
अष्टावक्र जी प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि जिसमंे वासना, अहंकार, आसक्ति आदि नहीं है वह संसार में प्रवृत्त रहता हुआ भी निवृत्ति का ही फल पाता है।
अष्टावक्र गीता-69
स्वभावाद्यस्य नैवार्तिर्लोक वद्वîवहारिणः।
महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेशः सुशोभते।। 60।।
अर्थात: जो ज्ञानी स्वभाव से व्यवहार में भी सामान्यजन की तरह नहीं व्यवहार करता और महासरोवर की तरह क्लेशरहित है, वही शोभता है।
व्याख्या: ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही संसार में रहते हुए सभी प्रकार के कार्य एवं व्यवहार करते हैं किन्तु अज्ञानी के सभी कर्म तथा व्यवहार अहंकार, वासनाएँ एवं अपेक्षाओं के कारण होते हैं जिनसे वह दुःख को ही प्राप्त होता है जबकि ज्ञानी कर्म एवं व्यवहार करता हुआ भी उनसे अलिप्त रहता है, उन्हें खेल समझकर करता है, फलाकांक्षाएँ एवं अपेक्षाएँ उनके साथ लगी न होने से वह खेद को प्राप्त नहीं होता। कर्म में ही उसका आनन्द निहित रहता है जबकि अज्ञानी का आनन्द फलाकांक्षा में निहित रहता है इसलिए वह सदा दुःखी ही रहता है। अष्टावक्र कहते हैं कि ऐसा ज्ञानी महासरोवर की भाँति शांतमना होने से शोभित होता है तथा क्लेश रहित होता है। अज्ञानी के संसार में जितने भी व्यवहार हैं उन सबका पालन करते हुए भी दुःखी रहता है जबकि ज्ञानी इन सामान्यजनों की भाँति व्यवहार नहीं करता हुआ भी क्षोभ एवं क्लेश रहित होता है। दिखावे का व्यवहार क्लेश का ही कारण बनता है।
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरूपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिर्फलदायिनी।। 61।।
अर्थात: मूर्ख मनुष्य की निवृत्ति भी प्रवृ़ित्त रूप हो जाती है किन्तु धीर पुरुष की प्रवृत्ति भी निवृत्ति के समान फल देती है।
व्याख्या: इस सूत्र से अष्टावक्र प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि मूढ़ पुरुष चाहे सांसारिक पदार्थों को घर-बार, पत्नी, बच्चों आदि को छोड़कर जंगल चला जाय, वह चाहे हाथी, घोड़े, हीरे, जवाहरात, महल आदि छोड़कर कोपनी धारण करके संन्यासी बन जाय, चाहे वह मुण्डन करा ले, चाहे लोचन करे किन्तु जब तक उसमें अज्ञान है, मूढ़ता है, अहंकार है, वासना है, आसक्ति है, कुछ पाने की आकांक्षा है तब तक उसमें निवृत्ति नहीं, प्रवृत्ति ही है। उसने घर छोड़कर आश्रम बना लिया, संसार से विरक्त होकर मोक्ष में प्रवृत्त हो गया, संसार की वासना छोड़कर स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति की नई वासना पकड़ ली इसलिए वह भी निवृत्त जैसा दीखता हुआ भी प्रवृत्त हो गया, संसार की वासना छोड़कर स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति की नई वासना पकड़ ली इसलिए वह भी निवृत्त जैसा दीखता हुआ भी प्रवृत्त ही है। संसार का उपद्रव छोड़कर आश्रम में नया उपद्रव शुरू कर देगा। संसार में सम्मान नहीं मिल रहा था, आश्रम में सम्मान-प्राप्ति की वासना और बढ़ जाती है। इसलिए ऐसा व्यक्ति निवृत्त नहीं है। इसके विपरीत जिस ज्ञानी मंे वासना, अहंकार, आसक्ति आदि नहीं है वह संसार में प्रवृत्त रहता हुआ भी निवृत्ति का फल पा लेता है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति की कसौटी विषय नहीं बल्कि भीतरी वासना है।
परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता।। 62।।
अर्थात: मूढ़ पुरुष का वैराग्य परिग्रह से देखा जाता है लेकिन देह में गलित हो गई है आशा जिसकी, ऐसे ज्ञानी को कहाँ राग है? कहाँ वैराग्य?
