
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
अज्ञानवश जीवन बनता है कर्मों का कर्ता
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।। 14।।
परमेश्वर मनुष्यों के न कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के साथ संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।
व्याख्या-स्वरूप की तरह परमात्मा भी किसी को कर्म करने की प्रेरणा नहीं करते। मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है। कर्तापन, कर्म और कर्मफल के साथ संयोग जीव का काम है, परमात्मा का नहीं, अतः इनका त्याग करने का दायित्व भी जीव पर ही है। जीव ही अज्ञानवश प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़कर कर्मों का कर्ता बनता है और कर्मफल के साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दुःखी होता है।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैच सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यान्ति जन्तवः।। 15।।
सर्व व्यापी परमात्मा न किसी के पाप-कर्म को और न शुभ-कर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब जीव मोहित हो रहे हैं।
व्याख्या-सर्वव्यापी चेतन-तत्त्व किसी के भी पाप-कर्म अथवा पुण्य-कर्म का कर्ता और भोक्ता नहीं बनता, प्रत्युत अज्ञानवश जीव ही कर्ता-भोक्ता बन जाता है।
ज्ञान का कभी अभाव नहीं होता। अतः ‘अज्ञान’ शब्द ज्ञान के अभाव का वाचक नहीं है, प्रत्युत अधूरे ज्ञान का वाचक है। बौद्धिक ज्ञान अधूरा ज्ञान है। अधूरे ज्ञान से ही ज्ञान का अभिमान उत्पन्न होता है। पूर्ण ज्ञान होने से अभिमान मिट जाता है। अतः बौद्धिक ज्ञान को महत्त्व देने से वास्तविक ज्ञान की ओर दृष्टि नहीं जाती यही अज्ञान के द्वारा ज्ञान को ढकना है।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। 16।।
परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञान के द्वारा उस अज्ञान का नाश कर दिया है, उनका वह ज्ञान सूर्य की तरह परम तत्त्व परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।
व्याख्या-अपने विवेक को महत्त्व देने से अज्ञान का नाश हो जाता है। अज्ञान का नाश होने पर वह विवेक ही तत्त्वज्ञान में परिणत हो जाता है।
अज्ञान का नाश विवेक को महत्त्व देने से होता है, अभ्यास से नहीं। अभ्यास करने से जड़ता के साथ सम्बन्ध बना रहता है, क्योंकि जड़ता (शरीरादि) की सहायता लिये बिना अभ्यास होता ही नहीं। तत्त्व ज्ञान का अनुभव जड़ता के द्वारा नहीं होता, प्रत्युत जड़ता के त्याग से होता है।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तनिष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा।। 17।।
जिनका मन तदाकार हो रहा है, जिनकी बुद्धि तदाकार हो रही है, जिसकी स्थिति परमात्मतत्त्व में है, ऐसे परमात्मपरायण साधक ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर अपुनरावृत्ति परमगति को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-जहाँ मन-बुद्धि लगते हैं, वहाँ स्वयं भी लग जाता है-यह जीव का स्वभाव है। अतः मन-बुद्धि परमात्मा में लगने पर स्वयं भी परमात्मा में लग जाता है (गीता 12/8)। स्वयं परमात्मा में लगने पर अहम् (चिज्जड़ग्रन्थि) मिट जाता है। अहम् मिटने पर सभी विकार मिट जाते हैं। क्योंकि सभी विकार, पाप, ताप, अहम् पर ही टिके हुए हैं। अहम् मिटने पर साधक साधन में और साधन साध्य में विलीन हो जाता है। फिर एक परमात्मा के सिवाय अन्य कोई सत्ता नहीं रहती। यही अपुनरावृत्ति को प्राप्त होना है। कारण कि जो परमात्मतत्त्व सब देश, काल आदि में परिपूर्ण है, उसे प्राप्त होने पर पुनरावृत्ति का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। 18।।
ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनय युक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते मंे भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।
व्याख्या-बेसमझ लोगांे के द्वारा यह श्लोक प्रायः सम-व्यववहार के उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु इस श्लोक में ‘समवर्तिनः’ न कहकर ‘समदर्शिनः’ कहा गया है, जिसका अर्थ है-समदृष्टि से भी देखें तो ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी और कुत्ते के प्रति सम-व्यवहार असम्भव है। इनमें विषमता अनिवार्य है। जैसे, पूजन विद्या-विनय युक्त ब्राह्मण का ही हो सकता है, न कि चाण्डाल का, दूध गाय का ही पीया जाता है, न कि कुतिया का, सवारी हाथी पर ही की जा सकती है, न कि कुत्ते पर। जैसे शरीर के प्रत्येक अंग के व्यवहार में विषमता अनिवार्य है, पर सुख-दुःख में समता होती है अर्थात् शरीर के किसी भी अंग का सुख हमारा सुख होता है और दुःख हमारा दुःख। हमें किसी भी अंग की पीड़ा सह्य नहीं होती। ऐसे ही प्राणियों से विषम ़(यथा योग्य) व्यवहार करते हुए भी उनके सुख-दुःख में समभाव होना चाहिये।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थितः।। 19।।
जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है अर्थात् वे जीवन्मुक्त हो गये हैं, क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।
व्याख्या-परमात्मतत्त्व में स्थित हुए महापुरुष की पहचान है-बुद्धि में समता आना अर्थात् बुद्धि में राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार न होना। जिसकी बुद्धि समता में स्थित हो गयी है, उसे जीवन्मुक्त समझना चाहिये।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिर बुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।। 20।।
जो प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला मूढ़ता रहित (ज्ञानी) तथा ब्रह्म को जानने वाला मनुष्य ब्रह्म में स्थित है।
व्याख्या-जीवन्मुक्त महापुरुष को प्रियता और अप्रियता का ज्ञान तो होता है, पर उसके कहलाने वाले अन्तःकरण में राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकास नहीं होते। ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत विकास होना दोषी है।
ब्रह्म को जानने से अहम् (व्यक्तित्व) मिट जाता है। अहम् मिटने से ब्रह्म को जानने वाला नहीं रहता, प्रत्युत एक ब्रह्म ही ब्रह्म रह जाता है। -क्रमशः (हिफी)