
अष्टावक्र जी धीर पुरुष के लक्षण पुनः बताते हैं। वह कहते हैं कि धीर पुरुष की स्वाभाविक उच्छृंखल स्थिति भी शोभती है क्योंकि वह भीतर से निर्मल होता है। उसमंे कोई विकार नहीं होता।
अष्टावक्र गीता-67
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।। 51।।
अर्थात: जब मनुष्य अपनी आत्मा के अकत्र्तापन और अभोक्तापन को मानता है तब उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों का नाश हो जाता है।
व्याख्या: मनुष्य न कत्र्ता है, न भोक्ता, न वह कर्म करता है, न उसका फल ही भोगता है। मनुष्य पापी है ही नहीं उससे पाप हो ही नहीं सकता, यह वेदान्त की घोषणा है किन्तु मनुष्य अहंकार के कारण स्वयं को आत्मा एवं ब्रह्म से भिन्न समझने लग गया। इसी अज्ञान एवं भ्रान्ति के कारण वह अपने को कत्र्ता मानने लगा। कत्र्ता मानने से वह भोक्ता भी बन गया। यही उसका पाप हो गया। जिस समय वह अपने को शरीर, मन एवं अहंकार से भिन्न केवल आत्मरूप निश्चित कर लेता है उसी क्षण वह न कत्र्ता रहता है न भोक्ता, न उससे कोई पाप होता है, न पुण्य। आत्मज्ञान में उसकी समस्त चित्तवृत्तियाँ ही शान्त हो जाती हैं, उसका अहंकार ही गलित हो जाता है, ‘मैं’ भाव ही समाप्त हो जाता है फिर कौन कत्र्ता है और कौन भोक्ता, कहना कठिन हो जाता है। आत्मज्ञान की स्थिति में ही ऐसा सम्भव है अन्यथा उसका कत्र्ता एवं भोक्तापन रहेगा ही जिससे वह पाप-पुण्य का भागी भी होगा।
उच्छंृखलाप्याकृतिका
स्थितिर्धीरस्य राजते।
न तु संस्पृहचित्तस्य शान्तिर्मूढस्य कृत्रिमा।। 52।।
अर्थात: धीर पुरुष की स्वाभाविक उच्छृंखल स्थिति भी शोभती है लेकिन स्पृहायुक्त चित्त वाले मूढ़ की बनावटी शान्ति भी नहीं शोभती।
व्याख्या: मनुष्य में स्पृहा है, वासना है। इसी स्पृहा के कारण उसे यह शरीर मिला है। यदि संसार में कुछ भोगने की, कुछ करने की चाह ही नहीं होती तो यह शरीर उसे मिलता ही नहीं। घड़े का निर्माण तभी होता है जब उसमें कुछ भरना है। यदि भरने को कुछ नहीं है तो घड़े का निर्माण ही नहीं होता। स्पृहा, वासना आदि मन का गुण है। स्पृहा एवं वासना के कारण ही इस भौतिक जगत् का अस्तित्व है, इसी से मनुष्य सारे रचनात्मक एवं विध्वंसात्मक कार्य करता है। संसार की जैसी भी स्थिति है वह स्पृहा के कारण ही है अतः स्पृहा ही संसार है। बिना इसके कुछ भी नहीं मिलता है। स्पृहा के रहते शान्ति की आशा करना मृग-मरीचिका ही है जो कभी हो नहीं सकती। यदि कोई स्पृहायुक्त चित्त वाला कहता है कि मैं शान्त हूँ मुझे शान्ति का अनुभव हो गया है तो वह पाखण्डमात्र है, वह शान्ति बनावटी ही है, वह शान्ति का ढोंग कर रहा है। आधा घण्टा ध्यान कर लिया, दस माला गायत्री की जप लीं, किसी आश्रम में एक घण्टा बैठ गये और कहने लगे मुझे शान्ति प्राप्त हुई है। यह शान्ति नहीं धोखा है, पाखण्ड है। वे शान्त प्रतीत होते हुए भी अशान्त हैं, उनकी शान्ति ऊपरी-ऊपरी है जो एक क्षण में विलीन हो सकती है। ऐसी शान्ति मूढ़ की ही शान्ति है जो क्षणिक है, बनावटी है। इसके विपरीत ज्ञानी स्पृहामुक्त हो जाने से वास्तविक शान्ति को उपलब्ध होता है, क्योंकि अशान्ति का कारण स्पृहा थी जो नष्ट हो गई इसलिए वही परमशान्त है, उसकी शान्ति स्वाभाविक है। यदि ऐसा ज्ञानी उच्छृृंखल भी दिखता है तो भी वह शोभा पाता है क्योंकि उसमें कोई विकार नहीं होता, उसके पीछे स्पृहा, वासना नहीं होती। भीतर की गंदगी को छिपाने के लिए मनुष्य बाहरी आडम्बर करके उसे छिपाना चाहता है जबकि भीतर से निर्मल होने पर उसे इसकी आवश्यकता नहीं होती।
विलसन्ति महाभोगैर्विशन्ति गिरिगह्व्रान्।
निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्त बुद्धयः।। 53।।
