
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं धन्य पुरुष वही है जो यथा प्राप्त आजीविका से सुख पूर्वक जीता है अर्थात प्राप्त को ही पर्याप्त समझता है।
सूत्र: 7
वा´छा न विश्वविलये द्वेषस्तस्य च स्थितौ।
यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम्।। 7।।
अर्थात: जिसमें विश्व के विलय की इच्छा नहीं है और न उसकी स्थिति के प्रति द्वेष है, इसलिए वह धन्य पुरुष यथा प्राप्य आजीविका से सुखपूर्वक जीता है।
व्याख्या: दुनियाँ में अनेक लोग हैं जो सृष्टि की स्थिति एवं विलय से बड़े चिन्तित हैं जैसे सारी सृष्टि उन्हीं के चलाने से चल रही है, उन्हीं के विचारों, सिद्धांतों एवं मान्यताओं से चल रही है। यदि वे न होते तो सृष्टि का प्रलय हो जाता। ऐसे व्यक्ति ही दुनियाँ को सदा भयभीत करते रहते हैं कि सृष्टि का प्रलय निकट है, बीसवीं शताब्दी के अन्त तक प्रलय हो जायेगा फिर नया युग शुरू होगा, सतयुग आयेगा, अत्याचार बढ़ रहे हैं, अतः अवतार होगा जो दुष्टों को दण्ड देगा। कुछ लोग हैं जो दुनियाँ की वर्तमान स्थिति से बड़े चिन्तित हैं। वे कहते हैं आज की दुनियाँ सबसे निकृष्ट है। जितनी चोरियाँ, हत्याएँ, बलात्कार, डकैतियाँ, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, शोषण, अनैतिकता, झूठ, फरेब, धोखा, बेईमानी आज है, इतनी पहले कभी नहीं थी। मनुष्य पतन की पराकाष्ठा को पहुँच चुका है, वह पशु से भी बदतर हो गया है। अष्टावक्र कहते हैं कि इन दोनों ही प्रकार की
धारणा वाले व्यक्ति दुःखी एवं अशान्त हैं। वह ज्ञानी ही धन्य हैं जिसमें न विश्व के विलय की इच्छा है, न इसकी स्थिति के प्रति द्वेष है क्योंकि वह तो साक्षी हो गया है, दृष्टामात्र है, राग-द्वेष, आसक्ति-विरक्ति से पार हो गया है इसलिए वह न तो अधिक की कामना करता है, न नहीं होने पर दुःखी रहता है बल्कि यथा प्राप्य, जो कुछ मिल जाता है, या मिला हुआ है उसी आजीविका से गुजारा करता हुआ सुखपूर्वक जीता है।
सूत्र: 8
कृतार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती।
पश्चच्अंछृणवन् स्पृश´िज्घृन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्।। 8।।
अर्थात: इस ज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर, गलित हो गई है बुद्धि जिसकी, ऐसा कृतकार्य पुरुष देखता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है।
व्याख्या: एक ही चैतन्य आत्मा इस सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। इस चेतना से सर्वप्रथम बुद्धि उत्पन्न हुई। इस बुद्धि से अहंकार उत्पन्न हुआ तथा इस अहंकार के कारण जीव ने अपने को उस चैतन्य आत्मा से भिन्न अनुभव किया। यही अज्ञान उसका पाप बन गया। बाइबल में भी ऐसी कथा है कि आदम ने बुद्धि का फल खाया जिससे उसे स्वर्ग के बगीचे ईडन से नीचे गिरा दिया गया। यही उसका मूल पाप था। यह बुद्धि उस विराट आत्मा की एक छोटी सी किरण है। आत्मा महासागर है तो बुद्धि चम्मच जैसी। बुद्धि छोटा पैमाना है, छोटा तराजू है जो दुनियाँ के छोटे-मोटे कार्य के लिए पर्याप्त है किन्तु उससे उस विराट चेतना को नहीं नापा