अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

आत्मा और ब्रह्म की अभेदता

 

अष्टावक्र इस सूत्र में आत्मा एवं ब्रह्म की अभेदता बताते हुए कहते हैं कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। व्यक्ति में उपस्थित चेतना का नाम आत्मा है तथा समष्टिगत् चेतना ही ब्रह्म है।

अष्टावक्र गीता-58

आत्माब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्।। 8।।
अर्थात: आत्मा ब्रह्म है और भाव और अभाव कल्पित हैं। यह निश्चयपूर्वक जानकर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है।
व्याख्या: अष्टावक्र इस सूत्र में आत्मा एवं ब्रह्म की अभेदता बताते हुए कहते हैं कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। व्यक्ति में उपस्थित चेतना का नाम आत्मा है तथा समष्टिगत् चेतना ही ब्रह्म है। यह ब्रह्म एक ही है जो भिन्न-भिन्न पदार्थों के कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। ये भाव और अभाव दोनों मन की कल्पना मात्र है। वही एक ब्रह्म है जो भाव स्वरूप है, न अभाव स्वरूप। यह धारणा ही मिथ्या है कि परमात्मा है अथवा नहीं क्योंकि वही सब कुछ है। वह सृष्टि से भिन्न नहीं है। सृष्टि में परमात्मा है अथवा नहीं है ऐसी धारणा ही कल्पना मात्र है। सृष्टि ही परमात्मा है। ऐसा निश्चय पूर्वक वही जानता है जिसे इसका अनुभव हो गया। शास्त्रों से, पण्डितों से यह नहीं जाना जा सकता। यह जाना जाता है स्वयं के भीतर प्रवेश करने से, निःशब्द, शान्ति, मौन में। यह विज्ञान की प्रयोगशाला में नहीं, स्वयं के भीतर की प्रयोगशाला में ही जाना जा सकता है, यह तर्क से नहीं, शून्य होने से ही जाना जा सकता है। जब तुम मिटोगे तभी परमात्मा है। स्वयं का मिटाना ही मार्ग है, अहंकार, कत्र्तापन ही बाधा है। स्व का ज्ञान ही धर्म है, पर का ज्ञान है विज्ञान। जब मन वासना, आसक्ति, अहंकार से मुक्त होता है तो जो शेष रहता है वह ब्रह्म ही है। ऐसी स्थिति को उपलब्ध हुआ ज्ञानी ही निष्काम है। निष्काम साधना भी है और सिद्धि भी। इस परम ज्ञान की स्थिति में कत्र्ता खो जाता है, इसलिए कर्म भी खो जाते हैं। फिर वह जो भी करता है, वह कर्म नहीं है, जो कहता है, जो जानता है उसमें अहंकार नहीं वही सत्य है। सब कुछ अस्तित्व से होता है, स्वभाव से होता है।

अयं सोऽहमयं नाहमितिक्षीणा विकल्पनाः।
सर्वमात्मेति निश्ंिचत्य तृष्णीभूतस्य योगिनः।। 9।।
अर्थात: सब आत्मा है। ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर शान्त हुए योगी की ऐसी कल्पनाएँ कि ‘वह मैं हूँ’ और ‘वह मैं नहीं हूँ’ क्षीण हो जाती हैं।
व्याख्या: बन्ध और मुक्ति न शरीर में है, न मन में, न कर्म में। न कोई परमात्मा बन्धन ही डालता है, न मुक्त करता है। मनुष्य की अज्ञान जनित भेद-बुद्धि ही इसका कारण है। जीवात्मा और परमात्मा में भेद मानने के कारण ही अज्ञानवश मनुष्य ने समस्त सृष्टि को द्वन्द्वों में विभाजित कर दिया। सृष्टि में एक ही अस्तित्व था, अविभाज्य था। विभाजन के कारण भेद प्रतीत होने लगा एवं यही भेद संघर्षों का कारण बन गया। यह भेद अज्ञान जनित है, आत्म ज्ञान के अभाव में प्रतीत हुआ यह द्वैतभाव उस योगी का समाप्त हो जाता है जिसने यह जान लिया है सब आत्मा ही है। आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है। यह भिन्नता अहंकार एवं मन, वासना, तृष्णा, कामना आदि अज्ञान के कारण ज्ञात हो रही थी। इस भ्रान्ति के मिट जाने पर उसे अभिन्नता का निश्चय पूर्वक बोध हो जाता है जिससे वह शान्त हो जाता है एवं उसकी ‘यह मैं हूँ’ और ‘यह मैं नहीं हूँ’ की समस्त कल्पनाएँ क्षीण हो जाती हैं जो अज्ञान जनित थीं जैसे दीपक जलने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है।