अर्थात: कल्पना-रहित, बन्धन-रहित और मुक्त बुद्धि वाले धीर पुरुष कभी बड़े-बड़े भोगों के साथ क्रीड़ा करते हैं, और कभी पहाड़ की कन्दराओं में प्रवेश करते हैं।
व्याख्या: जिस ज्ञानी की स्पृहा शान्त हो गई, कोई वासना नहीं रही, जो कल्पना-रहित, बन्धन-रहित हो गया, जिसे सृष्टि में एकत्व का बोध हो गया वह मुक्तचित्त वाला धीर पुरुष बड़े-बड़े भोगों के साथ क्रीड़ा की भाँति, खेल की भाँति नाटकवत् तटस्थ होकर साक्षीभाव से भोगता है। वह चाहे तो पहाड़ की कन्दराओं में भी रह सकता है। दोनों में ही वह अनाग्रहपूर्ण होता है। दोनों में वह समभाव वाला रहता है। जिसे भोगों के भोगने या उन्हें त्यागकर जंगल चले जाने का आग्रह होता है जो सब कुछ नियम-संयम में बँधकर कार्य करता है, जो सिद्धांतों, मान्यताओं, परम्पराओं, रूढ़ियों के अनुसार चलता है ऐसा व्यक्ति मुक्त नहीं है वह बन्धन ग्रस्त है। ज्ञानी सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर केवल आत्मा में रमरण करने वाला स्वच्छन्दचारी होता है।
श्रोत्रियं देवतां तीर्थंगमनां भूपतिं प्रियम्।
दृष्टा संपूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना।। 54।।
अर्थात: धीर पुरुष के हृदय में पण्डित, देवता और तीर्थ का पूजन करके तथा स्त्री, राजा और प्रियजन को देखकर कोई वासना नहीं होती।
व्याख्या: अज्ञानी की स्पृहा होती है, वासना होती है जिनकी पूर्ति हेतु वह ज्ञान-प्राप्ति के लिए पण्डितों के पास जाता है, धन, यश एवं पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं की पूजा, अर्चना करता है, अपने पापों के प्रक्षालन हेतु वह तीर्थों का भ्रमण करता है, उनका पूजन करता है, मन्दिरों में जाकर अर्चना, वन्दना करता है, वह स्त्री को देखकर काम मोहित होकर उसको प्राप्त करना चाहता है, वह राजा की चाटुकारिता करता है, मन्त्रियों के पीछे-पीछे घूमता है कि कहीं कोई पद मिल जाय, चुनाव टिकिट मिल जाय, वह प्रियजनों को देखकर भी उनसे कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। अष्टावक्र कहते हैं कि धीर पुरुष ज्ञानी भी इन्हें देखता है किन्तु उसमें वासना नहीं होने से वह इनसे कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता। वासनायुक्त मन ही विकारी होता है।
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिमनाक्।। 55।।
अर्थात: योगी नौकरों से, पुत्रों से, पत्नियों से, दोहित्रों और बान्धवों द्वारा हँसकर धिक्कारे जाने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता है।
व्याख्या: अज्ञानी वासनाग्रस्त तथा अहंकारी होता है। वासना के कारण ही उसमें लोभ एवं मोह होता है जिनकी पूर्ति न होने पर उसे क्रोध आता है। मान-सम्मान की चाह अहंकार के कारण होती है। यदि वह न मिले अथवा कोई उसका तिरस्कार करे, अपमान करे, उपेक्षा करे तो उसकी सीधी चोट उसके अहंकार पर होती है जिससे वह तिलमिला उठता है एवं बदला लेने का प्रयत्न करता है। जब द्रोपदी ने कौरवों को कहा कि अन्धे के अन्धे ही होते हैं, तो कौरवों के अहंकार पर चोट लगी एवं उसकी परिणति महाभारत युद्ध में हुई। संसार में इस अहंकार पर चोट करने के कारण ही अनेक उपद्रव हुए हैं एवं जो इस अहंकार को फुसलाने की कला जानते हैं वे अपना काम बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं। अहंकार से मुक्त योगी यदि पाप नहीं करता तो पुण्य भी नहीं करता। वह जैसा है वैसा ही अपने स्वभाव में स्थित रहता है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि योगी अहंकार रहित हो जाने से अपने नौकरों, पुत्रों, पत्नियों, दोहित्रों और बान्धवों आदि के द्वारा धिक्कारे जाने पर भी तथा हँसी उड़ाई जाने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि अहंकार ही सब विकारों का मूल है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)