लेखक की कलमसम-सामयिक

अस्पतालों में सतर्कता की जरूरत

 

महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों में मौत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। नांदेड़ के बाद अब नागपुर से हैरान करने वाली खबर आई है। नांदेड़ में 5 अक्टूबर को 14 और मरीजों की मौत हो गई इस तरह यह आंकड़ा 51 मौत तक पहुंच गया। नागपुर के सरकारी अस्पताल में 24 घंटे में 25 मरीजों की मौत हो गई थी। ये मौते यहां के दो अलग-अलग सरकारी अस्पतालों में हुई हैं। सवाल उठता है कि क्या अस्पतालों में पर्याप्त सतर्कता नहीं रखी जाती?

नांदेड़ के जिस शंकरराव अस्पताल में सबसे ज्यादा मौत हो गई है वहां 2 अक्टूबर को 24 तीन अक्टूबर को 6 चार अक्टूबर को 7 और 5 अक्टूबर को 14 मौत हुई है। यह तादाद दिल दहलाने वाली है। वही नागपुर के दो अस्पतालों में भी दो दिन में 25 मौत बता रही है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। अस्पताल बच्चों व दूसरे मरीजों की बीमारी को लेकर गंभीर नहीं हैं वरना इतनी बड़ी तादाद में सामान्य बीमारी में मौत नहीं होती।

इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि लोग किसी बीमारी या आपात अवस्था में इलाज और जान बचाने की भूख में अस्पताल का रुख करें, लेकिन वहां एक तरह से मौत बंट रही हो ! महाराष्ट्र में नांदेड़ के एक सरकारी अस्पताल में बीते दो दिनों में जैसा मंजर सामने आया, वह अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि जहां मरीजों की जान बचाना सबसे बड़ा दायित्व होना चाहिए, वहां लापरवाही का आलम एक त्रासदी खड़ी कर रहा है। गौरतलब है कि नांदेड़ के सरकारी अस्पताल में इक्यावन लोगों की मौत हो गई, जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे शामिल हैं । एक ओर एक-एक करके मरीजों की जान जाती रही और दूसरी ओर अस्पताल प्रशासन की लापरवाही कायम रही । जिस स्थिति पर अस्पताल प्रशासन को जवाब देना चाहिए, उस पर यह अफसोसनाक प्रतिक्रिया आई कि वहां न दवाइयों की कमी है, न डाक्टरों की। सटीक इलाज के बावजूद मरीजों पर कोई असर नहीं हुआ। बच्चों की मौत के मामले में एक तरह से रटा-रटाया जवाब पेश किया गया कि उनकी स्थिति पहले से ही बेहद गंभीर थी और उनका वजन कम था। हालात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि नांदेड़ के बाद नागपुर के भी एक सरकारी अस्पताल में चैबीस घंटों में कई लोगों के मरने की खबर आई।
महाराष्ट्र के नांदेड के शंकरराव चह्वाण शासकीय मेडिकल कालेज एवं अस्पताल के डीन डा.श्यामराव वाकोडे एवं एक डाक्टर के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर ली गई है। यह प्राथमिकी उक्त अस्पताल में 30 सितंबर से एक अक्टूबर के बीच 24 मरीजों की मौत के मामले में मृतकों के स्वजनों की ओर से दर्ज कराई गई है।इस अस्पताल में 48 घंटों में 35 से अधिक मरीजों की मौत हुई थी जबकि अब यह आंकड़ा काफी बढ़ गया है।

सवाल है कि इतनी बड़ी तादाद में मरीजों की मौत को क्या स्वाभाविक घटना मान लिया जाए? अगर किसी अस्पताल में दो दिनों के भीतर इतनी संख्या में लोगों की मौत होती है तो क्या यह किसी अव्यवस्था और लापरवाही का नतीजा नहीं है? जब मामले ने तूल पकड़ लिया तब सरकार की ओर से इसकी जांच कराने की बात कही गई है। लेकिन क्या यह राज्य में इस तरह की कोई पहली घटना है? ज्यादा दिन नहीं हुए जब महाराष्ट्र के ही ठाणे जिले के एक अस्पताल में अड़तालीस घंटे में अठारह लोगों की मौत हो गई थी। आखिर सबक लेने के लिए कितनी घटनाओं की जरूरत होती है? इस तरह की हर घटना के बाद यह सफाई दी जाती है कि मरीज की बीमारी गंभीर अवस्था में पहुंच गई थी। नांदेड़ के जिस अस्पताल में मरीजों के मरने की घटना सामने आई है, वह करीब अस्सी किलोमीटर के दायरे में एकमात्र सरकारी अस्पताल है और वहां दूर-दूर से मरीज इलाज के लिए आते हैं। अगर किसी वजह से मरीजों की संख्या बढ़ जाती है तो दवा और अन्य संसाधनों के मामले में समस्या खड़ी हो जाती है। आरोप यहां तक सामने आए कि तपेदिक के मरीजों को अपने स्तर ही दवा खरीद कर खाने के लिए कहा जाता है। सवाल है कि ऐसी स्थिति में किसकी जिम्मेदारी तय की जाएगी?