व्याख्या: इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि परिग्रह का त्याग वैराग्य नहीं है किन्तु मूढ़ पुरुष धन, सम्पत्ति, घर-बार, राज्य, महल आदि परिग्रह के छोड़ने को ही वैराग्य समझता है। वे किसी त्याग का मूल्यांकन परिग्रह से ही करते हैं कि उसने कितना छोड़ा है। अधिक परिग्रह का त्याग करने वाला महान त्यागी, महात्मा कहलाता है किन्तु यदि पाने की आशा में कुछ त्याग किया जाता है तो न वह त्याग है, न वैराग्य। हजार रुपये पाने की आशा में यदि कोई सौ रूपया रिश्वत दे देता है या पाँच रूपया मंदिर में चढ़ा देता है या गरीबों को दान दे देता है तो वह न त्याग है, न वैराग्य है। वह स्वार्थ मात्र है, वासना एवं तृष्णा ही है। अधिक को पाने के लिए क्षुद्र का त्याग तो मूढ़ भी कर सकता है तथा अधिकांश मूढ़ करते ही हैं। सोने को दूना बनाने के लालच में कितने लोग अपने स्वर्णाभूषण का त्याग कर देते हैं। यह मूढ़ता ही है, त्याग और वैराग्य नहीं है। राग और वैराग्य दोनों ही अज्ञान हैं। इसके विपरीत ज्ञानी जो आत्मा में रमण करने वाला है, उसकी सभी सांसारिक आशाएँ छूट जाती हैं, वह संसार, उसकी सम्पत्ति, सुख आदि को क्षुद्र, नाशवान् एवं क्षणिक मानकर छोड़ देता है, वह न रागी है, न विरागी। उसे कुछ भी छोड़ना नहीं पड़ता, न वह परिग्रह को ही पाप समझता है। वह यथा स्थिति सुखपूर्वक रहता है। धन, सम्पत्ति का होना संसारी का लक्षण नहीं है न उनको छोड़ देना वैराग्य होने का लक्षण है। यह मूढ़ों की दृष्टि है, ज्ञानी की नहीं। राग और विराग दोनों वासना के कारण होते हैं। वासना के रहते न ज्ञान है, न मुक्ति।
भावनाभावनासक्त दृष्टिर्मूढस्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टिरूपिणी।। 63।।
अर्थात: मूर्ख पुरुष की दृष्टि सदा भावना और अभावना में लगी रहती है जबकि स्वस्थ पुरुष (ज्ञानी) की दृष्टि भावना-अभावना से युक्त रहकर भी उनके प्रति अदृष्टि रूप ही रहती है।
व्याख्या: इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि मूढ़ पुरुष की दृष्टि सदा भावना और अभावना में ही लगी रहती है। वह हर समय इसी चिन्ता में लगा रहता है कि वासना मेरे पास है, कितने का और अभाव है जिसे पूरा करना है, किस प्रकार इन अभावों की पूर्ति की जाए, किस छल-प्रपंच, तिकड़म, झूठ, बेईमानी आदि से इसे पूरा किया जाय तथा जो है उसकी रक्षा, उसका उपयोग किस प्रकार किया जाय। उसकी सारी बुद्धि, सारी चेतना इसी भाव और अभाव के घेरे में ही घूमती रहती है। इससे परे वह कुछ भी नहीं सोच सकता। वह घाणाी का बैल बनकर इनके इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाता रहता है, न वह सुखपूर्वक इन्हें भोग सकता है, न त्याग सकता है। उसकी साँप छछुन्दर सी गति हो जाती है किन्तु ज्ञानी की दृष्टि इन दोनों से ही मुक्त रहती है। वह न इसकी चिन्ता करता है कि उसके पास क्या है, न इसकी चिन्ता है कि किसका अभाव है। दोनों से दृष्टि हटाकर जो है उसी में सन्तुष्ट रहता है क्योंकि इस भाव और अभाव का विचार ही वासना के कारण आता है। ज्ञानी वासना रहित हो जाने से इस घेरे से बाहर हो जाता है। वह भी भाव और अभाव युक्त तो रहता है किन्तु उसकी दृष्टि उन पर नहीं जाती है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)