
अष्टावक्र जी राजा जनक को समझाते हैं कि आत्मज्ञानी शरीर नहीं आत्मा को देखता है। इसीलिए उसकी नजर में नर-नारी एक समान हैं क्योंकि उनके शरीर भिन्न हैं। लेकिन आत्मा एक ही है।
अष्टावक्र गीता-56
सूत्र: 15
सुखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु च विपत्सु च।
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः।। 15।।
अर्थात: समदर्शी धीर के लिए सुख और दुःक्ष में, नर और नारी में, सम्पत्ति और विपत्ति में कहीं भेद नहीं है।
व्याख्या: सुख-दुःख का भेद चाह के कारण है, वासना के कारण है। यदि चाह बदल गई तो दुःख सुख में एवं सुख दुःख में परिणत हो जाता है। सृष्टि में सुख दुःख का विभाजन नहीं है, यह मन की वासना के कारण प्रतीत होता है। इसी प्रकार स्त्री पुरुष की भिन्नता शरीरगत् है, आत्मागत् भिन्नता नहीं है। आत्मा न स्त्री है न पुरुष। मन में वासना से ही स्त्री-पुरुष का भेद दिखाई देता है। जब वासना नहीं, चाह नहीं तो भेद भी समाप्त हो जाता है। दोनों बाहर से भिन्न प्रतीत होते हुए भी भीतर संयुक्त हैं, आत्मा एक ही है। आत्मज्ञानी शरीर को नहीं देखता, सर्वत्र आत्मा को ही देखता है। इसी प्रकार वह सम्पत्ति और विपत्ति को भी मन का ही प्रक्षेपण मानता है। आत्म ज्ञानी समदर्शी होता है, वह इनसे प्रभावित नहीं होता इसलिए वह अभेद दृष्टि से एक ही आत्मा का अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति ही मुक्त है।
सूत्र: 16
न हिंसानैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसारणे नरे।। 16।।
अर्थात: क्षीण हो गया है संसार जिसका, ऐसे मनुष्य में न हिंसा है, न करुणा है, न उद्दण्डता है न दीनता, न आश्चर्य है, न क्षोभ।
व्याख्या: जिसको आत्माज्ञान हो गया, जिसने उस परम तत्व को जान लिया उसका संसार खो गया, उसके प्रति कोई आकर्षण न रहा। उसने अपने भीतर वासना, मोह, ममता, स्वार्थ आदि के कारण संसार के प्रति जो अच्छे-बुरे, हेय-उपादेय की दृष्टि बना रखी थी, वह दृष्टि ही बदल गई। वह हिंसा, करुणा, उदण्डता, विनम्रता, दीनता आदि तभी तक दिखाता है जब तक दो मौजूद हैं, मनुष्य-मनुष्य में भिन्नता दिखाई देती है। जब सम्पूर्ण सृष्टि में उसे एक ही आत्मा दिखाई देती है तो कौन किसकी हिंसा करे, कौन किसके प्रति करुणा दिखावे। अपने आप ही लुप्त हो जाते हैं। प्रयासपूर्वक दया, करुणा, अहिंसा करनी पड़ती। फिर कोई अणव्रत नहीं लेना पड़ता, ऐसे ज्ञानी को न आश्चर्य होता है, न क्षोभ होता है। वह सर्वत्र उपेक्षा भाव से अपने स्वभाव में, अपने विवेक में, स्वानुशासन से स्वच्छन्द जीता है। वह न दूसरों के अनुसार चलता है, न विपरीत, वह अपने ही अनुकूल चलता है। ईश्वर भी ऐसा ही है। न दयावान है, न करुणावान, न हिंसक है, न अहिंसंक, न दण्ड देता है, न पुरस्कार देता है। न उसने सृष्टि बनाई, न वह चला रहा है। वह अपने विशिष्ट नियमों से चल रही है इसलिए परमात्मा न कत्र्ता है, न भोक्ता। ज्ञानी भी ऐसा ही ईश्वरतुल्य हो जाता है।
सूत्र: 17
न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः।।
असंसक्तमनाः नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते।। 17।।
अर्थात: मुक्त पुरुष न विषयों से द्वेष करने वाला है, न विषयलोलुप है। सदा आसक्ति रहित मन वाला होकर प्राप्त और अप्राप्त वस्तु का उपभोग करता है।