अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

समबुद्धि प्राप्ति की सीख

गीता-माधुर्य-6

 

गीता-माधुर्य-6
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

जिस समबुद्धि की आपने इतनी महिमा गायी है, उसको प्राप्त करने का उपाय क्या है?
इस समबुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका (एक परमात्मप्राप्ति की निश्चय वाली) बुद्धि एक ही होती है। परन्तु जिनका परमात्म प्राप्ति का एक निश्चय नहीं है, ऐसे मनुष्यों की बुद्धियाँ (निश्चय) अनन्त और बहु शाखाओं वाली होती हैं।। 41।।
उनका परमात्मप्राप्ति का एक निश्चय क्यों नहीं होता ? 1. जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं, 2. स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं, 3. वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों में ही प्रीति रखने वाले हैं, तथा 4. भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं ऐसा कहने वाले हैं, वे बेसमझ मनुष्य इस पुष्पित ( दिखाऊ शोभायुक्त) वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल को देने वाली है तथा भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है। भोगों का वर्णन करने वाली पुष्पित वाणी से जिनका चित्त हर लिया गया है अर्थात् भोगों की तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्यों की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं हो सकती।। 42-44।।
भोग और ऐश्वर्य की आसक्ति से बचने के लिये मुझे क्या करना चाहिये भगवन् ?
वेद तीनों गुणों के कार्य (संसार) का वर्णन करने वाले हैं, इसलिये हे अर्जुन! तू वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों से रहित हो जा, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित हो जा और नित्य-निरन्तर रहने वाले परमात्मतत्त्व में स्थित हो जा। तू अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की और प्राप्त वस्तु की रक्षा की भी चिन्ता मत कर और केवल परमात्मा के परायण हो जा अर्थात् एक परमात्मप्राप्ति का ही लक्ष्य रख।। 45।।
ऐसा एक निश्चय कोई कर ले तो उसका क्या परिणाम होता है?
जैसे बहुत बड़े सरोवर के प्राप्त होने पर छोटे सरोवर का कोई महत्त्व नहीं रहता, कोई जरूरत नहीं रहती, ऐसे ही वेदों और शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष की दृष्टि में सम्पूर्ण वेदों का उतना ही तात्पर्य है, अर्थात् उनके मनमें संसार का, भोगों का कोई महत्त्व नहीं रहता।। 46।।
मेरे लिये ऐसी स्थिति को प्राप्त करने का कोई उपाय है?
हाँ, कर्मयोग है। तेरा कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है, फल में कभी नहीं अर्थात् तू फल की इच्छा न रखकर अपने कर्तव्य का पालन कर। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन अर्थात् जिनसे कर्म किया जाता है, उन शरीर इन्द्रियाँ-मन- बुद्धि आदि में भी ममता न रख।
तो फिर मैं कर्म करूँ ही क्यों?
कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये।। 47।।
तो फिर कर्म करूँ कैसे?
सिद्धि-असिद्धि में सम होना ‘योग’ कहलाता है, इसलिये हे धनंजय ! तू आसक्ति का त्याग करके योग (समता)- में स्थित होकर कर्म कर।। 48।।
अगर योग (समता)- में स्थित होकर कर्म न करूँ, तो?
इस समता के बिना सकाम कर्म अत्यन्त ही निकृष्ट हैं। अतः हे धनंजय ! तू समबुद्धि का ही आश्रय ले, क्योंकि कर्मफल की इच्छा करने वाले कृपण हैं अर्थात् कर्मफल के गुलाम हैं।। 49।।
कर्मफल की इच्छा वाले कृपण हैं, तो फिर श्रेष्ठ कौन है?
समबुद्धि से युक्त मनुष्य श्रेष्ठ है। समबुद्धि से युक्त मनुष्य इस जीवित अवस्था में ही पाप-पुण्य से रहित हो जाता है। इसलिये तू समता में ही स्थित हो जाय क्योंकि कर्मों में समता ही कुशलता है।। 50।।
समबुद्धि का क्या परिणाम होगा भगवन्?
समता से युक्त मनीषी कर्मजन्य फल का त्याग करके और जन्मरूप बन्धन से रहित होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं।। 51।।
यह मैं कब समझूँ कि मैंने कर्मजन्य फल का त्याग कर दिया?
जब तेरी बुद्धि मोहरुपी दलदल को तर जायगी, तब तुझे सुने हुए और सुनने में आने वाले (भुक्त और अभुक्त) भोगों से वैराग्य हो जायगा।। 52।।
वैराग्य होने पर फिर समता की प्राप्ति कब होगी?
शास्त्रों के अनेक सिद्धन्तों से, मतभेदों से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब संसार से सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में अचल हो जायगी, तब तुझे योग (साध्यरूप समता) की प्राप्ति हो जायगी।। 53।।
अर्जुन बोले-समता को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं?
भगवान् बोले- हे पार्थ! जब साधक मन में रहने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने-आप से अपने-आप में ही सन्तुष्ट रहता है, तब वह स्थित प्रज्ञ (स्थिर बुद्धि वाला) कहलाता है।। 54-55।।
वह स्थित प्रज्ञ बोलता कैसे है?
भैया! उसका बोलना साधारण क्रिया रूप से नहीं होता, प्रत्युत भावरूप से होता है। वर्तमान में व्यवहार करते हुए दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थित प्रज्ञ कहलाता है। सब जगह आसक्ति रहित हुआ जो मनुष्य प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल परिस्थिति के आने पर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर द्वेष नहीं करता, उसकी बुद्धि स्थिर हो गयी है अर्थात् पहले उसने ‘मुझे परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है’-ऐसा जो निश्चय किया था, वह अब सिद्ध हो गया है।। 56-57।।
वह स्थित प्रज्ञ बैठता कैसे है भगवन्?
जैसे कछुआ अपने चारों पैर, गरदन और पूँछ- इन छहों अंगों को समेटकर बैठता है, ऐसे ही जिस समय वह कर्मयोगी सम्पूर्ण इन्द्रियों और मन को अपने-अपने विषयों से समेट लेता है, हटा लेता है, उस समय उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।। 58।।
इन्द्रियों को समेटने की वास्तविक पहचान क्या है?
इन्द्रियों को अपने विषयों से हटाने वाले देहाभिमानी मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रसबुद्धि (सुख-भोग-बुद्धि) निवृत्त नहीं होती। परन्तु परमात्मा की प्राप्ति होने से इस स्थितप्रज्ञ मनुष्य की रसबुद्धि भी निवृत्त हो जाती है।। 59।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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