
अष्टावक्र जी राजा जनक से कहते हैं कि धीर पुरुष संसार मंे रहते हुए भी संसार से भिन्न रहता है। ज्ञानी बाह्य कर्म करते हुए भी उनमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखता।
अष्टावक्र गीता-60
येन दृष्टं परंब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो द्वितीयं यो न पश्यति।। 16।।
अर्थात: जिसने पर-ब्रह्म को देखा है वह भला मैं ब्रह्म हूँ का चिन्तन भी करे, लेकिन जो निश्चिन्त होकर दूसरा कोई नहीं देखता वह क्या चिन्तन करे।
व्याख्या: चिन्तन दो के बिना नहीं होता, एक चिन्तन करने वाला तथा दूसरा जिसका चिन्तन किया जाता है, अर्थात् उसमें जीव और ब्रह्म दोनों भिन्न-भिन्न होने पर ही चिन्तन सम्भव है। अज्ञानी ही अपने को उस पर-ब्रह्म से भिन्न जीव-मात्र समझता है इसलिए वह उस ब्रह्म से भिन्न है तभी वह देखता है। यह स्थिति पूर्णज्ञान से पूर्व की है जिसमें मन को उस ब्रह्म का आभास मात्र होता है। इसमें द्वैत बना रहता है। इस स्थिति में वह ‘मैं ब्रह्म हूँ’ का चिन्तन भी करता है किन्तु उसमें ‘मैं’ और ‘ब्रह्म’ दोनों की उपस्थिति रहती है। पूर्णज्ञान की स्थिति में जीव और ब्रह्म का भेद ही मिट जाता है, दोनों एक हो जाते हैं, अहंकार के कारण ही ‘मैं’ का ‘ब्रह्म’ से भिन्न अस्तित्व ज्ञात हो रहा था। वह मिट जाता है तो सर्वत्र एक ही ब्रह्म की अनुभूति होती है फिर कौन किसका चिन्तन करे। ज्ञान की यही चरम स्थिति अद्वैत की है जिसका अनुभव कुछ ही उच्चकोटि के ज्ञानियों को हुआ है, जिन्होंने अहंकार बचा लिया उन्हें ‘मैं’ से भिन्न ‘ब्रह्म’ की अनुभूति हुई।
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोतिकिम्।। 17।।
अर्थात: जो आत्मा में विक्षेप देखता है वह भला चित्त का निरोध करे, लेकिन विक्षेपमुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे।
व्याख्या: हर प्राणी के भीतर जो चेतना है वही उसकी आत्मा है। इस चेतना शक्ति के कारण ही मन, शरीर, इन्द्रियाँ आदि सक्रिय होती हैं। अपने-अपने गुण-धर्म के अनुसार कार्य करती हैं। यही चेतनाशक्ति आत्मा है, यही ब्रह्म है, यही ईश्वर व परमात्मा है। किन्तु यह आत्मा सूक्ष्म है, एवं शक्ति स्वरूपा है इसलिए इसका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता। चित्त में वासनाएँ हैं जिनसे विभिन्न प्रकार के विचारों की तरंगें उठती हैं। इन तरंगों के कारण आत्मा का अनुभव प्रत्यक्ष रूप से सभी को नहीं होता। चित्त में विभिन्न प्रकार की वृत्तियाँ हैं जिनसे आत्मा का बिम्ब स्पष्ट नहीं दिखाई देता। योग का सिद्धांत है कि यदि इन चित्त की वृत्तियों का निरोध कर दिया जाय तो आत्मा का अनुभव हो सकता है इसलिए योगी आत्मज्ञान के लिए इनका निरोध करते हैं। यह निरोध साधना की अवस्था है। अष्टावक्र कहते हैं कि चित्त का निरोध तभी किया जाता है जबकि आत्मा में विक्षेप दिखाई दे किन्तु जिस पुरुष को आत्मज्ञान हो चुका है, जिसका चित्त शान्त एवं विक्षेप रहित हो गया है जिसमें साध्य अर्थात् चित्त का ही अभाव हो गया है वह भला क्या करें। तात्पर्य है कि आत्मज्ञान की स्थिति में केवल आत्मा ही शेष रहती है, चित्त, मन, शरीर, संसार आदि के विक्षेप ही समाप्त हो जाते हैं। फिर किसका निरोध किया जाय। चित्त आत्मा का विक्षेप ही है। जब तक चित्त है तब तक उसका निरोध करने को कहा जाता है। उसमें साधन, और साधक तीन रहते हैं। ज्ञान उपलब्ध होने पर चित्त न रहने पर साधना व्यर्थ हो जाती है।
धीरो लोकविपर्यस्तो वत्र्तमानोऽपि लोकवत्।
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्य पश्यति।। 18।।
अर्थात: जो संसार की तरह बरतता हुआ भी संसार से भिन्न है। वह धीर पुरुष न अपनी समाधि को, न विक्षेप को और न बन्धन को ही देखता है।
