अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

वासना रहित आत्मज्ञान

अष्टावक्र गीता-66

 

महाज्ञानी अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि आत्मज्ञान वासना रहित होता है। वासना रहित पुरुष सिंह को देख विषय रूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं अथवा चाटुकार की करत सेवा करते हैं।

अष्टावक्र गीता-66

निर्वासनं हरि दृष्टा तृष्णीं विषयदन्तिनः।
पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः।। 46।।
अर्थात: वासना रहित पुरुष सिंह को देखकर विषय रूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं या वे असमर्थ होकर चाटुकार की तरह उसकी सेवा करने लगते हैं।
व्याख्या: इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि विषयों से भयभीत होकर भागने से भय भीतर बना रहेगा। वह स्वप्न एवं ध्यान तथा समाधि में फिर उत्पात मचायेगा। इसलिए विषयों से भागकर जंगल जाने से तपस्या का समाधान नहीं होगा बल्कि वासना रहित हो जाना ही इसका उपाय है। वासना ही आकर्षण पैदा करती है। यदि वासना खो गई तो आकर्षण अपने आप समाप्त हो जायेगा। फिर चित्त का निरोध करना नहीं पड़ेगा, पर्वतों की गुफाओं में जाना नहीं पड़ेगा। यह उपलब्धि घर बैठे ही, संसार में रहते हुए भी हो सकती है। अष्टावक्र कहते हैं कि यद्यपि यह विषय हाथी के समान बलवान हैं, इन्हें आसानी से काबू में करना कठिन है किन्तु वासना रहित पुरुष उस सिंह के समान है जिसे देखकर ये विषय चुपचाप भाग जाते हैं या इतने असमर्थ हो जाते हैं कि वे उसे प्रभावित न कर चाटुकार सेवक की भाँति उसकी सेवा करते हैं जबकि अज्ञानी वासना-ग्रस्त होकर उन्हें भोगता है। ज्ञानी विवेक से उनका उपयोग करता है। अज्ञानी पर विषय हावी हो जाते हैं। यही अन्तर पड़ता है।

न मुक्तिकारिकान्धते निःशंको युक्तमानसः।
पश्यञच्छृण्वन्स्पृशजिंघ्रन्नास्ते यथाासुखम्।। 47।।
अर्थात: शंकारहित और मुक्त मन वाला पुरुष मुक्तिकारी योग (यम, नियमादि) को आग्रह के साथ नहीं ग्रहण करता है लेकिन वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है।
व्याख्या: जिसकी सभी वासनाएँ मिट गईं, जिसकी सभी वृत्तियाँ शान्त हो गईं, जिसे अब कुछ भी पाने की चाह नहीं रही ऐसा आत्मज्ञान को प्राप्त व्यक्ति ही शंकारहित एवं मुक्त मन वाला होता है। मन से मुक्त होने के कारण ही वह सब द्वन्द्वों के पार होकर केवल आत्मा में स्थिर रहता है। उसके सभी आग्रह समाप्त हो जाते हैं उसका अहंकार गलित हो जाता है जिससे कर्तव्य का अभिमान नहीं रहता। वह यम, नियमादि जितने भी मुक्तिकारी योग हैं उन्हंे आग्रह पूर्वक ग्रहण नहीं करता है बल्कि ये अब उससे स्वभावतः होते रहते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह ये पाँच नियम हैं जिनको योगी आग्रह पूर्वक पालन करता है किन्तु ज्ञान प्राप्ति के बाद ज्ञानी का स्वभाव ही ऐसा हो जाता है जिससे इनके पालन करने में कोई जबर्दस्ती नहीं करनी पड़ती। ऐसा ज्ञान बिना किसी आग्रह के देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना, खाना आदि इन्द्रियों के सभी कार्य यथावत् करता हुआ भी सुखपूर्वक रहता है।

वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबु द्धि र्निराकुलः।
नैवाचारमनाचारमौदास्यं वा प्रपश्यति।। 48।।
अर्थात: यथार्थ ज्ञान के सुनने मात्र से शुद्ध बुद्धि और स्वस्थ चित्त हुआ पुरुष न आचार को, न अनाचार को, न उदासीन को देखता है।
व्याख्या: आचार और नवाचार, उदासीनता और कर्मठता सब अज्ञानियों के लिए हैं। मन की उपस्थिति से ही यह भेद पैदा होता है किन्तु आत्मज्ञान पुरुष स्वस्थचित्त एवं शुद्ध बुद्धि वाला हो जाता है। उससे जो भी कर्म होंगे पूर्ण जागरूकता एवं विवेक से होंगे। उसमें स्वार्थ, वासना एवं अहंकार आदि न होने से वह जो भी कर्म करेगा, वह स्वस्थ ही होगा। उसमें विकार आ ही नहीं सकते। अष्टावक्र कहते हैं कि ऐसा तत्व-बोध यदि किसी का अन्तःकरण शुद्ध है तो सुनने मात्र से ही हो जाता है। यदि सुनने की कला किसी को ज्ञात है तो आत्मज्ञान के लिए किसी जप, तप, योग, ध्यान, समाधि, कर्मकाण्ड, हठयोग, भक्ति आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। सुनने मात्र से यह सब हो जाता है क्यांेकि यह संसार, वासना, बन्धन आदि के कारण ज्ञात होते हैं, भ्रम मात्र हैं, अन्धकारवत् हैं जो ज्ञान से अपने आप विलीन हो जाते हैं। प्रयत्न नहीं करना पड़ता। किसी विधि की आवश्यकता नहीं है।

यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः।
शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत्।। 49।।
अर्थात: धीर पुरुष जब कुछ शुभ या अशुभ करने को आ पड़ता है तो उसे सहजता के साथ करता है क्योंकि उसका व्यवहार बालवत् है।
व्याख्या: बालक और ज्ञानी में थोड़ी समानता है कि दोनों स्वभाव में जीते हैं किन्तु बालक मन के स्वभाव में जीता है। वह अपनी सारी इच्छाएँ पूरी करना चाहता है। शुभ-अशुभ का भेद उसमें नहीं होता क्योंकि उसकी बुद्धि का विकास अभी हुआ नहीं है। बुद्धि ही भेद उत्पन्न करती है किन्तु ज्ञानी मन के नहीं आत्मा के स्वभाव में जीता है। वह मन और बुद्धि के पार हो चुका है। वह बुद्धि का उपयोग विवेक से करता है। इसलिए वह ज्ञानी पुरुष भी शुभ-अशुभ का भेद नहीं करता है बल्कि आत्मा के स्वभाव के अनुकूल जो करने को आवश्यक होता है वह बालवत् कर लेता है। किसी प्रकार का आग्रह दुराग्रह आदि नहीं होता। ऐसा ज्ञानी ही सुखपूर्वक रहता है।

स्वातन्त्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातन्त्र्याल्लभते परम्।
स्वातन्त्र्यान्निवृतिं गच्छेत् स्वातन्त्र्यात्परमं पदम्।। 50।।
अर्थात: धीर पुरुष स्वतन्त्रता से सुख को प्राप्त होता है, स्वतन्त्रता से परम को प्राप्त होता है, स्वतन्त्रता से नित्यसुख को प्राप्त होता है और स्वतन्त्रता से परमपद हो प्राप्त होता है।
व्याख्या: आत्मज्ञानी सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। वासना, कामना, तृष्णा, अहंकार आदि से ही मनुष्य बन्धनों का निर्माण कर लेता है। इन बन्धनों के कारण ही विषयों की गुलामी उसे सहन करनी पड़ती है, इन्हीं से सुख-दुःख, हर्ष-विषाद का अनुभव होता है, इन्हीं से उसके कर्म बन्धन बनते हैं जिसे वह अनेक जन्मों तक भोगता ही रहता है। आत्मज्ञान के बिना इनसे छुटकारा नहीं हो सकता। ज्ञानी ही इस तत्व को जानकर सर्व बन्धनों से मुक्त होकर परम सुख में स्थित हो जाता है। बन्धन-रहित हो जाना ही परम स्वतन्त्रता है, यही मुक्ति है। सिद्धशिला पर बैठना भी मुक्ति नहीं है क्योंकि वहीं बैठना है, अन्यत्र जाने का कोई विकल्प नहीं है इसलिए वह भी बन्धन ही है। जहाँ रहने को मजबूर किया जाय वह कारागृह ही है, मुक्ति कहाँ हुई, स्वतन्त्रता कहाँ है। परम पद तो स्वतन्त्रता ही है एवं यही परम सुख है। जीव की यही अन्तिम स्थिति है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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