अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

अहंकारी व धीर में अंतर

अष्टावक्र गीता-62

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

अष्टावक्र जी राजा जनक को अहंकारी व धीर में अंतर बताते हुए कहते हैं कि अहंकारी कर्म न करते हुए भी कर्म करता है जबकि धीर पुरुष कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करता।

अष्टावक्र गीता-62

नानाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जानाति न श्रृणोति न पश्यन्ति।। 27।।
अर्थात: जो धीर पुरुष अनेक प्रकार के विचारों से थककर शान्ति को उपलब्ध होता है वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है, न देखता है।
व्याख्या: अज्ञानी संसार के भोगों को भोगता है। जब वह शरीर और इन्द्रियों के भोगों से तृप्त हो जाता है, जब उसे उसमें सार नहीं दिखाई देता, जब उसे उनमें रस नहीं आता तब संन्यास का जन्म होता है। संन्यास संसार के अनुभवों का सार, निचोड़ है, उनकी निष्पत्ति है। ऐसा संन्यास ही वास्तविक है। संसार के अनुभवों को प्राप्त किये बिना जो संन्यास लेता है वह थोपा हुआ है, कच्चा है, कभी डगमगा सकता है, संन्यास लिया नहीं जाता, होता है। यह कार्य नहीं है, अनुभूति है, उत्कृष्ट जीवन की ओर बढ़ा हुआ एक कदम है। ऐसा संन्यासी ही आत्मज्ञान का अधिकारी है एवं वही शान्ति को प्राप्त होता है। इसी प्रकार बुद्धिजीवी अनेक प्रकार के विचारों में उलझा रहता है। वह संसार, कर्म, भोग, अध्यात्म, ईश्वर, परमात्मा, आत्मा आदि अनेक विषयों का अध्ययन, चिन्तन एवं मनन करता है, अनेक शास्त्र पढ़ता है, सत्संग करता है ज्ञान गोष्ठियाँ करता है, सिद्ध महात्माओं के पास जाकर विचार-विमर्श करता है किन्तु इनसे उसे शान्ति नहीं मिलती। वह इन विचारों में अधिक से अधिक उलझता जाता है। उनसे उसे सत्य प्राप्त नहीं होता क्योंकि सत्य एक ही है, असत्य अनेक हैं। हर व्यक्ति के अपने-अपने असत्य हैं, असत्य सब निजी हैं, व्यक्तिगत हैं। सत्य सबका एक ही है। यह किसी की बपौती नहीं है, न इसका कोई दावेदार है। इसलिए सत्य के सम्प्रदाय नहीं बनते, सभी सम्प्रदाय असत्य के ही हैं। सम्प्रदायों का आधार ही असत्य, दावेदारी, अहंकार, संकीर्णता, स्वार्थ है। जहाँ सम्प्रदाय है वहाँ सत्य नहीं है, सम्प्रदायों में सत्य नहीं होता, जहाँ सत्य है वहाँ सम्प्रदाय नहीं होते। इसलिए अष्टावक्र का सम्प्रदाय नहीं बन सका। सत्य चैबीस केरेट रह जाता है। आजकल सम्प्रदाय तो चैदह केरेट वाले ही हैं, इतनी मिलावट हो गई है। सत्य में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, स्त्री, पुरुष, वेद, कुरान, धम्मपद, गीता का भेद होता ही नहीं। भेद मात्र असत्य है। अभेद ही सत्य है। सभी विचारक, चिन्तक इस सम्पूर्ण रहस्य को विचारों से समझना चाहते हैं किन्तु इनसे उसे ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, एवं आत्मज्ञान के बिना शान्ति नहीं मिलती। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि जो इन विचारों से थककर जो शान्ति को उपलब्ध होता है, वही विचारों से मुक्त हो सकता है एवं उसी को आत्मज्ञान का फल मिलता है। यह मूढ़ को भी उपलब्ध नहीं होता जिसने कभी कोई विचार किया ही नहीं। इसलिए जिसने संसार को भोगा है तथा जो चिन्तन की पराकाष्ठा पर पहुँचा है, उसी को आत्मज्ञान का फल मिलता है। जिसने संसार को ही नहीं जाना वह परमात्मा को क्या जान सकेगा, जो संसार को दुःख समझकर सदा रोता रहा है वह परमात्मा को पाकर कैसे आनन्दित हो सकेगा। उसकी आदत तो रोने की ही है। इसलिए वहाँ भी रोयेगा ही। ज्ञानी पुरुष पूर्ण शान्ति का अनुभव करते हैं। वे एक आत्मा में स्थित हो जाने से अन्य की न कल्पना करते हैं, न जानते हैं, न सुनते हैं, न देखते हैं। सर्वत्र उसी आत्मा को ही जानते हैं।

असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्ंिचत्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः।। 28।।
अर्थात: महाशय पुरुष विक्षेप-रहित और समाधि रहित होने के कारण न मुमुक्षु है, न गैर-मुमुक्षु होता है। वह निश्चयपूर्वक संसार को कल्पित देखता हुआ ब्रह्मवत् रहता है।
व्याख्या: चित्त की वृत्तियों से ही विक्षेप उत्पन्न होते हैं। ये विक्षेप अशान्ति का कारण होते हैं। चित्त की इन वृत्तियों को शान्त करने के लिए समाधि का अनुष्ठान किया जाता है। ज्ञान-प्राप्ति का मुमुक्षु ही चित्त की वृत्तियों के निरोध हेतु समाधि का सहारा लेता है किन्तु ज्ञानी की समस्त चित्त वृत्तियाँ शान्त हो जाने से वह विक्षेप-रहित है, उसे समाधि की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसा ज्ञानी मुमुक्षु भी नहीं है, न गैर-मुमुक्षु ही है क्योंकि उसने वह सब पा लिया है जिसे पाने के लिए ये साधन किये जाते हैं। वह संसार को कल्पित देखता हुआ सदा ब्रह्मवत् रहता है।

यस्यान्तः। स्यादहंकारो न करोति करोति सः।
निरहंकार धीरेण न किंचितदकृतं कृतम्।। 29।।
अर्थात: जिसके अन्तःकरण में अहंकार है वह कर्म नहीं करते हुए भी कर्म करता है और अहंकार-रहित धीर पुरुष कर्म करते हुए भी नहीं करता है।
व्याख्या: अहंकार ही मूल पाप है। इसी से मनुष्य अपने को परमात्मा से भिन्न मानता है। इसी से उसमें कत्र्तापन का भाव होता है। इसी कत्र्तापन के कारण वह कर्म-फलों का भोक्ता होता है। यदि अहंकार मिट जाये तो वह कत्र्तापन से मुक्त हो जाता है, फिर वह सभी कर्मों को ईश्वरीय समझकर करेगा, अपने को निमित्त मात्र समझेगा। आत्मज्ञानी ही ऐसा समझता है कि ये कर्म शरीर द्वारा किये जा रहे हैं, मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं हूँ इसलिए ये कर्म मुझसे नहीं हो रहे हैं। ऐसा ज्ञानी अहंकार रहित होने से कर्म करता हुआ भी नहीं करता है। वह उनके कर्मों का भोक्ता भी नहीं होता। इसके विपरीत अज्ञानी कर्म नहीं करता हुआ भी कर्म करता है क्योंकि शरीर से किये जाने वाले कर्मों को रोककर भी उसके विचार तो चलते ही रहते हैं, योजना मन में बनती ही रहती है, सद-असद् वृत्तियाँ तो विद्यमान हैं ही तथा अहंकार मौजूद है जिससे उसके ये विचार व भावनाएँ ही बन्धन बन जाती हैं। कर्म नहीं करने से उनका रेचन भी नहीं होता। इसलिए वह चैबीस घण्टे कर्म नहीं करता हुआ भी कर्म करता है। मुक्ति के लिए कर्म छोड़ना नहीं है बल्कि अहंकार छोड़ना है, कत्र्तापन छोड़ना है।

नोद्विग्नं न च संतुष्टमकर्तृस्पन्दवर्जितम्।
निराशं गतसंदेहं चित्तं मुक्तस्य राजते।। 30।।
अर्थात: मुक्त पुरुष का उद्वेग-रहित, सन्तोष-रहित, कर्तव्य-रहित, स्पन्द रहित, आशा-रहित, सन्देह-रहित चित्त ही शोभायमान है।
व्याख्या: मुक्त पुरुष का चित्त पूर्णतः शान्त हो जाता है, सभी प्रकार के द्वन्द्वांे से रहित हो जाता है जिससे वह उद्वेग-रहित, सन्तोष-रहित, कर्तव्य-रहित, आशा-रहित और सन्देह-रहित हो जाता है। अब उसके सारे कार्य निश्चित, विवेकपूर्ण एवं स्वभावानुकूल होते हैं। अहंकार एवं चित्त की वृत्तियों के आवेश में आकर कोई कर्म नहीं करता। वह सभी कार्य करता हुआ भी अलिप्त, अछूता रहता है। ऐसा ज्ञानी ही शोभायमान होता है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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