न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशान्तस्य योगिनः।। 10।।
अर्थात: अपशान्त हुए योगी के लिये न विक्षेप है और न एकाग्रता है, न अतिबोध है और न मूढ़ता है, न सुख है, न दुःख है।
व्याख्या: चित्त में संकल्प-विकल्प निरन्तर उठते रहते हैं। इन्हीं संकल्प-विकल्पों के कारण संसार है किन्तु आत्मज्ञानी योगी का चित्त इन संकल्प-विकल्पों से रहित होकर पूर्णतः शान्त हो जाता है जिससे चित्त के समस्त विक्षेप समाप्त हो जाते हैं। विक्षेप होेने पर ही एकाग्रता की, धारणा, ध्यान, समाधि को साधने की आवश्यकता पड़ती है, अतिबोध और मूढ़ता, सुख और दुःख की अनुभूति भी चित्त के विक्षेपों के कारण ही प्रतीत होती है। अतः आत्मज्ञानी योगी के समस्त विक्षेप ही शान्त हो जाते हैं एवं वह सदा अनल हक ही आत्मा का सर्वत्र अनुभव करता हुआ नित्य आत्मानन्द में ही मग्न रहता है इसलिए इनका उसे कोई अनुभव नहीं होता।

स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः।। 11।।
अर्थात: निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिये राज्य और भिक्षावृत्ति में, लाभ और हानि में, समाज और वन में फर्क नहीं है।
व्याख्या: आत्मज्ञानी के चित्त के समस्त संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। वह सदा निर्विकल्प अवस्था में एक ही आत्मानन्द में रमण करता है, जिससे उसके लिए चाहे साम्राज्य सुख हो चाहे भिक्षावृत्ति, लाभ हो या हानि, वह समाज में हो, चाहे वन में कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसका सारा आग्रह ही समाप्त हो जाता है। साम्राज्य चाहने वाले एवं उसे छोड़कर भागने वाले दोनों आग्रह युक्त हैं, दोनों में संकल्प है। इसी प्रकार संकल्प लेकर भिक्षा-वृत्ति करने वाले, लाभ-हानि को चाहने वाले, समाज एवं वन में रहने का आग्रह पूर्वक निश्चय करने वाले कि मैं ऐसा ही करूँगा यह अहंकार जनित अज्ञान का परिणाम है। अहंकार एवं संकल्प-विकल्प से रहित होने पर वह हर स्थिति में अनाग्रह पूर्वक रहकर स्वाभाविक जीवन जीता है। उसका कोई चुनाव नहीं होता, उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, कोई शिकायत नहीं है। जो है, सब स्वीकार है।

बुद्ध ने इसी स्थिति को ‘तथाता’ कहा है।
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकता।
इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः।। 12।।
अर्थात: यह किया है और यह अनकिया है इस प्रकार के द्वन्द्व से मुक्त योगी के लिये कहाँ धर्म है, कहाँ काम है, कहाँ अर्थ है, कहाँ विवेक?
व्याख्या: अष्टावक्र इन सूत्रों में जीवन्मुक्त योगी के लक्षणों को बताते हुए कह रहे हैं कि जो इन लक्षणों वाला है वही परम योगी है एवं वही जीवन्मुक्त है ये लक्षण ही जीवन्मुक्त की कसौटी है, जिनमें ये लक्षण न दिखाई दें, समझ लो उसे आत्मज्ञान हुआ नहीं, उसे अद्वैत का ज्ञान हुआ नहीं। फिर भी यदि कोई आत्मज्ञानी होने का दावा करता है तो या तो वह भ्रमित है, या पागल है, या पाखण्डी है। इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि योगी चित्त की संकल्प-विकल्प अवस्था से पूर्णतः निर्विकल्प हो जाने से उसके समस्त विक्षेप शान्त हो जाते हैं जिससे वह किये और अनकिये सभी प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है। ऐसे मुक्त योगी के लिए धर्म, अर्थ, काम तथा विवेक का बन्धन समाप्त हो जाता है जिसका अज्ञानी पर आरोपण किया जाता है। ज्ञानी अपनी आत्मा के स्वभाव के अनुसार इनका पालन करता है जबकि अज्ञानी बाध्य होकर मजबूरी में, अस्वाभाविक रूप से इनका पालन करता है। अज्ञानी स्वभाव नहीं है। ज्ञानी का यह स्वभाव हो जाता है। यही उसका सही स्वरूप है-औरिजनल फेस। आत्मज्ञान में दृष्टि बदल जाती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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