अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

समता की प्राप्ति के लिए कर्म करना जरूरी

गीता-माधुर्य-8

 

गीता-माधुर्य-8
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः।।
तीसरा अध्याय
अर्जुन बोले- हे जनार्दन ! आपके मत में जब (ज्ञान) बुद्धि ही श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव ! आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? तथा आप कभी कहते हैं-कर्म करो और कभी कहते हैं- ज्ञान का आश्रय लो। आपके इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है। इसलिये एक निश्चित बात कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।। 1-2।।
भगवान् बोले- हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें सांख्ययोगियों की निष्ठा ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है अर्थात् ज्ञानयोग और कर्मयोग से एक ही समबुद्धि की प्राप्ति होती है।। 3।।
उस समता की प्राप्ति के लिये क्या कर्म करना जरूरी है?
हाँ, जरूरी है; क्योंकि मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्याग से सिद्धि को ही प्राप्त होता है। तात्पर्य है कि उस समता की प्राप्ति कर्मों का आरम्भ किये बिना भी नहीं होती और कर्मों के त्याग से भी नहीं होती।। 4।।
कर्म के त्याग से क्यों नहीं होती?
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण स्वभाव के परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं तो फिर प्राणी कर्मोंका त्याग कैसे कर सकता है!।। 5।।
अगर मनुष्य चुपचाप बैठा रहे, कुछ भी करे नहीं तो क्या यह कर्मों का त्याग नहीं हुआ?
नहीं, जो मनुष्य चुपचाप बैठकर अर्थात् इन्द्रियों को केवल बाहर से रोककर मन से विषयों का चिन्तन करता रहता है, उसका यह चुपचाप बैठना कर्मों का त्याग करना नहीं हुआ, प्रत्युत उस मूढ़ बुद्धि वाले का यह चुपचाप बैठना मिथ्याचार है।। 6।।
आपने जो समबुद्धि बतायी उसकी प्राप्ति न तो कर्मों के किये बिना होती है, न कर्मो के त्याग से होती है और न बाहर से चुपचाप बैठकर मन से विषयों का चिन्तन करते रहने से होती है तो फिर उसकी प्राप्ति कैसे होती है?
हे अर्जुन! जो मनुष्य मन से इन्द्रियों का नियमन करके आसक्तिरहित होकर इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग (निष्काम भावपूर्वक अपने कर्तव्य कर्मों) का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है अर्थात् उसको समबुद्धि की प्राप्ति हो जाती है। इसलिये शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा उपर्युक्त विधि से कर्तव्यकर्म करना श्रेष्ठ है। और तो क्या, बिना कर्म किये तेरे शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।। 7-8।।
कर्मों को करने से बन्धन तो नहीं होगा भगवन! नहीं, यज्ञ (कर्तव्यकर्म) को केवल अपने लिये करने से ही मनुष्य कर्मों से बँधता है। इसलिये हे कुन्तीनन्दन! तू आसक्तिरहित होकर यज्ञ ( कर्तव्यकर्म ) को केवल कर्तव्य- परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये ही कर।। 9।।
मैं कर्म करूँ ही क्यों?
अरे भैया! सर्ग के आरम्भ में पितामह ब्रह्माजी ने भी यज्ञ (कर्तव्यकर्मों के) – सहित मनुष्यों की रचना करके उनसे यही कहा था कि तुम लोग इस कर्तव्यकर्म रूप यज्ञ के द्वारा बुद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।। 10।।
यह यज्ञ हम किस भावसे करें पितामह?
इसके द्वारा तुम लोग देवताओं की वृद्धि (उन्नति) करो और वे देवतालोग तुम्हारी वृद्धि करें। इस तरह एक-दूसरेकी वृद्धि करने से अर्थात् अपने लिये कर्म न करके केवल दूसरों के हित के लिये ही सब कर्म करने से तुम लोग परमश्रेय (परमात्मा)- को प्राप्त हो जाओगे।। 11।।
पितामह! अगर हम यज्ञ न करें तो?
तुम्हारे कर्तव्यकर्म रूप यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए देवता तुम लोगो ंको बिना माँगे ही कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे; परन्तु अगर तुम लोग उस कर्तव्यपालन की सामग्री से देवताओं की पुष्टि न करके स्वयं ही सुख-आराम भोगोगे तो तुम चोर बन जाओगे ।। 12।।
इस दोष से कैसे बचा जाय भगवन्?
भैया! केवल दूसरों के हित के लिये ही कर्तव्यकर्म करने से यज्ञ शेष के रूप में समता का अनुभव होता है। उस समता का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने सुख-आराम के लिये ही सब कर्म करते हैं, वे पापी लोग तो केवल पाप ही कमाते हैं।। 13।।
भगवन! अभी आपने कर्तव्यकर्म के विषय में ब्रह्माजी की आज्ञा सुनायी, पर कर्तव्यकर्म के विषय में आपका क्या कहना है?
इस विषय में मेरा यही कहना है कि सृष्टि चक्र के संचालन के लिये भी कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता हैय क्योंकि सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे पैदा होते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। वर्षा यज्ञ (कर्तव्यपालन) से होती है और यज्ञ निष्कामभाव से किये गये कर्मों से होता है। कर्तव्य कर्म करने की विधि वेद बताते हैं और वेद परमात्मा से प्रकट होते हैं। इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्यकर्म)- में नित्य विद्यमान रहते हैं अर्थात् उनकी प्राप्ति अपने कर्तव्यका पालन करने से ही होती है। अतः सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिये अपने-अपने कर्तव्य का पालन करना मनुष्यों के लिये बहुत जरूरी है।। 14-15।।
अगर कोई इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिये अपने कर्तव्य का पालन न करे, तो?
हे पार्थ! जो मनुष्य इस सृष्टि चक्र की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिये कर्तव्यकर्म नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोग भोगने वाला तथा पापमय जीवन बिताने वाला मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है अर्थात् वह मर जाय तो अच्छा है।। 16।।
कोई आसक्ति रहित होकर केवल आपकी आज्ञा के अनुसार सृष्टि चक्र की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये ही कर्तव्यकर्म का पालन करे, तो?
वह अपने आप में ही रमण करने वाला, अपने-आपमें ही तृप्त और अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी करना बाकी नहीं रहता; क्योंकि उस महापुरुष का इस संसार में न तो कर्म करने से ही कोई मतलब रहता है और न कर्म न करने से ही कोई मतलब रहता है तथा उसका किसी भी प्राणी के साथ कोई भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता ।। 17-18।। (हिफी) (क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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