अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

समर्पण है भगवान का द्वार

अष्टावक्र गीता-49

 

महाज्ञानी अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि समर्पण ही प्रभु का द्वार है और संसार का द्वार संघर्ष है। इस संघर्ष अर्थात् प्रयास मंे अहंकार छिपा रहता है, कर्तापन को भूलकर समर्पण का भाव अपनाएं।

अष्टावक्र गीता-49

सूत्र: 2
भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते।
चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थं रोचयिष्यति।। 2।।
अर्थात: हे विज्ञ! (ज्ञान-स्वरूप), भोग, कर्म अथवा समाधि को तू चाहे साधे, तो भी तेरा चित्त स्वभाव से सभी आशयों से रहित होने पर भी अत्यधिक लोभायमान रहेगा।
व्याख्या: चित्त का स्वभाव ही चंचलता है। वह हमेशा विषयों की ओर लोभाायमान रहेगा ही। वह विभिन्न भोगों के भोगने पर भी तृप्त नहीं होता, विभिन्न कर्मों के करने से भी वह कभी शान्त नहीं होता। अधिक से अधिक प्राप्त करने की इच्छा उसकी बनी ही रहती है। इतना ही नहीं समाधि में भी उसकी चंचलता शान्त नहीं होती। थोड़े समय उसका निरोध हो जाता है किन्तु बीज रूप में जो उसकी चंचलता है वह नष्ट नहीं होती इसलिए समाधि में वह सभी आशयों से रहित ज्ञात होता हुआ भी समय आने पर पुनः विषयों की ओर भागेगा ही। इसलिए हे जनक! तू विज्ञ है, ज्ञान स्वरूप है अतः चित्त की इस चंचलता को समझकर इससे प्रभावित मत हो।

सूत्र: 3
आयासात् सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन।
अननैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम्।। 3।।
अर्थात: प्रयास से सब लोग दुःखी हैं, इसको कोई नहीं जानता है। इसी उपदेश से भाग्यवान लोग निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या: प्रयास से मिलता है संसार। धन, यश, पद, प्रतिष्ठा, ज्ञान, विद्वता, ऐश्वर्य, समृद्धि आदि सब कुछ प्रयास से ही मिलता है। बिना प्रयास के यहाँ कुछ भी नहीं मिलता। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, कृषि, यातायात, संचार साधन, वाणिज्य, व्यापार आदि सब कुछ जो आज हम देख रहे हैं वह पीढ़ियों से किये गये मानव प्रयास का ही परिणाम है। यदि मनुष्य ने प्रयास न किया होता तो दुनियाँ जितनी सुन्दर एवं उपयोगी बनी है उतनी कभी नहीं बन सकती। प्रकृति का विदोहन एवं तकनीक का विकास मानव प्रयासों का ही परिणाम है किन्तु मानव इन प्रयासों का इतना अभ्यस्त हो गया है कि परमात्मा को भी प्रयास से ही प्राप्त करना चाहता है। उसने जैसे अणु, परमाणु की खोज की उसी प्रकार परमात्मा को भी पदार्थों में खोज रहा है। वह उसे जप, तप, योग, साधना, हठयोग, मंत्र, भक्ति, स्मरण, पूजन आदि के प्रयासों से प्राप्त करना चाहता है। किन्तु परमात्मा प्रयास से नहीं मिलता, ढूँढने से नहीं मिलता है क्योंकि वह कहीं खोया नहीं है, वह भीतर है जिसे देखना मात्र है, वह विस्मृत है उसे पुनः स्मृति में लाना मात्र है। इसमें प्रयास करना मार्ग नहीं है। अप्रयास ही मार्ग है। चित्त की शान्त एवं जाग्रत अवस्था ही इसे पाने का उपाय है। प्रयास से तनाव पैदा होता है, विचार पैदा होते हैं, तर्क-वितर्क होता है। इसी प्रयास से सुख-दुःख होते हैं जिससे मन में विक्षेप पैदा होते हैं जिससे भीतर की आत्मा की झलक उसे नहीं मिल पाती है। परमात्मा को पाने का मार्ग संघर्ष नहीं, समर्पण है। प्रयास के कत्र्तापन है जिससे अहंकार बढ़ता है जो मुख्य बाधा है। अहंकार और परमात्मा एक साथ नहीं हो सकते। अहंकार गिरने पर ‘मैं’ भाव के गिरने पर परमात्मा ही बचता है। यह ‘मैं’ ही बाधा है जो प्रयास से और दृढ़ हो जाता है। इसलिए प्रयास करने वाला योगी भटक जाता है, वह सिद्धियों में उलझ जाता है जबकि भक्त पहुँच जाता है। यह मार्ग संसार के मार्ग से भिन्न है। चित्त को संकल्प, विकल्पों, विचारों, मान्यताओं, सिद्धांतों, सम्प्रदायों आदि से सर्वथा मुक्त कर देना जिससे उसमें तरंगें उठे ही नहीं, यही मार्ग है। इसलिए अष्टावक्र जी कहते हैं कि प्रयासों से सब लोग दुःखी हैं, अशान्त हैं, तनावग्रस्त हैं, इसी से उनके मन विक्षिप्त हैं, उद्वेलित हैं एवं यही आत्मबोध में बाधा है। उसे कोई नहीं जानता। यदि कोई इस रहस्य को जान लेता है तो वह चित्त की शान्ति को प्राप्त होकर आत्मज्ञानी हो सकता है। इसी उपदेश से कुछ ही भाग्यवान लोग हैं जो निर्वाण को प्राप्त होते हैं। समर्पण ही प्रभु का द्वार है, संघर्ष संसार का। यही रहस्य है।

