अपने कर्तव्य का पालन ही श्रेष्ठ

गीता-माधुर्य-10
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक
इस पतन से बचने का क्या उपाय है भगवन्?
प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग-द्वेष अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा स्थित हैं, इसलिये मनुष्य राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म न करें; क्योंकि ये दोनों ही मनुष्य के शत्रु हैं।। 34।।
तो फिर मनुष्य को क्या करना चाहिये?
अपने धर्म (कर्तव्य)- का पालन करना चाहिये। गुणों की कमी वाला भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म का पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय तो वह (अपने धर्म का पालन) कल्याण करने वाला है । परन्तु दूसरों का धर्म कितना ही गुण वाला होने पर भी भय को देने वाला है।। 35।।
अर्जुन बोले- जब अपने धर्म का पालन करना ही श्रेष्ठ है तो फिर मनुष्य न चाहता हुआ भी बलपूर्वक लगाये हुए के समान किससे प्रेरित होकर अधर्म का, पाप का आचरण करता है?।। 36।।
भगवान् बोले- रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम (कामना) को ही तू पाप कराने वाला समझ। इस काम से ही क्रोध पैदा होता है। यह काम कभी भी तृप्त न होने वाला और महापापी है, इस विषय में तू उस काम को वैरी समझ।। 37।।
यह महापापी काम क्या करता है?
जैसे धुआँ अग्नि को, मैल दर्पण को और जेर गर्भ को ढक देता है, ऐसे ही यह काम (कामना) पाप न करने की इच्छा को दबाकर मनुष्य को पाप में लगाता हैय और हे कुन्तीनन्दन! यह काम अग्नि की तरह तृप्त न होने वाला और विवेकी साधकों का नित्य वैरी है। इस काम के द्वारा मनुष्य का ढक जाता है।। 38-39।।
ऐसा वह काम रहता कहाँ है?
वह काम इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- इन तीन स्थानों में रहता है और इन्द्रियों आदि के द्वारा देहाभिमानी मनुष्य के ज्ञान को ढककर उसे मोहित करता
है।। 40।।
उस काम का नाश कैसे किया जाय?
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! तू सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान को ढकने वाले महापापी काम को अवश्य ही मार डाल।। 41।।
आपने जो उपाय बताया, उसको काममें कैसे लायें भगवन्?
शरीर से इन्द्रियाँ पर हैं, इन्द्रियों से मन पर है, मनसे पर है और बुद्धि से काम पर हैं। इस तरह काम को बुद्धि से पर जानकर अपने द्वारा अपने-आपको वश में करके हे महाबाहो ! तू इस दुर्जय शत्रु काम को मार डाल।। 42-43।।
।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः ।।
चैथा अध्याय
अभी आपने जिस कर्मयोग में काम (कामना)-के नाश के लिये प्रेरणा की है, उस कर्मयोग की क्या परम्परा है ?
भगवान् बोले- इस अविनाशी योग को मैंने सबसे पहले सूर्य से कहा था। फिर सूर्यने अपने पुत्र मनु से और मनुने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा। इस तरह हे परंतप! परम्परा से चलते आये इस योग को राजर्षियों ने जाना, परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोक में लुप्तप्राय हो गया है। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसीलिये वही पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है, जो कि बड़े उत्तम रहस्य की बात है।। 1-3।।
अर्जुन बोले- परन्तु भगवन्! जिस सूर्य को आपने उपदेश दिया था, वह तो बहुत पहले उत्पन्न हुआ है, जबकि आपका जन्म (अवतार) तो अभी हुआ है। अतः मैं यह कैसे जानूँ कि आपने ही सृष्टि के आरम्भ में सूर्य को उपदेश दिया था? ।। 4।।
भगवान् बोले-हे परंतप अर्जुन! यह बात मेरे इसी जन्म (अवतार) की नहीं है। मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ अर्थात् किस-किस जन्म में मैंने और तूने क्या क्या किया, उन सब बातों को मैं जानता हूँ, पर तू अपने जन्मों और कर्मों को नहीं जानता।। 5 ।।
जैसे मेरा जन्म हुआ है, ऐसे ही आपका जन्म नहीं हुआ है क्या?
नहीं भैया, मैं अजन्मा, अविनाशी तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर रहता हुआ ही अपनी प्रकृति को वश में करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।। 6।।
आपके प्रकट होने का अवसर कौन-सा है?
हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।। 7।।
आपका अवतार लेने का प्रयोजन क्या है?
साधुओं (भक्तों) की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में अवतार लेता हूँ।। 8।।
इस तरह बार-बार जन्म (अवतार) लेने से क्या आप बँधते नहीं?
नहीं अर्जुन, मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। अपना कुछ भी स्वार्थ न रख कर केवल दुनिया का हित करने के लिये ही मैं प्रकट होता हूँ। इसको जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर छूटनेके बाद पुनर्जन्म न लेकर मुझे ही प्राप्त होता है।। 9।।
आपको ही प्राप्त होता है- इसमें कोई प्रमाण भी है?
हाँ, जो मुझमें ही तल्लीन और मेरे ही आश्रित हो गये हैं, ऐसे बहुत से मनुष्य ज्ञान से अर्थात् मेरे जन्म और कर्म की दिव्यता को तत्त्व से जानने से पवित्र होकर तथा राग, भय और क्रोध से रहित होकर मुझे प्राप्त हो चुके हैं।। 10।।
वे किस भाव से आपके आश्रित (शरण) होते हैं?
हे पार्थ! जो मनुष्य संसार से विमुख होकर जिस भाव से मेरे शरण हो जाते हैं, मैं भी उनके साथ उसी भावसे (वैसा ही बर्ताव करता हूँ। मेरे इस बर्ताव का संसार मात्र के मनुष्यों पर बड़ा असर पड़ता है, जिससे वे भी स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके दूसरों का हित करने में तत्पर हो जाते हैं।। 11।।
आप अपने शरण होने वालों के इतने अनुकूल हो जाते हैं, फिर भी मनुष्य आपको छोड़कर देवताओं की उपासना क्यों करते हैं?
उनके भीतर संसार का महत्त्व होने से वे कर्मजन्य सिद्धि को चाहते हैं। इसलिये वे मुझे छोड़कर देवताओं की उपासना करते हैं; क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र होती है।। 12।। (हिफी) (क्रमशः साभार)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)