अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

राग-द्वैष मन के धर्म

अष्टावक्र गीता-44

 

अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं कि राग और द्वैष मन के धर्म हैं। तू कभी मन नहीं बल्कि निर्विकल्प, निर्विकार बोध-स्वरूप आत्मा है। इसलिए तू सुखपूर्वक विचरण कर।

अष्टावक्र गीता-44

सूत्र: 4
न त्वं न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्षः सुखं चर ।। 4।।
अर्थात: तू शरीर नहीं है, न तेरा शरीर है, तू भोक्ता और कत्र्ता भी नहीं है। तू वो चैतन्य रूप है, नित्य है, साक्षी है, निरपेक्ष है। तु सुखपूर्वक विचर।
व्याख्या: अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि तेरी इन विषयों में आसक्ति नहीं थी, उनमें रस नहीं था, तू मुमुक्षु था एवं शुद्ध अन्तःकरण वाला था इसलिए तुझे शीघ्र ही आत्मबोध हो गया। अब तू चैतन्य आत्मा में स्थित हो गया, तू आत्म स्वरूप ही हो गया अतः अब तू शरीर नहीं है, न तेरा शरीर है, न तू भोक्ता है, न कत्र्ता है, क्योंकि तू चैतन्यआत्मा है जो नित्य है, साक्षी है तथा निरपेक्ष है। इसलिए अब तू सुखपूर्वक विचर।

सूत्र: 5
रागद्वेषौ मनोधर्मो न मनस्ते कदाचन्।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकारः सुखं चर ।। 5।।
अर्थात: राग और द्वेष मन के धर्म हैं। तू कभी मन नहीं है। तू निर्विकल्प, निर्विकार, बोध-स्वरूप आत्मा है। तू सुखपूर्वक विचर।
व्याख्या: शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि प्रकृतिजन्य हैं जिनके भिन्न-भिन्न धर्म हैं। आत्मा चैतन्य-स्वरूप है जिसके गुण धर्म इनसे भिन्न हैं। अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि तू आत्मज्ञानी है इसलिए आत्मा ही तेरा कर्म एवं स्वभाव है। तू इसी के अनुसार आचरण करता हुआ सुखपूर्वक विचर। ये राग और द्वेष मन के धर्म है, तुझ चैतन्य के धर्म नहीं हैं इसलिए तेरे धर्म नहीं हैं क्योंकि तू मन नहीं है आत्मा है, जो निर्विकार और बोध स्वरूप है जो इन सबका साक्षी मात्र है। इसलिए शरीर और मन के दोषों से सर्वथा मुक्त है।

सूत्र: 6
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव ।। 6।।
अर्थात: सब भूतों में आत्मा को तथा सब भूतों को आत्मा जानकर तू अहंकार रहित और ममता रहित है। तू सुखी हो।
व्याख्या: संसार में अनेकता का आभास होता है। व्यक्ति, पशु, पक्षी, कीट-पतंग, वनस्पति, जड़-चेतन, ठोस, तरल, गैस, आदि पदार्थों में भिन्नता दिखाई देती है जो मन का ही प्रक्षेपण है। मन हमेशा भिन्नता ही देखता है क्योंकि उसकी दृष्टि सीमित है किन्तु ये सारी अनेकताएँ एवं भिन्नताएँ आत्मा के अज्ञान से ही प्रतीत होती हैं। जिसने इस आत्मतत्व को जान लिया उसकी इस अनेकता की भ्रान्ति मिट जाती है। वह यह जान लेता है कि यह सम्पूर्ण सृष्टि उसी एक आत्मा के विभिन्न रूप हैं। इन सबके भीतर एक ही चैतन्य आत्मा का प्रकट रूप है। जिस प्रकार दूध से सैकड़ों प्रकार की मिठाइयाँ एवं पदार्थ बनते हैं उसी प्रकार आत्मा ही सबका कारण है। इस एक की अनुभूति होना ही परम ज्ञान है। अज्ञानी भिन्नता देखता है। इसी से उसमें अहंकार और ममता होती है, राग-द्वेष, ईष्र्या, लोभ-मोह होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि तू आत्मा को उपलब्ध हो गया इसलिए तूने यह स्पष्ट रूप से जान लिया कि सभी भूत पदार्थों में आत्मा है तथा सब भूत आत्मा ही हैं। दोनों अभिन्न हैं। इसलिए तू अहंकार रहित एवं ममता रहित है। अब तू सुखी हो। यह कथन वैसा ही वैज्ञानिक है जैसा वैज्ञानिक विद्युत और पदार्थ को अभिन्न मानते हैं। पदार्थ ही ऊर्जा है एवं ऊर्जा ही पदार्थ है। अध्यात्म की यह दृष्टि भी पूर्ण वैज्ञानिक है। ब्रह्म, ईश्वर, आत्मा एवं संसार की ऐसी वैज्ञानिक व्याख्या कोई भी अन्य धर्म नहीं दे पाया।