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि जीवन्मुक्त व्यक्ति परम भोगी है। वह संसार के क्षणभंगुर भोगों का त्याग करके आत्मानन्द का शाश्वत भोग कर रहा है। वह न विषयों से द्वेष करने वाला है, न विषय लोलुप है। तथा कथित साधु विषयों से द्वेष करने के कारण दुःखी रहते हैं एवं संसारी उनमें लोलुप रहने के कारण दुःखी हैं। जो उन्हें मिला है उससे भी दुःखी हैं और नहीं मिला है उसकी चिन्ता में दुःखी हैं। अज्ञानी की दृष्टि ही ऐसी है कि वह हमेशा रोता ही है। हँसने की, आनन्दित होने की कला वह जानता ही नहीं। ज्ञानी ही इसे जानता है। ज्ञानी की किसी में आसक्ति नहीं होती। आसक्ति वाला ही दुःखी, चिन्तित, तनावग्रस्त रहता है इसलिए ज्ञानी जो प्राप्त है उसका भी भोग करता है और अप्राप्त की भी चिन्ता नहीं करता। उसमें भी आनन्दित होता है। रामकृष्ण ने कहा, ‘हमने संसार छोड़ा, परमात्मा पाया। इसलिए हम क्षणभंगुर को छोड़कर परमशाश्वत का भोग कर रहे हैं अतः हम महान् भोगी हैं और तुमने परमात्मा छोड़ा और संसार पाया इसलिए तुम क्षणभंगुर में मरे जा रहे हो, भोग कहाँ रहे हो। तुमने क्षुद्र के लिए विराट् छोड़ दिया, तुम महान त्यागी हो, हम महान् भोगी हैं।’
सूत्र: 18
समाधानासमाधानहिताहित विकल्पनाः।
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः।। 18।।
अर्थात: शून्यचित्त पुरुष समाधान और असमाधान के, हित और अहित के विकल्प को नहीं जानता। वह तो कैवल्य जैसा स्थित है।
व्याख्या: चित्त जब तक उद्वेलित है तभी तक संकल्प विकल्प उठते हैं, तभी तक समाधान और असमाधान के विचार उत्पन्न होते हैं, तभी तक हित और अहित का ध्यान बना रहता है। यह सब अहंकार के ही कारण है। तरंगित मन ही इन विक्षेपों का जन्मदाता है। जब चित्त शान्त हो गया, शून्य हो गया, उसमें विचार, वासना, कामना की तरंगें ही उठना बन्द हो गईं तो वही कैवल्य की स्थिति है। ऐसा व्यक्ति केवल आत्मा में ही स्थित है। आत्मा के सिवाय अन्य को वह जानता ही नहीं। ऐसा व्यक्ति ही जीवन्मुक्त है।
सूत्र: 19
निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चितः।।
अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वन्नपि न लिप्यते।। 19।।
अर्थात: भीतर से गलित हो गई हैं सब आशाएँ जिसकी, और जो निश्चयपूर्वक जानता है कि कुछ भी नहीं है-ऐसा ममता रहित, अहंकारशून्य पुरुष कर्म करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता।
व्याख्या: जो इस प्रकार की चित्त की शून्यता को प्राप्त होकर आत्मा में स्थित हो जाता है उसकी सब आशाएँ गलित हो जाती हैं क्योंकि वह आत्मा के अलावा कुछ भी नहीं जानता फिर किसकी आशा की जाय। ऐसा व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होकर किसी में ममता नहीं करता, न उसमें अहंकार ही रहता है, ‘मैं पन’ का भी अभाव हो जाता है जिससे उसका कत्र्ताभाव मिट जाता है। वह करता हुआ भी नहीं करता है क्योंकि वह उपकरण मात्र हो जाता है। परमात्मा जो करवाता है वह कर लेता है। ऐसा व्यक्ति अलिप्त रहता है।
सूत्र: 20
मनः प्रकाशसंमोहस्वप्नजाड््यविवर्जितः।।
दशां कामपि संप्राप्तो भवेद्गलितमानसः।। 20।।
अर्थात: जिसका मन गलित हो गया है और जिसके मन में कर्म, मोह, स्वप्न और जड़ता सब समाप्त हो गये हैं, वह पुरुष कैसी अनिर्वचनीय अवस्था को प्राप्त होता है।
व्याख्या: आत्मज्ञान मंे मुख्य बाधा मन ही है। कर्म, मोह, स्वप्न एवं जड़ता का आभास मन से ही होता है। अतः जिसका मन गलित हो गया है उसके कर्म, मोह, स्वप्न एवं जड़ता सब समाप्त हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति पूर्ण चैतन्य एवं जाग्रत अवस्था में नित्य स्थित रहता है। यह अनिर्वचनीय अवस्था है जिसको कैवल्य अवस्था कहते हैं। इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सभी ज्ञानियों ने ऐसा ही कहा है कि यह स्थिति वर्णनातीत है। कबीर ने इसे अमनी दशा, वेदों ने ऋतु, बुद्ध ने धम्म (धर्म), कहा है। यही है परमात्मा, भगवान्, ईश्वर, ब्रह्म, सत्य। यही स्वभाव है, यही परम नियम है। यही बुद्धत्व है, यही ज्ञान है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)