अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

शरीर के लिए शोक कैसा?

 

गीता-माधुर्य-5
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

यह शस्त्र आदि से कटता, जलता, गलता और सूखता क्यों नहीं?
यह शरीरी काटा भी नहीं जा सकता, जलाया भी नहीं जा गीला भी नहीं किया जा सकता और सुखाया भी नहीं जा सकता। क्योंकि यह नित्य
रहने वाला, सबमें परिपूर्ण, स्थिर स्वभाव वाला, अचल और सनातन है।
यह देही इन्द्रियों आदि का विषय नहीं है अर्थात् यह प्रत्यक्ष नहीं दीखता।
यह अन्तःकरण का भी विषय नहीं है और इसमें कोई विकार भी नहीं
होता है। इसलिये इस देही को ऐसा जानकर तुझे शोक नहीं करना
चाहिये।। 24-25।।
इस शरीर को निर्विकार मानने पर तो शोक नहीं हो सकता, पर इसे विकारी मानने पर तो शोक हो ही सकता है?
हे महाबाहो ! अगर तू इस शरीरी को नित्य पैदा होने वाला और नित्य मरने वाला भी मान ले तो भी तुझे इसका शोक नहीं करना चाहिये। क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर पैदा होगा- इस नियम को कोई नहीं हटा सकता। अतः शरीर को लेकर तुझे शोक नहीं करना चाहिये।। 26-27।।
शरीर को लेकर शोक नहीं करना चाहिये, यह तो ठीक है पर शरीर को लेकर तो शोक होता ही है भगवन्!
शरीर को लेकर भी शोक नहीं हो सकता, क्योंकि हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद फिर अप्रकट हो जायँगे, केवल बीच में प्रकट दीखते हैं। अतः शोक करने की बात ही कौन-सी है?।। 28।।
तो फिर शोक क्यों होता है?
न जानने से।
जानना कैसे हो?
वह जानना अर्थात् अनुभव करना इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि से नहीं होता, इसलिये इस शरीर को देखना, कहना, सुनना सब आश्चर्य की तरह ही होता है। अतः इसको सुन करके कोई भी नहीं जान सकता अर्थात् इसका अनुभव तो स्वयंसे ही है।। 29।।
तो फिर वह कैसा है?
हे भरतवंशी अर्जुन! सबके देह में रहने वाला यह देही नित्य ही
अवध्य है, ऐसा जानकर तुझे किसी भी प्राणी के लिये शोक नहीं करना चाहिये।। 30।।
शोक दूर करने की तो आपने बहुत सी बातें बता दीं, पर मुझे जो पापका भय लग रहा है, वह कैसे दूर हो?
अपने धर्म (छात्रधर्म) को देखकर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिए। क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्ममय युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है।। 31।।
तो क्या क्षत्रिय को युद्ध करते ही रहना चाहिये?
नहीं भैया, जो युद्ध आप से आप प्राप्त हो जाय, सामने आ जाय,
वह युद्ध तो क्षत्रिय के लिये स्वर्ग जाने का खुला दरवाजा है। इसलिये
हे पार्थ! ऐसा युद्ध जिन क्षत्रियों को प्राप्त होता है, वे ही वास्तव में सुखी
हैं।। 32।।
ऐसे आप से आप प्राप्त युद्ध को मैं न करूँ, तो?
अगर तू ऐसे धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो तेरे क्षात्र- धर्म का और
तेरी कीर्ति का नाश होगा तथा तुझे कर्तव्य- पालन न करने का पाप भी लगेगा।। 33।।
अपकीर्ति से क्या होगा?
अरे भैया! तू युद्ध नहीं करेगा तो देवता, मनुष्य आदि सभी तेरी बहुत दिनों तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन करेंगे। वह अपकीर्ति आदरणीय, सम्माननीय मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी होती है’।। 34।।
और क्या होगा भगवन्?
जिन भीष्म, द्रोणाचार्य आदि महारथियों की दृष्टि में तू श्रेष्ठ माना गया है, उनकी दृष्टि में तू तुच्छता को प्राप्त हो जायगा और वे महारथी लोग तुझे मरने के भयके कारण युद्ध से उपरत हुआ मानेंगे।। 35।।
क्या मैं यह सह नहीं सकता भगवन्?
नहीं, तू सह नहीं सकता, क्योंकि तेरे शत्रुओं को वैरभाव निकालने का मौका मिल जायगा। वे तेरी सामथ्र्य की निन्दा करते हुए तुझे न कहने लायक बहुत-से वचन कहेंगे। उससे और दुःख क्या होगा?।। 26।।
और अगर मैं युद्ध करूँ, तो?
युद्ध करते हुए अगर तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्ग मिल जायगा और अगर युद्ध में तू जीत जायगा तो तुझे पृथ्वी का राज्य मिल जायगा। अतः हे कुन्तीनन्दन! तू युद्ध का निश्चय करके खड़ा हो जा।। 37।।
क्या युद्ध से मुझे पाप नहीं लगेगा भगवन्?
नहीं, पाप तो स्वार्थबुद्धि से ही होता है, अतः तू जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख में समबुद्धि रखकर युद्ध कर। इस प्रकार युद्ध करनेसे तुझे पाप नहीं लगेगा।। 38।।
जिस समबुद्धि से कर्म करते जरा भी पाप नहीं लगता, उसकी और क्या है?
इस समबुद्धि की बात मैंने पहले सांख्ययोग में कह दी है। अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन-
1. इस समबुद्धि से युक्त हुआ तू सम्पूर्ण कर्मों के बन्धन से छूट जायगा।
2. इस समबुद्धि के आरम्भ मात्र का भी नाश नहीं होता।
3. इसके अनुष्ठान का कभी उलटा फल नहीं होता।
4. इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मरणरूप महान् भय से रक्षा कर लेता है।। 39-40।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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