सूत्र: 7
विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देहश्चिन्मूर्ते विज्वरो भव।। 7।।
अर्थात: जिसमें यह संसार तरंगों की भाँति स्फुरित होता है वह तू ही है, इसमें सन्देह नहीं है। हे चैतन्य स्वरूप! तू ज्वर रहित हो (सन्ताप रहित हो)।
व्याख्या: अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि जिस प्रकार समुद्र में तरंगें उठती हैं किन्तु ये तरंगें समुद्र से भिन्न नहीं हैं इसी प्रकार तू आत्मा होने से उस महासमुद्र के समान है जिससे यह संसार तरंगों की भाँति स्फुरित होता है। तरंगे जिस प्रकार अनित्य हैं, उठती हैं, गिरती हैं, नष्ट होती हैं किन्तु इससे समुद्र को कोई हानि-लाभ नहीं होता उसी प्रकार संसार अनित्य है। वह बनता, बिगड़ता है, ध्वंस और निर्माण की प्रक्रिया सदा चलती रहती है किन्तु इससे आत्मा को कुछ भी हानि-लाभ नहीं है क्योंकि आत्मा समुद्र की भाँति नित्य है। संसार का सारा व्यवहार, सारे विषय भोग, संयोग-वियोग, लेन-देन आदि तरंगवत् हैं किन्तु तू तरंग नहीं है महासागर है। इसमें
सन्देह नहीं है। इसलिए ऐसा जानकर तू ज्वर-रहित, सन्ताप रहित हो।
सारे सन्ताप का कारण इतना ही था कि तूने अपने को महा समुद्र नहीं तरंग समझा, आत्मा नहीं शरीर व मन समझा जो तेरा अज्ञान था। अब ज्ञान-दीपक के जल जाने से अज्ञान जनित भ्रान्ति मिट गई है जिससे तू सन्ताप-रहित है।

सूत्र: 8
श्रद्धत्स्व तात श्रद्धत्स्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः।
ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः ।। 8।।
अर्थात: हे तात! श्रद्धाकार, श्रद्धाकार! इसमें मोह मत कर। तू ज्ञान-स्वरूप, भगवान्-स्वरूप आत्मा है तथा प्रकृति से परे है।
व्याख्या: अष्टावक्र फिर कहते हैं कि तू इस प्रकार की आत्म स्थिति को उपलब्ध हो गया। अतः हे तात! अब इसमें श्रद्धा कर। जिसने प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया, केवल पुस्तकों से जाना है या किसी से सुना है तो वह अश्रद्धा भी कर सकता है क्योंकि यह ज्ञान बुद्धि की पकड़ से परे हैं, स्वानुभूति का ही विषय है किन्तु तुझे तो प्रत्यक्ष अनुभव हो चुका है इसलिए तेरे लिए अश्रद्धा का कोई कारण ही नहीं है। यह संसार भौतिक है, जड़ है, प्रकृति जन्य है। तू आत्मा है जो प्रकृति से परे ज्ञान-स्वरूप व भगवान-स्वरूप है। इसलिए इस प्रकृतिजन्य संसार में तू मोह मत कर।

सूत्र: 9
गुणैः संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च।
आत्मा न गन्ता नागन्ता किमेनमनुशोचसि।। 9।।
अर्थात: गुणों से लिप्त यह शरीर रहता है आता है और जाता है। किन्तु आत्मा न जाने वाला है, न आने वाला इसके लिए क्यों सोच करता है।
व्याख्या: जिस प्रकार स्वर्ण से अनेक आभूषण बनते हैं और बिगड़ते हैं, मिट्टी से अनेक बर्तन बनते एवं मिटते हैं, समुद्र से अनेक तरंगें उठती हैं और गिरती हैं, विद्युत से पदार्थ बनते हैं और बिगड़ते हैं किन्तु उनका मूल तत्व सदा विद्यमान रहता है। विज्ञान भी यही कहता है कि पदार्थ अविनाशी है, शक्ति अविनाशी है, पदार्थ का रूपान्तरण होता है, शक्ति का भी रूपान्तरण होता है किन्तु वह स्वयं अविनाशी है। शक्ति व पदार्थ का एक दूसरे में रूपान्तरण होता है। पदार्थ विनाशी है एवं यही संसार है। शक्ति नित्य है, शाश्वत है, स्वयंभू है। उसका कभी विनाश नहीं होता।

अध्यात्म भी यही कहता है कि यह शरीर एक आकृति है जो सत्व, रज एवं तमोगुणों से लिप्त है। यह शरीर आता है, जाता है, रहता है, मरता है, इसी का बचपन, जवानी, बुढ़ापा होता है किन्तु यह आत्मा नित्य एवं शाश्वत है। यह न कहीं जाता है, न आता है, न जन्मता है न मरता है न इसका क्षय होता है, न वृद्धि। यदि शरीर चला गया तो यह फिर नया शरीर धारण कर लेगा।
इसलिए अपने को शरीर न मानकर उस नित्य आत्मा को जानकर तू इस बनने और बिगड़ने वाले शरीर के लिए क्यों सोच करता है। अज्ञानी ही ऐसा सोच करते हैं जो शरीर को ही सब कुछ समझते हैं इसके जाने से सब कुछ नष्ट हो जायेगा, पीछे कुछ बचेगा ही नहीं किन्तु ज्ञानी इस शरीर पात का कभी सोच नहीं करते।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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