धू-धू कर जल रही हरीतिमा

गर्मियों में वनों में आग लगने की घटनायें बहुत होती हैं। उत्तराखण्ड में कुमाऊँ व गढ़वाल के वन इस बार धधकते रहे। नैनीताल के आस-पास के वनों से आग आवासीय कालौनी तक पहंुच गयी थी। हाईकोर्ट कालोनी तक आग पहंुच गयी। वनकर्मियों के काफी कोशिशों के बाद भी आग पर काबू नहीं पाया जा सका तो हेलीकोप्टरों से पानी की बौछार कर आग बुझायी गयी। सुप्रीट कोर्ट तक दावाग्नि का मामला पहंुचा।
वन राष्ट्रीय सम्पत्ति है। वनों से हम कई तरीके से लाभांवित होते हैं। पहाड़ी क्षेत्र में हरे-भरे पेड़ांे का होना यहां की जलवायु के लिए जरूरी है ताकि सैलानी यहां सैर के लिए आयें और पर्यटन क्षेत्र का विकास हो। सैलानी मैदानी क्षेत्र की गर्मी से बचने के लिये पर्वतीय क्षेत्र में आते हैं ताकि यहां की ठंडी आबोहवा व संुदर दृश्यावलियों का अवलोकन का आनन्द लेकर शांति महसूस कर सकें लेकिन उनके सपने तब चकनाचूर हो जाते हैं जब उन्हंे यहां धंुध व आग की तपिश सहन करनी पड़ती है। इससे पर्यटन से निकलने वाले राजस्व की हानि होती है। वन सम्पदा की जो हानि होती है सो अलग।
आग से जैव विविधता बुरी तरह से प्रभावित होती है। छोटे-छोटे जीव जंतु, पशु पक्षी, पेड़-पौधे, जड़ी बूटियां, कृषि क्षेत्र भी जंगल की आग के चपेट में आ जाते हैं। बहुमूल्य सम्पदा नष्ट हो जाती है। आग से आर्थिक नुकसान का आकलन किया जा सकता है लेकिन जैव विविधता को जो हानि पहुंचती है। उसका आकलन कठिन है।
पहाड़ी क्षेत्र में आग प्रायः चीड़ की पत्तियों से लगती है। चीड़ की पत्तियांे में लगी आग सारे जंगल को अपने लपेटे में ले लेती है।
जब आग की कोई चिंगारी इन पत्तियों पर पड़ती है तो इसकी आग से दूसरे पेड़ों व झाड़ियों में भी आग लग जाती है। पशुओं को चराने के लिए ग्रामीण झाड़ियों में आग लगा देते हैं। कभी-कभी पत्थरों की रगड़ से भी आग पैदा होती है। कई शरारती तत्व वनों में आग लगा देते हैं। बीड़ी सिगरेट सुलगाकर झाड़ियों में फेंक देते हैं।
वनाग्नि पर नियंत्रण पाने के लिए वन विभाग के पास कोई ठोस योजना नहीं है। जैसा कि सुप्रीट कोर्ट ने कहा है कि मानसून व क्लाउड सीडिंग वनों की आग बुझाने का कोई विकल्प नहीं है। इसके लिए सही कार्ययोजना की आवश्यकता है।
ब्रिटिशकाल में वनों की आग पर नियंत्रण पाने के लिये कई तरीके अपनाये जाते थे जो प्रभावी सिद्ध होते थे। तब 100 फीट फायर लाइन बनायी जाती थी। फायर लाइन पर पेड़ हटाने के लिये एक्शन प्लान की जरूरत है। जिसके लिये सुप्रीट कोर्ट की परमिशन चाहिये। अब वहां से स्वीकृति प्राप्त होगी, तभी योजना पर काम संभव है।
आग से पेड़ों की हरियाली नष्ट होती है। इसके अलावा भूमि का कटाव होता है। भू-कटाव से भूस्खलन की घटनायें होती है। पेड़ों की जड़ें भूकटाव को रोकती है। जड़ें भूमि से जुड़ी होती हैं जिससे मलवा नहीं गिर पाता। आग से भूमि शुष्क हो जाती है जिससे तापमान में वृद्धि होती है। जलवायु परिवर्तन पर इसका दुष्प्रभाव होता है। जलस्रोत सूख जाते हैं जिससे कृषि की सिंचाई व पेयजल के लिए अकाल पैदा होता है। वनाग्नि से छोटे-बड़े वन्यजीवों को भी खतरा होता हैै।
वनों में मानवीय अतिक्रमण व अवांछित हस्तक्षेप वनाग्नि का एक कारण है। झूम खेती भी वनों की आग का कारण बनती है। झूम खेती के तहत पहले वृक्षों व वनस्पतियों को काटकर उन्हें जला दिया जाता है तथा परम्परागत तरीके से कृषि के लिये बीजों का रोपण कर दिया जाता है। इससे वन भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है।
वनाग्नि पर नियंत्रण पाने के लिये वनाग्नि संबंधी तकनीकी प्रशिक्षण की आवश्यकता है। पर्वतीय क्षेत्र में चीड़ के पेड़ आग लगने का प्रमुख कारण हैं। चीड़ की पत्तियों को पिरूल कहा जाता है जिससे लीसा बनता है। चीड़ भूमि की उर्वरा शक्ति को नष्ट करता है लेकिन यह पर्वतीय जलवायु के लिये आवश्यक है।
वनाग्नि पर नियंत्रण पाने के लिये जन भागीदारी जरूरी है। वन पंचायतों व वन विभाग के संयुक्त प्रयास से वनों की आग पर काबू पाया जा सकता है। वनों में आग लगाने वाले अराजक तत्वों को चिन्हित का उनके विरूद्ध कानून के तहत सख्त कार्यवाही की जरूरत है। (हिफी)
(बृजमोहन पन्त-हिफी फीचर)