व्याख्या: ज्ञानी और अज्ञानी में बाहर कोई अन्तर नहीं दिखाई देता किन्तु भीतर के तल पर बड़ा अन्तर हो जाता है। अज्ञानी के कार्य मन, बुद्धि, अहंकार एवं वासना-तृप्ति के लिए ही होते हैं। वह शरीर-पोषण में ही केन्द्रित रहता है। वह केवल आत्मा का ही भोग करता है। ज्ञानी भी खाता-पीता है तथा अज्ञानी की भाँति ही सभी बाह्य कर्म करता है किन्तु भीतर जगा हुआ रहता है। अज्ञानी भी कर्म करता है किन्तु भीतर से सोता रहता है। आत्मज्ञान को प्राप्त होकर कबीर कपड़ा बुनता रहा, रैदास जूते सीता रहा, सेन नाई बाल काटता रहा, बाह्य कर्मों में कोई अन्तर नहीं आया। अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मज्ञानी संसार की तरह बरतता हुआ भी संसार से भिन्न है। यह भिन्नता भीतरी है, बोध की है। ऐसा ज्ञानी धीर पुरुष मुक्त है। वह समाधि, विक्षेप और बन्धनों को भी नहीं देखता है क्योंकि वह इन सबसे मुक्त है।
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित् कृतं तेन लोकदृष्टयाविकुर्वता।। 18।।
अर्थात: जो ज्ञानी पुरुष तृप्त है, भाव-अभाव से रहित है, वासना रहित है वह लोक-दृष्टि से कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है।
व्याख्या: अहंकार वश कर्म करने वाला ही कत्र्ता है। जिसका कोई अहंकार नहीं, जिसकी कोई वासना नहीं, जिसकी कोई फलाकांक्षा नहीं, कर्म करके भी कोई अपेक्षा नहीं रखता, जो भाव और अभाव की चिन्ता से रहित है, ऐसा व्यक्ति कत्र्ता नहीं है। वह संसार में कर्म करता हुआ भी उनसे अलिप्त रहता है क्योंकि उन कर्मों से प्राप्त फलों को वह क्षणिक एवं असत्य समझता है। उसे जब शाश्वत सुख व आनन्द की प्राप्ति हो गई है, वह अपने आत्मानन्द में तृप्त है इसलिए वह इन अनित्य भोगों के प्रति उदासीन हो जाता है किन्तु संसार की भाँति वह भी कर्म करता रहता है किन्तु भीतर अछूता रहता है इसलिए वह कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुग्र्रहः।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा निष्ठतः सुखम्।। 20।।
अर्थात: धीर पुरुष प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति में दुराग्रह नहीं रखता। वह जब कभी भी कुछ करने को आ पड़ता है उसको करके सुखपूर्वक रहता है।
व्याख्या: ज्ञानी पुरुष कत्र्तव्यादि अभिमान से रहित हो जाता है इसलिए उसका न प्रवृत्ति में आग्रह होता है कि यह मैं अवश्य करूँगा, न निवृत्ति में कि यह नहीं करूँगा। शपथें खा-खा कर किसी को छोड़ता भी नहीं। उसके सभी आग्रह एवं संकल्प समाप्त हो जाते हैं। वह अनाग्रह पूर्वक जो स्वाभाविक है, कर लेता है। यदि कार्य उस पर आ पड़ता है तो वह उसे करके सुखपूर्वक रहता है। आग्रह और संकल्प, प्रवृत्ति तथा निवृत्ति, ग्रहण और त्याग भी यदि अहंकारवश किये जाते हैं तो बन्धन है। स्वाभाविक रूप से करना ज्ञानी के लिए भी अपेक्षित है। ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मों में यही भीतरी अन्तर है। बाह्य अन्तर नहीं होता। कोई व्यक्ति पानी में डूब रहा है तो ज्ञानी भी उसे बचायेगा व अज्ञानी भी। दोनों के कार्य में भिन्नता नहीं होगी किन्तु अज्ञानी भागेगा पुरस्कार, पाने, कि कहीं राष्ट्रपति पदक मिल जाय कि अपनी जान जोखिम में डालकर उसने किसी के प्राण बचाये, अखबारों में खबर छप जाये, फोटो छप जाय, किन्तु ज्ञानी अपना कर्तव्य निभाकर चुपचाप विदा हो जाता है, धन्यवाद लेने की भी अपेक्षा नहीं रखता, वह नहीं कहता कि मैंने तुम्हारे साथ इतना उपकार किया, तुमने धन्यवाद भी नहीं दिया, बड़े दुष्ट हो- मैं नहीं बचाता तो तुम मर जाते। यही भीतरी अन्तर है दोनों में। एक ओर ऐसे मूढ़ भी हैं जो चुपचाप देखते रहते हैं व कहते हैं कौन किसे बचाता है, वह अपने कर्मों का फल भोग रहा है, भोग लेने दो। तुमने बचाया तो वह कर्मों का फल नहीं भोग सकेगा जिसका पाप तुमको लगेगा। यदि बचकर उसने किसी की हत्या कर दी तो उसका पाप तुम्हें ही लगेगा। इसी प्रकार कुछ मूढ़ दान देने में में भी ऐसा हिसाब लगाते हैं कि क्या पता इससे वह शराब पीयेगा या जुआ खेलेगा तो पाप तुम्हें भी लगेगा। ऐसी मूढ़ मान्यताएँ कई अज्ञानी बना लेते हैं। अहंकार रहित एवं स्वाभाविक रूप से फलाकांक्षा रहित होकर किया गया कर्म ही मुक्त करता है जो स्वभाव से होता है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)