अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

परमात्मा ऊर्जा का सागर है

 

महाज्ञानी अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि अज्ञानियों के अनेक मत होते हैं अनेक विचार एवं धारणाएँ होती हैं। उनके मत सत्य पर नहीं, दुराग्रह पर आधारित होते हैं। वे सत्य जानना नहीं चाहते बल्कि जिसे वे मानते हैं उसी को सत्य सिद्ध करना चाहते हैं। इसी से फैलती है साम्प्रदायिकता, विरोध, वैमनस्य, हिंसा, घृणा आदि।

अष्टावक्र गीता-71

बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः ।। 73।।
अर्थात: बुद्धिपर्यन्त संसार में जहाँ माया ही माया भासती है वहाँ ममता रहित, अहंकार रहित और कामना रहित ज्ञानी ही शोभता है।
व्याख्या: संसार में क्या है? मोह है, ममता है, राग है, द्वेष है, ईष्र्या है, घृणा है, प्रेम है, कामना है, तृष्णा है, अहंकार है, काम है, लोभ है आदि यही सब कुछ है। इसी का नाम है संसार। किन्तु यह सब इस प्रकृति जन्य सृष्टि को सत्य मानने के कारण है जो भ्रम है, माया है, इसी अज्ञान के कारण जीव विभिन्न कष्टों को झेलता है। बुद्धि से भी विचार पैदा होते है।। यह भी मन को सन्तुष्ट करने के लिए ही कार्य करती है तथा अच्छे-बुरे, सद्-असद् का भेद करती है। यह मन की ही चाटुकार सेवक है। अतः अष्टावक्र कहते हैं कि बुद्धि पर्यन्त संसार में माया ही माया है। इसमें सत्य कहीं भी नहीं है। सत्य है केवल आत्मा। जिस ज्ञानी ने आत्मा को जान लिया वह ममता रहित, अहंकार रहित एवं कामना रहित हो जाता है। यह क्षुद्र वासना मय जगत् फिर उसे प्रभावित नहीं कर सकता। ऐसा ज्ञानी ही शोभता है। अज्ञानी इस प्रकृतिजन्य सृष्टि में क्षुद्र ममता, अहंकार एवं कामना में ही जीता है इसलिए ऐसा क्षुद्राशय शोभा नहीं देता।

अक्षयं गतसंतापमात्मानं पश्चतो मुनेः।
क्व विद्या क्व च वा विश्वं क्व देहोऽहंममेति वा ।। 74।।
अर्थात: अविनाशी और सन्ताप रहित आत्मा को देखने वाले मुनि को कहाँ विद्या? और कहाँ विश्व (अविद्या)? कहाँ देह? और कहाँ अहंता ममता है?
व्याख्या: अज्ञानियों के अनेक मत होते हैं अनेक विचार एवं धारणाएँ होती हैं। उनके मत सत्य पर नहीं, दुराग्रह पर आधारित होते हैं। वे सत्य जानना नहीं चाहते बल्कि जिसे वे मानते हैं उसी को सत्य सिद्ध करना चाहते हैं। इसी से फैलती है साम्प्रदायिकता, विरोध, वैमनस्य, हिंसा, घृणा आदि। किन्तु ज्ञानी सत्य को जानता है। वह दुराग्रही नहीं होता। इसीलिए सभी ज्ञानी एक ही मत के होते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई का भेद उनमें नहीं होता। ऐसे ज्ञानी कहते हैं कि परमात्मा तुमसे भिन्न नहीं है। वह कहीं आकाश में बैठा शासन नहीं कर रहा है। न वह स्वर्ग में है, न मन्दिर में, न मस्जिद व गिरजाघर में। वह बाहर भी नहीं जो ढँूढने से मिल जाय, वह कोई पदार्थ भी नहीं है कि आँखों से दिखाई दे। ऐसी समस्त धारणाएँ बचकानी हैं, मूर्खतापूर्ण हैं। जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ, जो मानसिक धरातल से ऊपर नहीं उठे वे ऐसे परमात्मा की बातें कहते हैं किन्तु जिसे आत्मानुभूति हुई है वे कहते हैं कि यह परमात्मा ऊर्जा का सागर है। समस्त सृष्टि इसी ऊर्जा की अभिव्यक्ति मात्र है, सब इसी ऊर्जा का खेल है। शरीरस्थ आत्मा वहीं ऊर्जा है जिसे परमात्मा कहा जाता है। इससे भिन्न कोई परमात्मा नहीं है। जिस ज्ञानी ने इस अविनाशी, सन्ताप रहित आत्मा को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया, सब कुछ पा लिया। उसके लिए फिर विद्या तथा अविद्या, ज्ञान तथा संसार, देह तथा अहंता-ममता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। ये सब अज्ञान जनित हैं जो अज्ञानी को ही प्रभावित करते हैं। ज्ञानी केवल आत्मा को जानने वाला होता है जिससे अज्ञान जनित ये सारी भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं।

