अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

जनक ने बतायी आत्मा की महिमा

 

आत्मा की महिमा में स्थित राजा जनक कहते हैं कि स्थान एवं समय अज्ञानी के लिए बंधन होते हैं लेकिन आत्मज्ञानी इनकी परिधि से बाहर हो जाता है। उसे जीवन और मृत्यु का भय नहीं रहता।

अष्टावक्र गीता-79

क्व भूतं भविष्यद्धा वर्तमानमपि क्व वा।
क्व देशः क्व च वा नित्यं स्वमहिम्निस्थितस्य मे।। 3।।
अर्थात: नित्य अपनी महिमा में स्थित हुये मुझको कहाँ भूत है? कहाँ भविष्य है? अथवा कहाँ वर्तमान है? अथवा देश भी कहाँ है?
व्याख्या: स्थान और समय बन्धन अज्ञानी को ही होता है। आत्मज्ञानी इसकी परिधि से बाहर हो जाता है। आत्मा नित्य है, शाश्वत है, अजन्मा है, निराकार है, निर्लिप्त है अतः इसके लिए भूत, भविष्य तथा वर्तमान है ही नहीं। वह सर्वत्र व्याप्त है। वह पहले भी थी, आज भी है तथा आगे भी रहेगी। उसका विनाश होता ही नहीं। सृष्टि नष्ट हो जाय तो भी रहेगी, सृष्टि नहीं थी तब भी थी। इसलिए जिस ज्ञानी ने आत्मा को जान लिया, उसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्मवत् हो गया। जनक यही कह रहे हैं कि मैं आत्मवत् हो गया इसलिए आत्मा की महिमा ही मेरी महिमा है।
क्व स्वप्नः क्व सुषुप्तिर्वा क्व च जागरणं तथा।
क्व तुरीयं भयं वापि स्वमहिम्निस्थितस्य ये।। 5।।
अर्थात: अपनी महिमा में स्थित हुये मुझको कहाँ स्वप्न? कहाँ सुषुप्ति? और कहाँ जाग्रत है? कहाँ तुरीय अवस्था का भय है?
व्याख्या: ऐसा ज्ञानी जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय चारों अवस्थाओं से पार हो जाता है। ये चारों अवस्थाएँ शरीर, मन एवं बुद्धि की ही हैं। तुरीय अवस्था भी अन्तःकरण की है। चेतना इनसे पार की अवस्था है जहाँ इनका कुछ भी अनुभव नहीं होता।

क्व दूरं क्व समीपं वा बाह्यं क्वाभ्यन्तरं क्व वा।
क्व स्थूलं क्व च वा सूक्ष्मं स्वमहिम्निस्थितस्य मे।। 6।।
अर्थात: अपनी महिमा में स्थित मुझको कहाँ दूर है? कहाँ समीप? कहाँ अभ्यन्तर है? स्थूल कहाँ और सूक्ष्म कहाँ है?
व्याख्या: आत्मा की महिमा में स्थित हुए ज्ञानी के लिए दूर तथा समीप, बाह्य तथा अभ्यन्तर, स्थूल तथा सूक्ष्म का भेद ही समाप्त हो जाता है। क्योंकि आत्मा दूर भी है एवं समीप भी, वह बाहर भी है एवं भीतर भी, वह स्थूल भी है एवं सूक्ष्म भी। ऐसी ही सृष्टि है। जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है। सूक्ष्म ही स्थूल का कारण है, स्थूल भी सूक्ष्म में परिवर्तित हो जाता है। ऊर्जा और पदार्थ भिन्न नहीं हैं। एक दूसरे में रूपान्तरण हो जाता है। वैज्ञानिक जिसे ‘क्वान्टा’ कहते हैं वैसा ही आत्मा का स्वभाव है, न स्थूल, न सूक्ष्म, न पदार्थ है, न तरंग और है तो दोनों।

क्व मृत्युर्जीवित वा क्व लोकाः क्वास्य क्व लौकिकम्
क्व लयः क्व समाधिर्वा स्वमहिम्निस्थितस्य मे। 7।।
अर्थात: अपनी महिमा में स्थित हुये मुझको कहाँ मृत्यु है? अथवा कहाँ जीवन? कहाँ लय है? और कहाँ
समाधि?
व्याख्या: आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु। वह तो सदा है। जिसका जन्म है उसी की मृत्यु है। यदि जन्म न हो तो मृत्यु भी नहीं है। आत्मज्ञानी आत्मवत् हो जाने से कहता है कि न मेरी मृत्यु है, न जीवन। मृत्यु और जीवन शरीर का ही होता है। आत्मा अमर है। आत्मा के लिए लोक तथा लौकिक व्यवहार भी नहीं है। इनका भी सम्बन्ध शरीर से है। लय और समाधि भी मन की है। आत्मा एक ही है, उसका न किसी में लय होता है, न उसकी समाधि लगती है। ये सब अज्ञान जनित धारणाएँ ही छूट जाती हैं।
अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाऽप्यलम्।
अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि।। 8।।
अर्थात: अपनी आत्मा में विश्रान्त हुये मुझको त्रिवर्ग
(धर्म, अर्थ, काम) की कथा पर्याप्त है, योग की कथा भी पर्याप्त है, विज्ञान की कथा भी पर्याप्त है।
व्याख्या: जो ज्ञानी पूर्णता को प्राप्त हो गया उसके लिए धर्म, अर्थ, काम आदि की कोई अपेक्षा नहीं रहती क्योंकि सिद्धि प्राप्त होने पर साधन व्यर्थ हो जाते हैं। इसी प्रकार योग और विज्ञान की भी आवश्यकता नहीं है। जब कुछ पाना ही शेष नहीं रहा तो इनका प्रयोजन ही समाप्त हो गया। सब छूटकर एक आत्मा में स्थित होकर योगी सब कुछ पा लेता है। यही परमधर्म है।

