि वाला पुरुष थोड़े से उपदेश से ही कृतार्थ होता है। असत् बुद्धि वाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके उसमें मोह को ही प्राप्त होता है।
व्याख्या: राजा जनक को अष्टावक्र आत्मज्ञान की पुष्टि हेतु फिर उपदेश करते हुए कहते हैं कि सत्वबुद्धि वाले पुरुष का अन्तःकरण शुद्ध होता है इसलिए थोड़े से उपदेश से ही उसे आत्मज्ञान हो जाता है किन्तु वासनायुक्त, राग-द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह, घृणा आदि से भरे चित्त को निर्मल करने में काफी समय लगता है, अनेक जन्म भी लग जाते हैं इसलिए ऐसा असत् बुद्धि वाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके भी आत्मज्ञान से वंचित रहता है। उसकी जिज्ञासा केवल बौद्धिक होती है। वह धर्म एवं
अध्यात्म को भी बुद्धि के तल पर ही समझना चाहता है। समझने से, तर्क-वितर्क पैदा होता है, अन्य धर्मों एवं शास्त्रों के अध्ययन से वह कहीं समन्वय बिठाता है, कहीं विरोध देखता है। इस प्रकार अध्ययन के आधार पर वह सत्य को भी बुद्धि द्वारा ही जानना चाहता है जिससे वह पण्डित तो बन सकता है किन्तु ज्ञानी नहीं बन सकता। उसे शास्त्रों से एवं अपने बौद्धिक जानकारी से मोह हो जाता है जिससे वह उपलब्धि से वंचित रह जाता है। यह ज्ञान बुद्धि से परे चेतना का अनुभव है जो ध्यान अथवा समाधि में अथवा बोध से प्राप्त होता है। अन्य भी अनेक विधियाँ हैं किन्तु उसकी एक ही शर्त है सत्व-बुद्धि का होना। मुमुक्षु ही इसका अधिकारी है, जिज्ञासु नहीं। आत्मज्ञान की कोई साधना नहीं है। केवल अज्ञान का जो आवरण है उसे हटाना मात्र है जिसमें लम्बा समय लगता है। इसी अज्ञान से बुद्धि भ्रमित है। इसीलिए साधना द्वारा केवल सत्य-बुद्धि प्राप्त होती है। इसके बाद गुरु के उपदेश से तत्व-बोध होता है। यही साधना एवं उपलब्धि का रहस्य है।

सूत्र: 2
मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रसः।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरू ।। 2।।
अर्थात: विषयों में विरसता मोक्ष है, विषयों में रस बन्ध है। इतना ही विज्ञान है। तू जैसा चाहे वैसा कर।
व्याख्या: तत्व बोध का उपदेश अधिकारी शिष्य को ही दिया जाता है। अनधिकारी को देने से उसे लाभ के बजाय हानि ही अधिक होती है। अधिकारी कौन है इसकी व्याख्या प्रथम सूत्र में अष्टावक्र ने की है कि सत्व बुद्धि वाला ही इसका अधिकारी है, अन्य कोई नहीं। सत्व बुद्धि वाला ही इसे समझकर आत्मसात् कर सकता है, तभी उसे सत्व की अनुभूति होती है। वही अच्छा ग्राहक होता है। चित्त की शून्यावस्था ही ग्राहक बनती है, स्वच्छ काँच में ही प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। अधिकारी की परीक्षा गुरु स्वयं करता है। शिष्य कभी दावा नहीं करता कि मैं अधिकारी हूँ, मैंने इतने उपवास किये हैं, मैंने संसार छोड़ दिया, नग्न रहा, इतने गायत्री पुरश्चरण किये, इतने घण्टे रोज उपासना की, इतना दान दिया, इतना त्याग किया इसलिए मैं आत्मज्ञान का अधिकारी हूँ, मुझे उपदेश दीजिये। गुरु यदि पहचान लेता है कि यह सत्व बुद्धि वाला है तो उसे यह अन्तिम उपदेश देता है जैसा अष्टावक्र ने जनक को दिया जिसे सुनते ही जनक को आत्मज्ञान हो गया। यदि पूर्व में भूमि तैयार न होती तो अष्टावक्र यह उपदेश कभी नहीं देते। वे उन्हें साधना बताते, मन्त्र जप को कहते, अष्टांग-योग बताते, उपासना बताते किन्तु जनक के लिए इसकी उपयोगिता नहीं थी। उनकी पृष्ठभूमि पहले ही से तैयार थी इसलिए घटना उसी क्षण घट गई। अष्टावक्र ने फिर परीक्षा ली जिससे उनको विश्वास हो गया कि जनक को वास्तव में आत्म ज्ञान हो चुका है, भ्रान्ति नहीं हुई है। अब इस प्रकार गुरु दीक्षान्त रूप में, आशीर्वादात्मक प्रवचन कर रहे हैं कि तुम्हें आत्मज्ञान हुआ, तू मुक्त हुआ, अब तू सुखपूर्वक विचर। सार संक्षेप में, सूत्रबद्ध सम्पूर्ण रहस्य को खोलकर रख दिया। ऐसा अनूठा सम्वाद अध्यात्म जगत् में मिलना कठिन है। साँख्य का ऐसा उपदेश अन्यत्र नहीं मिलता। अष्टावक्र के ये सूत्र साधना-सूत्र नहीं हैं, आरम्भ नहीं है बल्कि साधना द्वारा चित्त शुद्ध होने पर दिया गया अन्तिम उपदेश है।

