
कर्म तो ज्ञानी भी करता है व अज्ञानी भी किन्तु दोनों के कर्मों में बाह्य अन्तर न होते हुए भी भीतर बड़ा अन्तर होता है। ज्ञानी के कर्म स्वभाव से होते हैं, लोकहितार्थ होते हैं, आवश्यक एवं नैमित्तक कर्म होते हैं, वह कर्म को ईश्वरेच्छा समझकर करता है।
अष्टावक्र गीता-72
ज्ञानाद्गलितकर्मा या लोकदृष्यापि कर्मकृत्।
नाप्योऽयवसरं कर्तुं वक्तुमेव न किंचन।। 77।।
अर्थात: ज्ञान से नष्ट हुआ है कर्म जिसका, ऐसा ज्ञानी लोक-दृष्टि में कर्म करने वाला भी है लेकिन वह न कुछ करने का अवसर पाता है, न कहने का ही।
व्याख्या: कर्म तो ज्ञानी भी करता है व अज्ञानी भी किन्तु दोनों के कर्मों में बाह्य अन्तर न होते हुए भी भीतर बड़ा अन्तर होता है। ज्ञानी के कर्म स्वभाव से होते हैं, लोकहितार्थ होते हैं, आवश्यक एवं नैमित्तक कर्म होते हैं, वह कर्म को ईश्वरेच्छा समझकर करता है। उनके पीछे कोई वासना, फलाकांक्षा, अहंकार आदि नहीं होते जबकि अज्ञानी के कर्मों के पीछे फल-प्राप्ति की इच्छा रहती है, अहंकार रहता है। अज्ञानी यदि लोक-हितार्थ कर्म भी करता तो भी उसके पीछे सम्मान-प्राप्ति, यश-प्राप्ति, स्वर्ग-प्राप्ति आदि की इच्छा रहती ही है। अज्ञानी ऐसे कर्मों का अवसर ढूँढता रहता है कि कहीं उसे सेवा करने का अवसर मिल जाए तो उसके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जायें। उसको लोकहित, सेवा, समाज सेवा, दान, पुण्य, धर्म आदि में दूसरों की चिन्ता नहीं है, चिन्ता मात्र स्वयं के स्वर्ग-प्राप्ति की है जिसके लिए वह अवसर ढूँढता रहता है किन्तु अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञान के कर्म नष्ट हो जाते हैं। फिर ज्ञानी को कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं होती किन्तु ऐसा ज्ञानी भी लोक-दृष्टि से कर्म करता है, जो लोकहित में है। जिन्हें करना आवश्यक है वह कर लेता है। वह स्वर्ग प्राप्ति की दृष्टि से या फलाकांक्षा से कोई कर्म नहीं करता, न ऐसे कर्मों को ढूँढता ही है जिसका फल मिले, न वह ऐसा कहता ही है कि मैंने ऐसा किया है क्योंकि उसमें अहंकार नहीं होता। यही कर्म कुशलता है जिसे केवल ज्ञानी ही उपलब्ध होता है।
क्व तमः क्व प्रकाशो वा हानं क्व च न किंचन।
निर्विकारस्य धीरस्य निरातंकस्य सर्वदा ।। 78।।
अर्थात: सर्वदा निर्भय और निर्विकार धीर पुरुष को कहाँ अन्धकार? कहाँ प्रकाश है? और कहाँ त्याग है? कहीं कुछ भी नहीं है।
व्याख्या: चित्त में वृत्तियाँ हैं, वासनाएँ हैं, कामनाएँ हैं। अनेक जन्मों में जो कुछ मिला है उस ही का संग्रहीत नाम चित्त है। बुद्धि इनका सद् तथा असद् में विभाजन करती है, सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, प्रकाश-अन्धकार में भिन्न कुछ भी नहीं है। वहाँ सब संयुक्त हैं। एक ही सिक्के के दो पक्ष की भाँति हैं जहाँ या तो दोनों रहेंगे या दोनो ंहटेंगे। एक को हटाने और दूसरे को बचाने को कोई उपाय नहीं है। यदि मृत्यु को हटा दिया जाये तो जन्म भी नहीं होगा, यदि बेईमानी हटा दी जाय तो ईमानदारी भी नहीं रहेगी, यदि घृणा हटा दी जाय तो प्रेम भी समाप्त हो जायेगा, यदि पापी नहीं होंगे तो ये मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे भी नहीं होंगे, यदि बीमारी नहीं होगी तो स्वास्थ्य भी नहीं होगा, यदि असाधु नहीं होगे तो इन साधुओं को भी विदाई देनी पड़ेगी। ये सब संयुक्त हैं, एक दूसरे पर आश्रित हैं। एक को हटाकर दूसरे को बचाया ही नहीं जा सकता। यदि रावण को हटा दिया जाय तो राम की कहानी भी नहीं बनती। किन्तु नैतिक व्यक्ति दोनों में भेद करता है। वह बुरे को हटाकर अच्छे को लाना चाहता है, वह अन्धकार को हटाकर प्रकाश को लाना चाहता है। इसके विपरीत धार्मिक व्यक्ति सब कुछ ईश्वरीय समझकर दोनों को स्वीकार कर लेता है जबकि ज्ञानी उस एक आत्मा को जानकर सर्वदा निर्भय और निर्विकार हो जाता है। उसकी यह भेद-दृष्टि ही समाप्त हो जाती है। वह प्रकाश, अन्धकार, ग्रहण, त्याग आदि में कोई भेद नहीं समझता। स्वभाव से जो होता है वह कर लेता है एवं सर्वदा परमानन्द स्वरूप आत्मा में ही स्थित रहता है।
क्व धैर्य क्व विवेकित्वं कव निरातंकताऽपि वा।
अनिर्वाच्यस्वभावस्य निः स्वभावस्ययोऽगिनः।। 79।।
अर्थात: अनिर्वचनीय स्वभाव वाले स्वभाव रहित योगी को कहाँ धीरता है? कहाँ विवेकिता? अथवा कहाँ निर्भयता?