बीसवां प्रकरण
(आत्म स्थिति में सभी द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं)
क्व भूतानि क्व देहो वा क्वेन्द्रियाणि क्व वा मनः।
क्व शून्य क्व च नैराश्यं मत्स्वरूपे निरंजने।। 1।।
अर्थात: मेरे निरंजन स्वरूप में कहाँ पंचभूत हैं? कहाँ देह है? कहाँ इन्द्रियाँ हैं? अथवा कहाँ मन है? कहाँ शून्य है? और कहाँ नैराश्य है?
व्याख्या: राजा जनक अपनी जीवन्मुक्ति की दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मैं आत्मा में अवस्थित हो गया इसलिए इन सब भूतविकारों से मुक्त हो गया। मेरा यह आत्मस्वरूप निरंजन है, निर्दोष है, अद्वय है, शुद्ध है। इसमें विजातीय तत्व कोई भी नहीं है। सब संयुक्त है। भिन्नता कहीं भी दिखाई नहीं देती। अज्ञान की स्थिति में मेरी चित्तरूपी कैमरे की प्लेट पर इन सभी आकारों, संस्कारों आदि के चित्र बनते थे किन्तु यह आत्मा दर्पण की भाँति है। इस पर चित्र बनते ही नहीं। यह साक्षी मात्र है, दुष्टा मात्र है, इसमें विकार पैदा नहीं होते, घारणा नहीं बनती, विचार उत्पन्न नहीं होते। यह हमेशा निर्लिप्त बना रहता है। मैं चित्त नहीं, आत्मा हूँ इसलिए मेरे स्वरूप में ये पंचभूत, देह इन्द्रियाँ, मन आदि नहीं हैं। इसमें शून्य भी नहीं है, न नैराश्य है क्योंकि यही पूर्ण है। यही आत्मा की महिमा है।

क्व शास्त्रं क्वात्मविज्ञानं क्व वा निर्विषयं मनः।
क्व तृप्तिः क्व वितृषत्वं गतद्वन्द्वस्य मे सदा।। 2।।
अर्थात: सदा द्वन्द्व रहित मुझको कहाँ शास्त्र? कहाँ आत्मविज्ञान है? कहाँ विषय रहित मन है? कहाँ तृप्ति है? कहाँ तृष्णा का अभाव है?
व्याख्या: जहाँ द्वन्द्व है वहाँ मन है। चैतन्य आत्मा में द्वन्द्व है ही नहीं। वहाँ स्त्री-पुरुष का भेद भी नहीं है, जड़-चेतन, प्रकृति, पुरुष, सगुण-निर्गुण, ज्ञान-विज्ञान, तृष्णा-तृप्ति आदि के सब भेद समाप्त होकर एक ही तत्व श्ेाष रहता है। दो होने पर ही भेद प्रतीत होता है। इसलिए जनक कहते हैं कि आत्मज्ञान-प्राप्ति पर मैं द्वन्द्व रहित हो गया। अब न मुझे शास्त्र की आवश्यकता है कि मैं उन्हें पढ़कर आत्मा कैसी है इसे जानूँ, आत्मविज्ञान की भी मुझे आवश्यकता नहीं है क्योंकि अध्ययन से जो जाना जाता है वह बौद्धिक होता है मैं तो स्वयं आत्मा हूँ अतः अब मुझे शास्त्र एवं विज्ञान पढ़कर क्या करना है। मैं विषय रहित मन की भी बात नहीं सोचता जैसा कि अष्टावक्र ने प्रथम सूत्र में ही कहा कि विषयों को विष के समान छोड़ दें। विषय छोड़ने पर मन जब विषय रहित हुआ तो मन की कल्पना कहाँ रही। इस स्थिति में तृप्ति भी नहीं है क्योंकि तृप्ति का अनुभव भी अतृप्त को ही होता है। तृष्णा का अभाव हो गया ऐसा भी विचार अब नहीं उठता। ऐसी स्थिति में मैं अवस्थित हूँ।
-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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