
अष्टावक्र जी राजा जनक को बताते हैं कि कर्म बंधन नहीं होते बल्कि फल की इच्छा बंधन होती है। इसलिए आत्मज्ञानी बालक की तरह बिना कामना के कर्म करते रहते हैं। ये कर्म अर्थात् क्रियमाण उसे लिप्त नहीं करते।
अष्टावक्र गीता-70
सर्वारम्भेषु निष्कामो यश्चरेद्बालवन्मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणोऽपि कर्मणि।। 64।।
अर्थात: जो मुनि बालक के समान व्यवहार करता है एवं कामना-रहित रूप से सभी कर्मों का आरम्भ करता है, उस शुद्ध स्वरूप को क्रियमाण कर्म (किये हुए कर्म) भी लिप्त नहीं करते हैं।
व्याख्या: कर्म बन्धन नहीं है, बन्धन है कामना, आसक्ति, अहंकार। ज्ञानी तथा अज्ञानी दोनों कर्म तो करते ही हैं करने ही पड़ते हैं किन्तु दोनों की दृष्टि में अन्तर होता है। अज्ञानी के कर्म कत्र्तापन से होते हैं। उनमें आसक्ति, कामना होती है, फलाकांक्षा होती है जिससे वे बन्धन का कारण बनते हैं जबकि ज्ञानी के कर्म स्वभाव से होते हैं, निष्काम होते हैं, उनके पीछे फलाकांक्षा नहीं होती, वे बालवत् खेल के समान होते हैं इसलिए वे बन्ध नहीं बनते। ज्ञानी के संचित कर्म तो नष्ट हो जाते हैं, प्रारब्ध कर्म को वह भोग लेता है तथा कामना रहित होकर इस जन्म में जो कर्म करता है उन क्रियमाण कर्मों में चूँकि वह लिप्त नहीं होता इसलिए वे बन्धन नहीं बनते, न उनका फल भोगना पड़ता है। ज्ञानी को परम का सुख मिल जाता है इसलिए वह कर्मों द्वारा प्राप्त क्षुद्र सुख की कामना से रहित होकर कार्य करता है। उसके समस्त कार्य स्वभावगत एवं ईश्वरेच्छा से होते हैं। वह अपने को माध्यम बना देता है। स्वयं को कत्र्ता मानना ही बन्धन है।
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्व भावेषु यः समः।
पश्चञछृण्वन्स्पृश
ञिज्घ्रन्नन्निस्पर्षमानसाः।। 65।।
अर्थात: वही आत्मज्ञानी धन्य है जो मन का निस्तरण कर गया है और जो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ सब भावों में एकरस है।
व्याख्या: आत्मज्ञान में दो ही मुख्य बाधाएँ हैं-शरीर और मन। अज्ञानी की समस्त क्रियाएँ इन दोनों से संचालित होती हैं। ज्ञानी इन दोनों के पार एक तीसरी शक्ति को भी जान लेता है जो इन सबका साक्षी है, वही समस्त कर्मों का आधार एवं ऊर्जा स्रोत है, वही सत्य एवं शाश्वत है। अष्टावक्र कहते हैं कि जो इस मन का निस्तरण कर गया है इस बड़ी बाधा को लाँघ गया है, जो इस मन की वैतरणी से पार हो गया है वही आत्मज्ञान का सुख प्राप्त कर सकता है। ऐसा आत्मज्ञान धन्य है। मन के समस्त विकारों से ऊपर उठकर जिसने उस एक आत्मतत्व का अनुभव कर लिया है वह ज्ञानी इन्द्रियगत समस्त कर्मों को करता हुआ भी (देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना, खाना आदि। उनके सब भावों में एकरस रहता है। ये कर्म स्वभावगत एवं वासना रहित होते हैं।
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनम्।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा।। 66।।
अर्थात: सदैव आकाश के समान निर्विकल्प ज्ञानी को कहाँ संसार है? कहाँ आभास है? कहाँ साध्य है? कहाँ साधन है?