अष्टावक्र कहते हैं कि मोक्ष कोई वस्तु नहीं है जिसे प्राप्त किया जाये, न कोई स्थान है जहाँ पहुँचा जाये, न कोई भोग है जिसे भोगा जा सके, न कोई रस है जिससे आनन्द मिले, न इसकी कोई साधना है, न सिद्धि न त्याग स्वर्ग है न सिद्धशिला पट। विषयों में विरसता ही मोक्ष है। विषयों में रस आता है तो संसार है। उसका कारण मन है। अतः मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। उपनिषद कहते हैं, ‘मन एवं मनुष्याणं कारणां बन्धमोक्षयोः’ (यह मन ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है) यह मन जब विषयों में आसक्त होता है तब बन्ध है, यही संसार की उपस्थिति बन्ध नहीं है, संसार में रहना, खाना-पीना व अन्य कर्म करना भी बन्ध नहीं है बल्कि उनमें रस लेना, उनमें आसक्ति का होना बन्ध है। इनमें विरक्त हो जाना, अनासक्त हो जाना, इनकी उपेक्षा करना ही मुक्ति है। अष्टावक्र कहते हैं इतना ही मोक्ष का विज्ञान का सार है। इसलिए हे जनक! तू इस मोक्ष को प्राप्त हो गया। अब तू जैसा चाहे वैसा कर। अब तेरे लिए संसार में आसक्ति का कोई उपाय नहीं रहा। बीज ही नष्ट हो गया अब आसक्ति की सम्भावना ही नहीं है। शरीर पर राख लपेट लेने से, धूनी रमाने से, संसार को गालियाँ देने से, शरीर को सताने से, उपवास करने से, भोजन के साथ नीम की चटनी खाने से विषयों के प्रति विरसता नहीं आ सकती। इसका मोक्ष से सम्बन्ध नहीं है।

सूत्र: 3
वाग्मिप्राज्ञमहोद्योगं जन मूकजड़ालसम्।
करोति तत्वबोधोऽयमतस्त्यक्तो बभुक्षुभिः ।। 3।।
अर्थात: यह तत्त्व-बोध वाचाल, बुद्धिमान और महाउद्योगी पुरुष को गूंगा, जड़ और आलसी कर जाता है। इसलिए भोग की अभिलाषा रखने वालों के द्वारा तत्त्व-बोध व्यक्त है।
व्याख्या: भोग और मोक्ष दो धुरियां हैं जो विपरीत दिशा की ओर जाती हैं। संसार है भोग एवं उसमें विरसता ही मोक्ष है। दोनों के बीच मन खड़ा है जो कभी भोगों की ओर आकर्षित होता है कभी मोक्ष की ओर। दोनों ओर यह कभी भी नहीं जा सकता। भोगों में रस लेना, उनमें आसक्ति होना, सकाम एवं सोद्देश्य कर्म करना, फलाकांक्षा से कर्म करना संसार है। इसलिए जिसे भोगों में रुचि है, विषयों में रस आता है, उसके लिए यह तत्त्व-बोध जो मुुक्ति के लिए ही है, त्यक्त है क्योंकि मुक्ति में मिलता कुछ नहीं है, छूटता सब है, अनावश्यक सब छूट जाता है, संसार में फिर इसका रस नहीं रहता इसलिए उसका मन फिर विषयभोगों की ओर भागेगा जिससे उसका पतन होगा। ऐसा व्यक्ति फिर न घर का रहता है, न घाट का। वह पाखण्डी, पथभ्रष्ट हो जायेगा। भोग की इच्छा रखने वाला वाचाल होगा, बुद्धिमान्् होगा, महान् उद्योगी होगा, कर्मठ होगा तभी यह भोग सकता है किन्तु आत्मज्ञान होने पर वह गूँगा हो जाता है, बोलने का रस ही समाप्त हो जाता है, वह कर्म के प्रति उदासीन हो जाता है, जड़ एवं आलसी जैसा हो जाता है जिससे उसे और बेचैनी होती है। मन का सारा प्रवाह, उसकी सारी शक्ति चेतना की ओर ही हो जाने से संसार छूट जाता है। इसलिए अष्टावक्र की यह शिक्षा है कि जिसकी संसार में रुचि है, जिसे विषयों में ही आनन्द मिलता है, जो पुरुषार्थी एवं कर्मठ तथा महाउद्योगी है, जो बुद्धिमान, विद्वान है, पाण्डित्य ही जिसका आभूषण है ऐसे व्यक्ति के लिए संन्यास, मुक्ति एवं मोक्ष का उपदेश देना उसको लाभ नहीं हानि ही पहुँचायेगा। यह उपदेश ऐसे व्यक्तियों के लिए है जो भोगों से तृप्त हो गया है, संसार के समस्त कटु अनुभवों से गुजर चुका है, जिसे सम्भवतः संसार से विरक्ति हो गई है, वही इसका लाभ उठा सकता है, अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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