
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
अपनी कमी देखो और मिटाने की चेष्टा करो
(छठा अध्याय)
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।। 1।।
श्री भगवान बोले-कर्म फल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं होता।
व्याख्या-संन्यासी अथवा योगी मनुष्य न तो अग्नि से बँधता है, न क्रियाओं से ही बँधता है, प्रत्युत कर्म फल की इच्छा से बँधता है-‘फल सक्तो निबध्यते’ (गीता 5/12)। अतः जिसने कर्मफल की इच्छा का त्याग कर दिया है, वही सच्चा संन्यासी अथवा योगी है। कर्मफल की आसक्ति का त्याग करने से परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है-‘त्यागाच्छानिन्तरनन्तरम्’ (गीता 12/12)। अतः सच्चा त्यागी भी वही है, जिसने कर्मफल की आसक्ति का त्याग कर दिया है-‘यस्तु कर्मफल त्यागी स त्यागीत्यभिधीयते’ (गीता 18/19)।
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यासन्न्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।। 2।।
हे अर्जुन्! लोग जिसको संन्यास-ऐसा कहते हैं, उसी को तुम योग समझो, क्योंकि संकल्पों का त्याग किये बिना मनुष्य कोई सा भी योगी नहीं हो सकता।
व्याख्या-सांख्य योग और कर्मयोग-दोनों साधन अलग-अलग होने पर भी संकल्पों के त्याग में एक हैं। जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में संसार की सत्ता, महत्ता और अपनापन है, तब तक वह संकल्पों का त्याग नहीं कर सकता। संकल्पों का त्याग किये बिना मनुष्य ज्ञानयोगी, हठयोगी, ध्यानयोगी, कर्मयोगी, भक्तियोगी आदि कोई-सा भी योगी नहीं होता, प्रत्युत भोगी होता है।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्चयते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। 3।।
जो योग (समता) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्म प्राप्ति में कारण कहा गया है।
व्याख्या-निष्काम भाव से केवल दूसरे के लिये कर्म करने से करने का वेग मिट जाता है। कर्म करने का वेग मिटने से साधक योगारूढ़ अर्थात् समता में स्थित हो जाता है। योगारूढ़ होने पर एक शान्ति प्राप्त होती है। उस शान्ति का उपभोग न करने से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
शम (शान्ति) का अर्थ है-शान्त होना, चुप होना, कुछ न करना। जब तक हमारा सम्बन्ध ‘करने’ (क्रिया) के साथ है, तब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है। जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, तब तक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरण रूप बन्धन है। प्रकृति के साथ सम्बन्ध न करने से मिटेगा। कारण कि ़िक्रया और पदार्थ-दोनों प्रकृति में हैं। चेतन-तत्त्व में न क्रिया है, न पदार्थ। इसलिए परमात्म प्राप्ति के लिये ‘शम’ अर्थात् कुछ न करना ही कारण है। हाँ, अगर हम इस शान्ति का उपभोग करेंगे तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। मैं शान्त हूँ इस प्रकार शान्ति में अहंकार लगाने से और बड़ी शान्ति है। इस प्रकार शान्ति में सन्तुष्ट होने से शान्ति का उपभोग हो जाता है। इसलिये शान्ति में व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वतः है। शान्ति का उपभोग करने से शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता अथवा निद्रा आ जायगी। उपभोग न करने से शान्ति स्वतः रहेगी। क्रिया और अभिमान के बिना जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है। कारण कि उस शान्ति का कोई कर्ता अथवा भोक्ता नहीं है। जहाँ कर्ता अथवा भोक्ता होता है, वहाँ भोग होने पर संसार में स्थिति होती है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्प संन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।। 4।।
कारण कि जिस समय न इन्द्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।
व्याख्या-संसार का स्वरूप है-पदार्थ और क्रिया। मनुष्य योगारूढ़ योग में स्थित तभी होता है, जब उसकी पदार्थ और क्रिया में आसक्ति नहीं रहती।
जब तक पदार्थ और क्रिया की आसक्ति है, तब तक वह संसार (विषमता) में ही स्थित है।
प्रत्येक पदार्थ का संयोग और वियोग होता है। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक संकल्प उत्पन्न और नष्ट होता है। परन्तु स्वयं नित्य-निरन्तर ज्यांे-का-त्यों रहता है। इसलिये जब साधक पदार्थ और क्रिया की आसक्ति मिटा देता है तथा सम्पूर्ण संकल्पों का त्याग कर देता है, तब वह योगारूढ़ हो जाता है।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। 5।।
अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना तपन न करे, क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
व्याख्या-गुरू बनना या बनाना गीता का सिद्धान्त नहीं है। वास्तव में मनुष्य आप ही अपना गुरू है। इसलिये अपने को ही उपदेश दे अर्थात् दूसरे में कमी न देखकर अपने में ही कमी देखे और उसे मिटाने की चेष्टा करे। भगवान् भी विद्यमान हैं फिर उद्धार में देरी क्यों? नाशवान् व्यक्ति, पदार्थ और क्रिया में आसक्ति के कारण ही उद्धार में देरी हो रही हैं इसे मिटाने की जिम्मेवारी हम पर ही है क्योंकि हमने ही आसक्ति की है।
पूर्वपक्ष-गुरू, सन्त और भगवान् भी तो मनुष्य का उद्धार करते हैं, ऐसा लोक में देखा जाता है?
उत्तर पक्ष-गुरू, सन्त और भगवान् भी मनुष्य का तभी उद्धार करते हैं, जब वह स्वयं उन्हें स्वीकार करता है अर्थात् उन पर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनके सम्मुख होता है, उनकी शरण लेता है, उनकी आज्ञा का पालन करता है। गुरू, सन्त और भगवान् का कभी अभाव नहीं होता, पर अभी तक हमारा उद्धार नहीं हुआ तो इससे सिद्ध होता है कि हमने ही उन्हें स्वीकार नहीं किया। जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया, उन्हीं का उद्धार हुआ। अतः अपने उद्धार और पतन में हम ही हेतु हुए। -क्रमशः (हिफी)