
महाज्ञानी अष्टावक्र राजा जनक को समझाते हैं कि इस संसार में भोग और मोक्ष की आकांक्षा न रखने वाले बहुत कम हैं। आत्मज्ञानी की ही ऐसी स्थिति होती है जो न भोग की इच्छा करता है और न मोक्ष का प्रयास। उसे मोक्ष स्वतः मिल जाता है।
अष्टावक्र गीता-53
सूत्र: 3
न जातु विषयः केऽपि स्वारामं हर्षयन्तयमी।
सल्लकीपल्लव प्रीतमिवेभन्निम्बपल्लवाः।। 3।।
अर्थात: जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते हर्षित नहीं करते हैं, वैसे ही ये विषय आत्मा में रमण करने वाले को कभी नहीं हर्षित करते हैं।
व्याख्या: विषयों में आनन्द है, उनसे सुख मिलता है, यह निर्विवाद है। यदि विषयों में सुख नहीं होता तो यह संसार पागलों की तरह उनके पीछे नहीं दौड़ता। वह इस अन्धी दौड़ में पड़ता ही नहीं। दुनियाँ मंे सुख है, आनन्द है यह संसारी का निजी अनुभव है। इसी के लिए वह सारी दौड़ धूप करता है किन्तु कुछ सिरफिरे लोगों ने दुनियाँ को दुःख कहकर उससे भागने की बात कही किन्तु दुनियाँ छोड़ने से किसी को सुख मिला नहीं, जो था वह भी छूट गया इसलिए ऐसे लोगों की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई, छोड़ सब दिया, मिला कुछ नहीं। प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष की आकांक्षा में दौड़ने वाला विवेकी नहीं हो सकता, मूर्ख ही हो सकता है। छोड़ना मिलने की शर्त नहीं है। यदि उच्च मिल गया तो निम्न अपने आप छूट जायेगा, छोड़ना नहीं पड़ेगा। अष्टावक्र इसी तथ्य को प्रकट करते हुए कहते हैं कि ये विषयों के सुख क्षणभंगुर हैं, अस्थाई हैं, इन सुखों की प्राप्ति के लिए कई अनीतिपूर्ण कृत्य करने पड़ते हैं जिनका परिणाम भोगने में दुःख होता है। अतः संसार में कोई भी ऐसा सुख नहीं है कि जिसके साथ दुःख संयुक्त न हो फिर ये सभी सुख चिरस्थाई नहीं हैं। आत्मानन्द का सुख ही चिरस्थाई है वरना सुख नहीं मिल सकता। आत्मा का सुख स्वयं का है। उसमें दूसरा होना आवश्यक नहीं है। इसलिए जिसने आत्मानन्द का स्थाई सुख प्राप्त कर लिया, जो नित्य आत्मा में ही रमण करने वाला हो उसे ये सांसारिक सुख फीके ज्ञात होते हैं इसलिए वह इनमें कभी रुचि नहीं लेता। जिस प्रकार सल्लकी के
पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते हर्षित नहीं करते। किन्तु कई अज्ञानियों ने इससे उल्टा करना आरम्भ किया कि पहले छोड़ों तो मिलेगा। इससे दुनियाँ विकृत हुई है। छूट भी गया व मिला कुछ नहीं। ऐसा उपदेश दुनियाँ का अभिशाप बना, वरदान नहीं।
सूत्र: 4
यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासितः।
अभुक्तेषु निराकांक्षी तादृशो भव दुर्लभः।। 4।।
अर्थात: जो भोगे हुए भोगों में वासना नहीं रखता तथा भोगे हुए विषयों के प्रति आकांक्षा नहीं करता, ऐसा मनुष्य संसार में दुर्लभ है।
व्याख्या: अष्टावक्र का सारा उपदेश साधना-सूत्र नहीं है बल्कि सिद्ध व्यक्ति, आत्मज्ञानी के लिए कहे गये सूत्र हैं कि आत्मज्ञानी का व्यवहार किस प्रकार का हो जाता है। यह आत्मज्ञान की कसौटी है। इन्हें साधना के रूप में लेने पर वह चूक जायेगा। जो इन्हें साधना-सत्र मान लेता है वह भटकेगा ही। सब कुछ छोड़ देने से आत्मज्ञान नहीं होता। इस सूत्र में भी अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति संसार में दुर्लभ हैं। गीता में भी कहा है ‘हजारांे मनुष्यों में से कोई एक अन्तःकरण की शुद्धि के लिए यत्न करता है फिर उनमें से भी कोई विरला पुरुष आत्मा को यथार्थ जानता है।’ ऐसे आत्मज्ञानी ही भोगे हुए विषयों के प्रति वासना नहीं रखते क्योंकि वह स्मृति से ही मुक्त हो जाते हैं। यदि वह भी वासना रखता है इसका अर्थ है उसे आत्मानन्द प्राप्त हुआ नहीं, उसे विषयानन्द ही भले लगते हैं। ऐसा ज्ञानी भोगे विषयों के प्रति भी आकांक्षा नहीं करता क्योंकि ये आकांक्षाएँ, इच्छाएँ ही उसे पुनः विषयों की ओर ले जा सकती हैं। ऐसा व्यक्ति ही आत्मज्ञानी है जो संसार में दुर्लभ है। वह आत्मा में ही सदा तृप्त रहता है।
सूत्र: 5
बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।
भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः।। 5।।
अर्थात: इस संसार में भोग की इच्छा रखने वाले और मोक्ष की इच्छा रखने वाले दोनों देखे जाते हैं लेकिन भोग और मोक्ष दोनों के प्रति निराकांक्षी (अनिच्छा वाला) विरला महाशय ही मिलेगा।
व्याख्या: जब चित्त सभी प्रकार के विक्षेपों से शान्त हो जाता है तो वही मुक्ति है। वासना के कारण ही चित्त में तरंगें उठती हैं। ये विभिन्न तरंगें ही मोक्ष मंे बाधक हैं। ये तरंगें सांसारिक विषय वासना की हों चाहे मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा की, हैं तरंगें ही। जो मोक्ष की भी चाह करता है, उसकी चिन्ता करता है, उसके लिए प्रयत्न करता है उसका मन अशान्त रहता ही है। यह अशान्ति ही मोक्ष में बाधक है। संसारी हमेशा आकांक्षा में ही जीता है, वह वासना में ही जीता है। कभी वह भोग की इच्छा करता है तो कभी मोक्ष की किन्तु वह इस रहस्य को नहीं जानता कि यह इच्छा मात्र बन्धन है। सभी साधुु सन्त संसार छोड़ने का उपदेश देते हैं, दीक्षा दे-देकर साधु बनाने में लगे हैं किन्तु कोई इस रहस्य को नहीं बताता कि संसार बन्धन नहीं तुम्हारी इच्छाएँ मात्र बन्धन हैं। इन्हें छोड़ना ही मुक्ति है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि भोग और मोक्ष दोनों के प्रति जो निराकांक्षी है, जिसकी दोनों में इच्छा नहीं है ऐसा व्यक्ति ही मुक्त है किन्तु ऐसा विरला महाशय ही मिलेगा। केवल आत्मज्ञानी की ही ऐसी स्थिति होती है। अज्ञानी तो दोनों में ही इच्छा रखने वाला होता है।
सूत्र: 6
धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा।
कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि।। 6।।
अर्थात: कोई उदारचित्त ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मृत्यु के प्रति हेय उपादेय का भाव नहीं रखता।
व्याख्या: आत्मज्ञानी ही उदारचित्त वाला होता है क्योंकि उसी को इस सम्पूर्ण सृष्टि में एक आत्मा ही दिखाई देती है। उसे भिन्नता कहीं दिखाई नहीं देती। अज्ञानी को सब भिन्नताएँ ही दिखाई देती हैं जिससे उसके हर कार्य का उद्देश्य होता है, वह फल प्राप्त करना चाहता है, इच्छाओं एवं वासनाओं से ग्रसित रहता है, उसमें हेय ओर उपादेय का भय बना रहता है इसलिए वह मुक्त नहीं है, न उदारचित्त वाला हो सकता है। केवल आत्मज्ञानी ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा जीवन और मृत्यु के प्रति ही हेय और उपादेय का भाव नहीं रखता, न इन्हें ग्रहण योग्य समझता है, न त्याग, न इन्हें निन्दित समझता है, न प्रशंसनीय, न इन्हें घृणित समझता है, न उपयोगी आत्मज्ञानी की ही ऐसी स्थिति होती है। अतः वहीं जीवन्मुक्त है, ऐसी स्थिति को उपलब्ध हो जाना ही मोक्ष है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)