निरोधादीनि कर्माणि जहाति जडधीर्यदि।
मनोरथान्प्रलापांश्च कर्तुमाप्नोति तत्क्षणात्।। 75।।
अर्थात: यदि जड़-बुद्धि मनुष्य निरोधादि कमों को छोड़ता भी है तो वह तत्क्षण मनोरथों और प्रलापों को पूरा करने में प्रवृत्त हो जाता है।
व्याख्या: मनुष्य के समस्त कर्म, व्यवहार एवं आचरण चित्त की वृत्तियों का प्रक्षेपण मात्र हैं। जैसी चित्त की वृत्तियाँ होंगी, जैसा उसका मन होगा वैसे ही उसके कर्म एवं आचरण होंगे। आचरण एवं कर्म बदलने से मन नहीं बदलता। पतंजलि कहते हैं कि चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि इस निरोध के लिए जो कर्म किये जाते हैं उनसे चित्त का निरोध नहीं होता बल्कि वे कर्म भी चित्त की चंचलता को और बढ़ा देते हैं क्योंकि प्रयत्नों से किये गये निरोधादि कर्मों के पीछे वासनाएँ, अपेक्षाएँ, कामनाएँ आदि जुड़ी रहती हैं फिर निरोध कैसे होगा? इसलिए चित्त के निरोध के लिए किये गये सभी कर्मों का एवं आचरण का त्याग करना चाहिए। कर्म मात्र वासना से प्रेरित होते हैं इसलिए ये भी बन्धन बन जाते हैं जिससे ज्ञान नहीं हो सकता। अष्टावक्र का सारा उपदेश यही है कि जो कुछ प्राप्त होगा वह बोध से ही होगा, कर्म से नहीं क्योंकि कर्म में अहंकार, वासना, फलाकांक्षा होगी जिससे चित्त का निरोध नहीं हो सकता। इसलिए समस्त निरोध-कर्म जैसे ध्यान और समाधि को भी पीछे छोड़ देना चाहिए तभी उपलब्धि होगी किन्तु यदि कोई मूढ़ या जड़-बुद्धि मनुष्य इन कर्मों को छोड़ता भी है तो भी उसके भीतर मनोरथ होते हैं, आकांक्षाएँ, वासनाएँ होती हैं, अहंकार होता है जिनको पूरा करने में वह प्रवृत्त हो जाता है जिससे वह आत्मज्ञान से वंचित ही रहता है। इसका सार यही है कि चित्त की पूर्ण शान्त अवस्था में ही आत्मज्ञान सम्भव है। निरोधादि कर्मों को करने या उन्हें उद्देश्य पूर्ति हेतु त्यागे से नहीं होता। आचरण एवं कर्मों को करना या छोड़ना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है मूढ़ता छोड़ना, अज्ञान अथवा भ्रान्ति को छोड़ना।

मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढ़ताम्।
निर्विकल्पा बहिर्यत्नादन्त
र्विषयलालसः।। 76।।
अर्थात: मन्द बुद्धि उस तत्व को सुनकर ही मूढ़ता को नहीं छोड़ता है। वह बाह्य प्रयत्न में निर्विकल्प होकर मन में विषयों की लालसा वाला होता है।
व्याख्या: मनुष्य में अनेक प्रकार की मूढ़ताएँ हैं। अहंकार, वासना, कामना, फलाकांक्षा आदि मूढ़ताएँ ही हैं। इनके रहते जो भी कर्म, आचरण एवं व्यवहारादि होंगे सभी मूढ़तापूर्ण होंगे। जनक निर्मल चित्त वाले होने से ही अष्टावक्र का आत्मज्ञान का उपदेश सुनकर ही उपलब्घ हो गये किन्तु जो मन्द बुद्धि वाले हैं, वे ऐसा तत्वज्ञान सुनकर भी भीतर अहंकार, कामना, वासना, इच्छायें आदि को नहीं छोड़ते, जिससे वे आत्मज्ञान से वंचित ही रहते हैं। ऐसा मूढ़ बाह्य प्रयत्नों में निर्विकल्प चाहे हो जाय, चाहे वह ज्ञानी की भाँति सारे कर्म करने लग जाय, वासना, अहंकार, कामना आदि को त्यागने के सारे नाटक कर ले तो भी वह मन में विषयों की लालसा वाला ही होता है क्योंकि मन्द बुद्धि है। मन्द बुद्धि वाले आचरण को ग्रहण और त्याग से ही समझ सकते हैं भीतर के मूढ़तत्व को वे नहीं समझ सकते इसलिए वे कभी उपलब्ध नहीं हो सकते।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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