जा सकता। मनुष्य इस बुद्धि से परमात्मा को नापना चाहता है इसीलिए चूक जाता है। बुद्धि तर्क-वितर्क, सोच-विचार, प्रश्न-उत्तर, चिन्तन-मनन का निर्णय कर सकती है। अच्छे-बुरे, अशुभ-शुभ का भेद कर सकती है वह गणित जैसा कार्य करती है किन्तु इससे विराट नहीं जाना जा सकता, इससे समग्र को नहीं जाना जा सकता। अस्तित्व अखण्ड है, अविभाज्य है, अनन्त है, उसे बुद्धि से जानना असम्भव है। चेतना बुद्धि से पार है। जो कार्य बुद्धि से नहीं होते वे चेतना से ही होते हैं। उच्चकोटि का समस्त ज्ञान बुद्धि से नहीं चेतना से सीधा उतरा है अतः उसे अपौरूषेय कहा जाता है। उच्चकोटि का साहित्य, अध्यात्म, वेद, पुराण आदि सीधी चेतना से ही आये हैं। यह बुद्धि का कार्य नहीं है। इसलिए सामान्यज्ञान के लिए बुद्धि पर्याप्त है किन्तु आत्मज्ञान में इस क्षुद्र बुद्धि का स्थान वह विराट् चेतना ले लेती है इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि जो आत्मज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर लेता है उसकी बुद्धि गलित हो जाती है। वह क्षुद्र से विराट् बन जाता है। उसे सम्पूर्ण कार्यों का एवं विधि-विधान का ज्ञान हो जाता है जिससे वह इस क्षुद्र संसार में विमोहित न होकर स्वाभाविक रूप से अनिवार्य कर्मों को करता हुआ संसार के प्रति साक्षी भाव से रहकर सुखपूर्वक रहता है, वह चिन्ता एवं वासना से मुक्त हो जाता है। जीवन संयुक्त है, किन्तु बुद्धि के कारण ही उसे भिन्नता दिखाई देती है। बुद्धि गलित होने पर सब संयुक्त दिखाई देता है। यही सत्य है, यही ज्ञान है। जहाँ बुद्धि की सीमा समाप्त होती है वही चेतना का अनुभव होता है।
सूत्र: 9
शून्यादृष्टिर्वृथा चेष्टा विफलानीन्द्रियाणि च।
न स्पृहा न विरक्तिर्वाक्षीणसंसारसागरे।। 9।।
अर्थात: जिसका संसार सागर क्षीण हो गया है, ऐसे पुरुष में न तृष्णा है, न विरक्ति है। उसकी दृष्टि शून्य हो गई है, चेष्टा व्यर्थ हो गई है और इन्द्रियाँ विफल हो गई हैं।
व्याख्या: बुद्धि का अनुभव क्षुद्र का ही अनुभव है, उसका अनुभव संसार तक ही सीमित है किन्तु चेतना का अनुभव विराट् का अनुभव है। वह क्षुद्र से ऊपर विराट् को ही देखता है, समग्र को एक साथ देखता है जिससे उसका क्षुद्र संसार जो छोटे सागर के समान है, क्षीण हो जाता है। जिसने महासागर को देख लिया वह छोटे-छोटे तालाबों से कैसे प्रभावित हो सकता है, जिसने पूरे हाथी को देख लिया वह अन्धों की भाँति उसके अलग-अलग अंगों को हाथी कैसे कह सकता है।
अन्धा ही ऐसा कहता है। ऐसे समग्र के दृष्टा आत्मज्ञानी को संसार में न तृष्णा होती है, न विरक्ति। उसकी दृष्टि शून्य हो जाती है अथवा पूर्ण हो जाती है। शून्य दृष्टि में ही पूर्ण का आभास छिपा है। ऐसे ज्ञानी चेष्टा रहित हो जाते हैं। जिसे सब कुछ मिल गया फिर चेष्टा किसकी। उसकी इन्द्रियाँ भी विफल हो जाती हैं क्योंकि अब विषयों के प्रति आकर्षण ही समाप्त हो गया। परमआनन्द मिल जाने से क्षुद्र के क्षणिक सुख अपने आप छूट जाते हैं। कसमें खा-खाकर छोड़ना नहीं पड़ता। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)