व्याख्या: जहाँ भय है वहीं निर्भयता होती है, जहाँ मूढ़ता है वहीं विवेकिता पैदा होती है, जहाँ व्याकुलता है वहीं धैर्य की बात सोची जाती है किन्तु योगी जिसने उस परमरस को जान लिया, सदा उसी में निमग्न रहता है, उसका स्वभाव अनिर्वचनीय हो जाता है, सभी द्वन्द्वों से पार एकरस हो जाता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह न सिद्धांतों में जीता है, न किसी मान्यताओं और परम्पराओं में, न वह रूढ़ियों में जीता है, न आदतों में। उसके लिए यह कहना ही कठिन हो जाता है कि वह किस स्वभाव वाला है क्योंकि वह स्वभाव रहित होता है। वह अपना कोई स्वभाव, कोई आदत बनाता ही नहीं। वह आत्मा के स्वभाव के अनुकूल चलता है जिसे संसारी नहीं जान सकते। अज्ञानी ही नियम, संयम, मर्यादा, अनुशासन, सिद्धान्त, कर्तव्य, विवेक आदि में बँधकर जीता है। ज्ञानी पूर्ण स्वतंत्रता का उपयोग करता है। वह क्षुद्र बन्धनों से सदा मुक्त रहकर व्यवहार करता है जिससे पहचानना कठिन होता है।
न स्वर्गो नैव नरको जीवन्मुक्तिर्न चैव हि।
बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्टया न किंचन।। 80।।
अर्थात: योगी को न स्वर्ग है, न नरक है, न जीवन्मुक्ति ही है। इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन, योग की दृष्टि से कुछ भी नहीं है।
व्याख्या: भारतीय मनीषियों ने इस अध्यात्म पर जितना चिन्तन, मनन एवं खोज की है उतनी कोई धर्म नहीं कर सका है। ईसाई, यहूदी एवं मुस्लिम धर्म स्वर्ग-नरक के आगे की बात नहीं कह सके। मुक्ति की उनकी कोई कल्पना भी नहीं है। उन्होंने ईश्वर को भी व्यक्ति मान लिया व आकाश में कहीं बिठा दिया जहाँ से उसने सात दिन में सृष्टि का निर्माण कर दिया वह वहीं से इसका संचालन कर रहा है। वह दण्ड भी देता है, पुरस्कार भी देता है, स्वर्ग और नरक में भी अपनी इच्छा से भेज देता है, वह दयालु भी है क्षमा भी कर देता है। महावीर ने ब्रह्म जैसी शक्ति को मानने से इन्कार कर दिया एवं आत्माओं को भी अनेक मान लिया जबकि यह अनेकता मन के तल तक ही दिखाई देती है। आत्मज्ञान मन के तल से आगे की स्थिति है जहां पहुँचकर सभी भिन्नताएँ समाप्त हो जाती हैं। मृत्यु के उपरान्त केवल शरीर छूटता है बाकी सूक्ष्म शरीर, मन, चित्त, अहंकार आदि सभी लेकर वह जीवात्मा एक निश्चित अवधि तक अन्तराल में भटकती रहती है। वहाँ अपने अहंकार एवं वासना आदि के कारण सुख-दुःख का अनुभव करती है। यही उनका स्वर्ग और नरक है। यह स्वर्ग और नरक चित्त की ही दशाएँ हैं जो प्राथमिक चरण हैं। मुक्ति इनसे पार की अवस्था है। योग केवल आत्मा को ही मानता है। अष्टावक्र कहते हैं कि यह सृष्टि भ्रम है, स्वर्ग, नरक, जीवन्मुक्ति सभी भ्रम हैं जो अज्ञान के कारण, अहंकार एवं वासना के कारण प्रतीत होते हैं, अतः सभी मिथ्या हैं। स्वर्ग एवं नरक भी वासना ही हैं। जब वासना एवं अहंकार समाप्त हो जाते हैं तो केवल आत्मा ही शेष रहती है और वही सत्य है। अन्य सभी भ्रान्तियाँ हैं। वासना एवं अहंकार से मुक्त पुरुष ब्रह्म ही है। बीच की स्थिति स्वर्ग, नरक आदि वासना का ही फैलाव मात्र है। यह कोई उपलब्धि नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि का आरम्भ और अन्त यही ब्रह्म है। जीवात्मा का यही सर्वोच्च शिखर है, यही मंजिल है। योग की यही मान्यता सर्वोपरि है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)