
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भक्त की सभी क्रियाओं के भोक्ता हैं भगवान
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दयात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।। 21।।
बाह्यस्पर्ष प्राकृत वस्तु मात्र के सम्बन्ध में आसक्ति रहित अन्तःकरण वाला साधक अन्तःकरण में जो (सात्त्विक) सुख है, उसको प्राप्त होता है। फिर वह ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित मनुष्य अक्षय सुख का अनुभव करता है।
व्याख्या-जब सांसारिक प्राणी-पदार्थों की आसक्ति मिट जाती है, तब साधक को सात्त्विक सुख प्राप्त होता है। जब साधक सात्त्विक सुख का भी उपभोग नहीं करता और उसमें सन्तोष नहीं करता, तब उसे अखण्ड सुख का अनुभव होता है। सात्त्विक सुख तो प्राकृत होने से खण्डित होता रहता है, पर अखण्ड सुख कभी खण्डित नहीं होता, प्रत्युत निरन्तर एकरस रहता है। यह अखण्ड सुख मोक्ष का सुख है।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।। 22।।
क्योंकि हे कुन्तीनन्दन! जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले भोग (सुख) हैं, वे आदि अन्त वाले और दुःख के ही कारण हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।
व्याख्या-संसार के सभी सुख-दुःख की अपेक्षा से हैं। कोई भी सुख निरन्तर नहीं रहता। यदि सांसारिक सुख निरन्तर रहता तो वह दुःख रूप ही हो जाता । कारण कि सांसारिक भोगों में निरन्तर सुख देने की शक्ति ही नहीं है। निरन्तर सुख देने की शक्ति केवल मोक्ष के अखण्ड रस में ही है। संसार के प्रत्येक सुख भोग का परिणाम दुःख होता है-यह नियम है।
सांसारिक सुख मिलने और बिछुड़ने वाला है, जबकि स्वयं निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहने वाला है। सांसारिक सुख स्वयं का साथी नहीं है। इसलिए विवेकी साधक सांसारिक भोगों की प्राप्ति में सुखी और अप्राप्ति में दुःखी नहीं होता।
सांसारिक सुख भोग से थकावट आती है और पारमार्थिक सुख से विश्राम मिलता है। सांसारिक सुख सापेक्ष और पारमार्थिक सुख निरपेक्ष है। जब मनुष्य को नींद आती है, तब वह बड़े से बड़े सांसारिक सुख का भी त्याग करके सो जाता है। सोने से उसकी थकावट मिटती है, विश्राम मिलता है और ताजगी आती है। यदि वह सोये नहीं तो पागल हो जाय! तात्पर्य है कि सांसारिक सुख का त्याग किये बिना मनुष्य रह सकता ही नहीं।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीररविमोक्षणात्।
कामक्रोधो˜ोवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।। 23।।
इस मनुष्य शरीर में जो कोई मनुष्य शरीर छूटने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर योगी है और वही सुखी है।
व्याख्या-विवेकी साधक को चाहिये कि वह काम-क्रोधादि विकारों को आरम्भ मंे ही सहन कर ले, उनके अनुसार क्रिया न करे (गीता 3/34)। काम-क्रोधादि की वृत्ति उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर दे, अन्यथा एक बार काम-क्रोधादि का वेग उत्पन्न होने पर साधक तदनुसार क्रिया करने में बाध्य हो जाता है (गीता 3/36)। काम-क्रोधादि के वश में न होने वाला साधक ही वास्तव में योगी है। जो योगी होता है, वही वास्तव में सुखी होता है।
योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्र्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।। 24।।
जो मनुष्य केवल परमात्मा में सुखवाला और केवल परमात्मा में रमण करने वाला है तथा जो केवल परमात्मा में ज्ञान वाला है, वह ब्रह्म में अपनी स्थिति का अनुभव करने वाला ब्रह्मरूप बना हुआ सांख्य योगी निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होता है।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतिहिते रताः।। 25।।
जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियों सहित वश में है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।। 26।।
काम-क्रोध सर्वथा रहित, जीते हुए मन वाले और स्वरूप का साक्षात्कार किये हुए सांख्य योगियों के लिये सब ओर से शरीर के रहते हुए अथवा शरीर छूटने के बाद निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।। 27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।। 28।।
बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वश में हैं, जो केवल मोक्ष-परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।
व्याख्या-बाहर के पदार्थों को बाहर ही छोड़ने का तात्पर्य है कि साधक की वृत्ति में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय अन्य कोई भी सत्ता न रहे। मुक्ति स्वतः सिद्ध है, पर मिलने और बिछुड़ने वाले प्राणी-पदार्थों की सत्ता, महत्ता और अपनापन होने के कारण उसका अनुभव नहीं होता।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। 29।।
मुझे सब यज्ञों और तापों का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद स्वार्थ रहित दयालु और प्रेमी जानकर भक्त शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-भगवान् केवल यज्ञों और तपों के भोक्ता ही नहीं, प्रत्युत भक्तों के द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं के भोक्ता भी हैं (गीता 9/27)। प्रेम के भोक्ता भी भगवान् ही हैं। कोई किसी को नमस्कार करता है तो उसके भोक्ता भी वहीं हैं। कोई किसी देवता का पूजन करता है तो उसके भोक्ता भी वहीं हैं (गीता 9/23)।
भगवान् सम्पूर्ण शुभ कर्मों के भोक्ता हैं, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं और हमारे परम सुहृद हैं-ऐसा दृढ़तापूर्वक स्वीकार करने से साधक की संसार से ममता हटकर भगवान् में आत्मीयता हो जाती है, जिसके होते ही परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है।
इस प्रकार कर्म-संन्यास योग का पांचवां अध्याय समाप्त होता है। -क्रमशः (हिफी)