सूत्र: 4
व्यापारे खिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि।
तस्यालस्याधुरीणस्य सुखं नान्यस्य कस्यचित्।। 4।।
अर्थात: जो आँख के खोलने और ढकने के व्यापार से दुःखी होता है, वह आलसी शिरोमणि का ही सुख है। दूसरे किसी का नहीं।
व्याख्या: अष्टावक्र इसी क्रम मंे कहते हैं कि सब लोग प्रयास से दुःखी हैं। प्रयास मात्र दुःखों का कारण है। प्रयास में कत्र्तापन होता है, अहंकार होता है। इस कत्र्तापन से किये गये कार्य में फलाकांक्षा होगी, इसके साथ अपेक्षाएँ जुड़ी होगीं जिनके पूरा न होने पर दुःख होगा। कत्र्तापन अर्थात् अहंकार होने से तनाव होगा, कर्म में आनन्द नहीं आयेगा, वह बेगार की भाँति उसे ढोयेगा क्योंकि दृष्टि कर्म पर नहीं फल-प्राप्ति पर ही होगी। ऐसा व्यक्ति कर्म में कुशलता प्राप्त नहीं कर सकेगा। गीता में कहा है, ‘योग ही कर्म में कुशलता है’ वह नहीं होगा। इसके विपरीत यदि फलाकांक्षा की चिन्ता न कर कर्म को स्वाभाविक रूप से करने वाला, आनन्द समझकर करने वाला, ईश्वर की आज्ञा समझकर करने वाला सदा सुखी, तनावों से मुक्त व आनन्दित रहेगा। ज्ञान की उपलब्धि के लिए भी कर्म त्याज्य नहीं हैं किन्तु प्रयास त्याज्य है, कत्र्तापन त्याज्य है, अहंकार त्याज्य है। इस प्रकार प्रयास रहित जो कर्म हैं, जो स्वाभाविक रूप से हो रहे हैं, उन्हें करते रहने में श्रम नहीं करना पड़ता, प्रयास नहीं करना पड़ता, उसमें कत्र्तापन नहीं होता, इसलिए वे बिना प्रयास के होते रहते हैं। उन्हें जबर्दस्ती रोकने में भी प्रयास होगा इसलिए उन्हें रोकना भी बाधा बन जायेगी। जैसे साँस लेना और छोड़ना, रक्त संचालन, पाचन संस्थान, आँख को खोलना और ढकना स्वाभाविक रूप से हो रहा है। इसमें न कोई प्रयास करना पड़ता है, न श्रम। इसलिए इनसे व्यक्ति दुःखी नहीं होता किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि इन स्वाभाविक कर्मों से भी जो दुःखी होकर आँख का खोलना और ढकना भी बन्द कर देता है तो ऐसा सुख आलसी शिरोमणि का ही सुख है। यह ज्ञानी का सुख नहीं है। इसका अर्थ मात्र इतना है कि ज्ञानी प्रयास रहित अर्थात स्वाभाविक रूप से कर्म करता है। वह अहंकार एवं फलाकांक्षा रहित कर्म करता है जिनमें प्रयास नहीं होता। इससे कर्म बन्धन नहीं बनते। इसलिए जो ज्ञान को उपलब्ध हो गया है वे तो परम भाग्यशाली है ही किन्तु जो परमात्मा में आस्था रखते हैं, परमात्मा को मानते हैं वे कम भाग्यशाली नहीं हैं क्योंकि वे ही सभी कर्मों को परमात्मा का कार्य समझकर फलाकांक्षा से रहित कर्मों को करते हुए समस्त प्रकार की वासनाओं, कामनाओं एवं तनावों से मुक्त रहकर कर्म में आनन्द की अनुभूति करते हैं। इसके विपरीत वे अभागे हैं जो कहते हैं परमात्मा है ही नहीं, मैं ही हूँ। ऐसे व्यक्ति कर्म के बोझ से, अच्छे बुरे फलों के बोझ से दबे जा रहे हैं जैसे सारा पृथ्वी का भार उन पर ही आ पड़ा हो। सदा तनावों एवं चिन्ता में ही जीते हैं एवं मृत्यु के बाद भी कर्म-फलों का भार ढोते रहते हैं। अतः परमात्मा को स्वीकार करना भी परम सौभाग्य की ही बात है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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