व्याख्या: यह संसार मन का ही प्रक्षेपण है। जैसा मन है वैसा ही संसार दिखाई देता है। संसार में राग-द्वेष, लाभ-हानि, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख जो भी दिखाई देता है सब मन का ही खेल है। इसके पार है चेतना, अस्तित्व, आत्मा जो मन का निस्तरण करने पर ज्ञात होती है। यह चेतना आकाश की भाँति स्वच्छ, निर्मल, निर्दोष है, निर्विकल्प है किन्तु वह मनरूपी विचारों के बादलों से घिरी होने के कारण दिखाई नहीं देती किन्तु वही समस्त सृष्टि का आधार है। जिस ज्ञानी का मन से तादात्म्य टूट गया उसका संसार विलुप्त हो गया, उसकी भ्रान्ति मिट गई, वह सत्य को उपलब्ध हो गया, वह साक्षी एवं दृष्टा हो गया, उसे वह सब मिल गया जिसे पाना था। ऐसे ज्ञानी के लिए न कोई साधना रह जाती है, न साध्य, न स्वर्ग, न मोक्ष, न आत्मा, न परमात्मा। जहाँ पहुँचना था पहुँच गया, क्षुद्र छूटकर विराट् हो गया, मुक्त हो गया यही परम उपलब्धि थी जिसे पा लिया, निर्विकल्प हो गया। यही ज्ञान की अन्तिम स्थिति है।
स जयत्यसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।। 67।।
अर्थात: वही संन्यासी जय को प्राप्त होता है जो पूर्णानन्दस्वरूप है तथा जिसकी समाधि (अकृत्रिम) अवछिन्नरूप से (निरन्तर) विद्यमान रहती है।
व्याख्या: संन्यास है आरम्भ एवं समाधि है अन्त। जिस प्रकार विधिवत् शिक्षा प्राप्त करने हेतु विद्यार्थी किसी विद्यालय में प्रवेश लेता है तो उसे विद्यालय में अनुशासन, समय की पाबन्दी, नियमित पठन, स्वच्छ आचरण आदि का पालन करना पड़ता है तथा उसे विशेष प्रकार की पोषाक पहनने को भी कहा जाता है। इसी प्रकार अध्यात्म में आत्मज्ञान-प्राप्ति के मुमुक्षु व्यक्ति के विधिवत् शिक्षण के लिए संन्यास आरम्भ है एवं इसकी समाप्ति होती है समाधि में जहाँ संन्यासी आत्मज्ञान को प्राप्त कर स्वयं पूर्णानन्द स्वरूप हो जाता है। संन्यासी-अवस्था में उसे विभिन्न प्रकार के नियम, संयम एवं अनुशासन से गुजरना पड़ता है किन्तु आत्मज्ञान के बाद इनकी आवश्यकता नहीं होती। बाहरी नियम संयम आदि शरीर और मन को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक हैं किन्तु ज्ञान प्राप्ति के बाद ये स्वतः नियंत्रित हो जाते हैं। इन्हें जबरदस्ती रोकना नहीं पड़ता। समाधि में वह निरन्तर हो जाते हैं। इन्हें जबरदस्ती रोकना नहीं पड़ता। समाधि में वह निरनतर अपनी आत्मा में रमण करता है जो परमानन्द स्वरूप है। यही संन्यासी की सहज (अकृत्रिम) समाधि है। कुछ हठयोगी साँस रोकने का अभ्यास कर लेते हैं जिससे वे जमीन के भीतर या बाहर साँस रोककर कई दिनों तक रह सकते हैं किन्तु आत्मा से उनका सम्बन्ध न होने से यह कृत्रिम समाधि ही है। ऐसी समाधि केवल प्रदर्शन की ही वस्तु है, आत्मज्ञान से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि जो सहज समाधि को प्राप्त कर निरन्तर पूर्णानन्द स्वरूप आत्मा में रमण करता है। वहां संन्यासी जय को प्राप्त होता है। यही उसकी अन्तिम उपलब्धि है। प्रयत्न करके लगाई गई समाधि कृत्रिम है। ज्ञानी को सहज समाधि प्राप्त होती है।
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकान्क्षी सदा सर्वत्र नीरसः।। 68।।
अर्थात: यहाँ बहुत कहने से क्या प्रयोजन है? तत्त्व-ज्ञानी महाशय भोग और मोक्ष दोनों में निराकांक्षी, सदा और सर्वत्र रागरहित रहता है।
व्याख्या: इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि जो व्यक्ति इस तत्व ज्ञान को उपलब्ध हो गया उसे सब कुछ मिल गया जिसे पाना था, इसलिए वह भोग और मोक्ष दोनों के प्रति निराकांक्षी हो जाता है तथा सदा और सर्वत्र राग रहित हो जाता है। इस स्थिति के बाद उसकी इच्छाएँ, वासनाएँ, राग, विराग आदि सभी प्रकार की चित्त की वृत्तियाँ पूर्ण शान्त होकर एक ही आत्म तत्व में विलीन हो जाती हैं। जिस आत्मतत्व से आरम्भ हुआ था वहीं इनका फिर अन्त हो जाता है। जीवन-चक्र का यही आरम्भ एवं यही अन्त है। यही पूर्णावस्था है। जिस प्रकार इस मानसिक सृष्टि का आरम्भ एवं अन्त इसी आत्मतत्व से है उसी प्रकार इस भौतिक सृष्टि का आरम्भ और अन्त इसी ब्रह्म-तत्व से है। दोनों ही प्रकार की क्रियाओं का यही आधार है। अहं के कारण जिन भिन्नताओं की प्रतीति हो रही थी उसका अन्त होकर सर्वत्र एकत्व का अनुभव होना ही परम उपलब्धि है। यही अद्वैत की अवस्था है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)