महाराष्ट्र की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को अपेक्षया बेहतर स्थिति में माना जाता रहा है लेकिन विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि पिछले एक साल से स्थिति तेजी से बिगड़ती गई है और आज स्वास्थ्य विभाग सबसे उपेक्षित महकमों में गिना जाता है । कोई भी अस्पताल लोगों का जीवन बचाने के लिए होता है। अगर वहां एक साथ इतनी संख्या में लोगों की जान जाने लगे तो इसके पीछे अस्पताल प्रबंधन की लापरवाही, संसाधनों का अभाव, डाक्टरों की कमी आदि बहुस्तरीय समस्याएं हो सकती हैं। लेकिन इस तरह अप्रत्याशित तरीके से मरीजों की जान जाने की घटनाएं अक्सर सामने आने के बावजूद सरकार को यह सुनिश्चित करना जरूरी नहीं लगता कि उचित इलाज और जीवन रक्षा की जगहों को ऐसी त्रासद जगहों के रूप में तब्दील होने से हर हाल में बचाया जाए।

बांबे हाई कोर्ट ने भी इस मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी है। इस मामले में बांबे हाई कोर्ट ने भी सुनवाई की है। इस दौरान राज्य सरकार की ओर से स्वास्थ्य सेवाओं पर हो रहे खर्च का विवरण हाई कोर्ट में प्रस्तुत किया गया। इसी मामले में सख्त कार्रवाई करते हुए डीन एवं एक अन्य डाक्टर के विरुद्ध पुलिस ने आइपीसी की धारा 304 एवं 34 के तहत प्राथमिकी दर्ज की थी।
मरीजों के स्वजनों का आरोप है कि 30 सितंबर से एक अक्तूबर के बीच जब अस्पताल में 11 नवजात शिशुओं की मौत हुई, उस समय 24 बिस्तरों की क्षमता वाले नवजात गहन चिकित्सा इकाई (एनआईसीयू) में कुल 65 बच्चों का इलाज हो रहा था। जबकि, इस मामले में बाल रोग विभाग के प्रमुख डा.किशोर राठौड़ ने कहा है कि शिशुओं की मौत का कारण दवाओं की कमी नहीं थी। उस दिन एनआइसीयू में 11 मौतों में से आठ शिशु दूसरे अस्पतालों से भेजे गए थे, जिन्हें बहुत ही गंभीर अवस्था में लाया गया था। शिशुओं का वजन तब एक किलोग्राम से भी कम था। डा.राठौड़ के अनुसार बाल गहन चिकित्सा इकाई (पीआईसीयू) की क्षमता 31 बिस्तरों की है जबकि वहां उस दौरान 32 बच्चों का इलाज चल रहा था। कांग्रेस ने उच्चस्तरीय जांच की मांग की है।

सरकार सिर्फ डाक्टरों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है सरकार को देखना होगा कि लापरवाही किस स्तर पर हुई है? क्या इसके लिए अस्पताल के संसाधन जिम्मेदार हैं? अथवा किसी तरह का कोई संक्रमण सफाई दवाई आक्सीजन स्टाफ की कमी या दूसरी किसी व्यवस्था में कमी होने के कारण बनता है जिस कारण मौत का सिलसिला इतनी स्तर तक पहुंचा या अस्पतालों में दवाइयां तथा संसाधनों की कमी थी जिसके कारण लगातार मरीजों की मौत होती रही और उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा नहीं मिल सकी। सिर्फ डॉक्टरों के सिर पर ठीकरा फोड़कर सरकार अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकती है। इस संबंध में जांच करने के उपरांत थी सही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। सरकार को गंभीरता के साथ इस मामले की जांच करानी चाहिए तथा दोषी लोगों को सख्त से सजा देनी चाहिए। यदि सरकार के स्तर पर संसाधनों की कमी या दवाइयां की कमी के कारण ऐसा हुआ है तो सरकार को भी अपने गिरेबान में झांकना होगा। (हिफी)

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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